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नदी मिथक और जीवन

मिथक और नदियां दोनों हमारे जीवन से गहरे तौर पर जुड़े है। एक हमारे मानस मे प्रवाहित होती है तो दूसरी धरती पर । किंतु दोनों का ही प्रवाह एक साथ दिक काल में कई तलों व आयामों में होता है। अपनी सीमाओं की वजह से हमारी प्रवृत्ति उसे एकांगी रूप में देखने की होती है नदियों को जलसंसाधन मात्र तो मिथको को फुजूल के खिस्से।

मिथक नाम आते ही आमतौर पर आज लोगों(खासकर युवाओं) के मन में पुरानी पोथियों(खासकर धार्मिक) में कैद एक ऐसी दुनिया की छवि उभरती है। जिसके साथ वर्तमान का कोई संवाद नहीं है कोई सावल नहीं कोई गुफ्तगू नहीं। सो आज की वैज्ञानिक तर्कशील पीढ़ी मिथकों को विज्ञान के मुकाबले कुछ इस तरह से खड़ा करती है कि प्रगतिशील कहाने वाले लोगों को मिथकों में मानव सभ्यता के आगे की यात्रा के हिसाब से सुफेद कम स्याह ज्यादा नजर आता है। वे उसे भूत करार देकर जल्दी से पीछा छुड़ा लेने में ही भलाई समझते है। उनकी माने तो कौतुक व मनोरंजन के लिए आप इसके पास जा सकते हैं पर उसमें रमना जुड़ना वक्त जाया कर फाव में आऊटडेटेड होने का ठप्पा लगवाना है।ये हालात इसलिए है कि छापे के अक्षरों के विकास के बाद से ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया व उसका प्रवाह सामाजिक से कहीं अधिक वैयक्तिक हो चली है।

सामूहिक अवचेतन जो पहले वैयक्तिक व सामाजिक दोनों स्तरों पर हमारी पहचान तय करता था।इसमें सामाजिक स्मृतियों की खासी भूमिका थी। इनमें से कई स्मृतियां दूर क्षीतिज से मिथकों के पास से आती थी। जैसे दूर तारों के पास से आती रोशनी बहुत मद्धम होने की वजह से आम लोगों के लिहाज से किसी काम की नहीं होती पर लैज्ञानिकों के लिए उस रोशनी में ब्रह्मांड के कई राज छिपे होते हैं।

वैसे ही वर्तमान की परिधी में खड़ा आधुनिक मनुष्य अपनी सीमाओं की वजह से कई बार मिथकों में कोई सार कोई अर्थ नहीं खोज नहीं पाता हैं। आज से पहले समाज में ज्ञान श्रुतियों(कथाओ व मिथकों) में प्रवाहमान था। कथाओं की खास भूमिका थी क्योंकि यही समाज के खास व आम अनुभवों को रोचक व पाचक ढंग से समय व समाज में प्रवाहमान करता था। इसी धारा में मूल्य(सामाजिक वैयक्तिक) और उनके जरिये कौशल भी एक बिंदू से दूसरे बिंदू तक पहुंचते थे, ब्यष्टी और समष्टी दोनों स्तरों पर।

यही कारण है कि अतीत में जनजातीय समाजो में कथावाचकों(स्टोरी टेलर) का महत्व योद्धाओं से कहीं अधिक ही होता था कम नहीं ।मंगोल जिन्होंने एक समय लगभग पूरी दुनिया को जीत लिया था उनके संगठित और सशक्त होने में कथाओं व मिथकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। शिकार उनकी युद्ध शैली का अहम हिस्सा था यही वजह है कि हमारे खिस्से कहानियों में राजा और शिकार अभिन्न रूप से जुड़ गए। मंगोल मिथक कथाओं में एक नायक आकाश में उगे पांच सूरज में चार सूरज को अपने से तीर से नीचे गिरा देता है तो चीनी मिथक कथाओ में नायक यी 10 सूरज में से नौ सूरज से अपने बाणों से नीचे धरती पर गिरा देता है। एक साथ आकाश में पांच चार दस सूरज आज हमारे अनुभव व सोच की परिधी से बाहर है । पर स्कैंडिनेवियाई देशों में आकाश में एक साथ दो या चार सूरज देखने की बात आती है। मिथकों का अर्थ समझने के लिए हमें उसे एक साथ इतिहास, भाषाविज्ञान, भूगर्भशास्त्र के कई बिंदुओं से देखने पऱखने की आवश्यकता है।

मिथक समाज को एक डोर में बांधे रखने और इस तरह उन्हें सशक्त व अर्थवान बनाने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं। जीवन रस सिक्त और अर्थवान हो उसमें स्मृतियों की महति भूमिका है। स्मृति जहां जिस ठौर अपनी थकान मिटाती है या फिर जहां डुबकियां लागाकर अपने को ताजा दम कर आगे की यात्रा पर निकलती है वो कथाएं ही हैं। कथाओं के घाट पर मन तर्क के तान से मुक्त होता है कल्पना अपने नैसर्गिक प्रवाह में और सृजन अपनी रौ में होता है। कथाओं की उम्र स्मृतियो(वैयक्तिक) से कहीं लंबी होती है। इनकी उम्र कई बार सभ्यताओं से भी बड़ी होती है। यही वजह है कि पुरानी सभ्याताओं के मिथक उसी रूप में या फिर नये रूपों में नयी सभ्यता में आ जाते हैं। कैसे ये कथाएं एक समय की कथा कहते हैं इसका नमूना कहावत से ले सकते हैं एक कहावत है बारीक पटुआ तीत । इसे अगर हम भुला दें तो नयी पीढ़ी को यह पता नहीं होगा की पटसन के पत्तों के साग खाये जाते थे।

कथाओं से भी ज्यादा लंबी होती है मिथकों की। विभिन्न सभ्यताओं के मिथकों को जब हम एक साथ पढ़ते गुनते है तो पाते हैं कि इनमें कई समानताएं है जो एक मूल स्रोत की ओर इशारा करती हैं। मिथकों की दुनियां को जब खंगालते हैं तो पाते हैं कि ये दिक काल में काफी यात्राएं करती है। इस वजह से कई बार धरती के दो कोनों के बीच बसे समाजों के रीति रिवाज एक से होते हैं। कई मिथक कथाओं की संरचना थोड़े बहुत हेर फेर के परे समानधर्मा लगती है।यानी एक ही स्रोत से आती मालूम पड़ती है। ओल्ड टेस्टामेंट की कथा में मिश्र के राजाओं के कोप से बचकर भागते यहुदियों की रक्षा के लिए समुद्र का पानी दो भागों में बंटकर रास्ता दे देता है तो कृष्ण की रक्षा के प्रयत्न में लगे वासुदेव की सहूलियत के लिए यमुना रास्ता दे देती है।

लगातार बढ़ने वाले पर्वत कई देशों की मिथक कथाओं में आते हैं। रावण और शिव की कथा ही ले लीजिए रावण शिव को अपनी अराधना से रिझाकर अपने साथ श्रीलंका ले जा रहा था। देवताओं ने उससे छल कर शिव को वहां वहां जाने से बचा लिया उनके वचन की मर्यादा रखते हुए। वैद्यनाथ धाम की कथा में रावण के साथ जहां विष्णु ने छल किया वही कर्नाटक के गोकर्ण में गणेश ने उसके साथ छल किया। समान प्लॉट वाली एक और कथा तमिलनाडु के त्रिची से मिलती है जिसमें रंगनाथ(विष्णु) को विभीषण द्वारा श्रीलंका ले जाने से रोकने के लिए गणेश ने उनके साथ छल किया। जो लोग भी तिरूपति गये होंगे उन्हें देखा होगा कि वहां बालाजी के स्थान को बैकुंठ बताया गया है।

उत्तर बिहार में गंडक नदी के उपरी हिस्से मे भी एक बैकुंठ है जिसके बारे में कहा जाता है कि प्रत्येक वैष्णव को जीवन में एक बार इस बैकुंठ की यात्रा जरूर करनी चाहिए। गंडक नदी का एक ही एक नाम नारायणी या शालीग्रामी भी है। विष्णु के रूप शालीग्राम इसी नदी में मिलते है। भूगर्भ शास्त्र के विद्यार्थियों के लिए यह एमोनिटिक फॉसिल है जिसे मिथको में बज्रकीट भी कहा गयी है।समुद्र में रहने वाले इस प्राचीन जीव को इंडेक्स फॉसिल का दर्जा हासिल है । यानी इनका पाया जाना इस बात का इशारा करता है कि वहां कभी समुद्र रहा होगा।

एमोनाइट देखने में उपर से भेड़ के सिंग की तरह होता है जिसे एक ग्रीक देवता अपने सिर पर धारण करते हैं कुछ ग्रीक इतिहासकारों के अनुसार या मिश्र के देवता आमून के साथ मिलता है जिसे बाद में ग्रीक लोगों ने अपना लिया था। मिथक लोक कथा जीवाश्मों के बीच काफी रिश्ते सुनने को मिलते हैं 100 एडी के पास प्लुटार्क ने एजियन समुद्र के पास सामोआ द्वीप को पनैयमा यानी ब्लड बाथ अथवा ब्लडी बैटल फील्ड कहा था। पुरानी इटालवी नक्शों में इस बात की तस्दीक होती है।

ग्रीक मिथकों के अनुसार यहां पर ग्रीक युद्ध देवता डिओनिसियस के हाथी का अमोजोन्स के साथ भयंकर युद्ध हुआ था जिसकी वजह से धरती लाल हो गयी थी। बाद में यहां से भुगर्भ वैज्ञानिकों ने मैस्टोडोन नाम के हाथी के जीवाश्म को खोज निकाला था। असम के तेजपुर जिले में अग्निगढ़ किला है जिसके बारे में कहा जाता है कि वो बाणासुर का किला था। यहां पर कृष्ण व शिव में भयंकर युद्ध हुआ था जिसकी वजह से धरती लाल हो गयी थी। तेजपुर का अर्थ रक्त होता है इसी से सटे दूसरे जिले का नाम शोणितपुर है जिसका अर्थ भी संस्कृत में रक्त होता है।

कथा कल्पना व अनुभव के सहारे जिस दुनिया को रचती है उसका एक सिरा हमेशा हमारी पकड़ में रहता है या तो हमारे देखे जाने दुनिया में या फिर ऐसी दुनिया में जिसे थोड़े हेऱ् फेर के साथ हम अपना मान सकते हैं। मिथकों की कथा कुछ अलग है। वे एक ऐसी कथा है जिसका विस्तार समय व स्पेस में इतना है कि उसके सामने हमारे अनुभव व हमारा ज्ञान अपने हथियार डाल देते है।यानी की वह दिक् काल(टाइम- स्पेस) में एक अलग स्केल पर होती है इसलिए उस दुनिया के किरदार उसके लक्षण चरित्र बिल्कुल अनजान व अजूबे लगते हैं। वैसे ही जैसे भौतिक विज्ञान में जब हम नैनो स्केल पर जाते हैं तो वहां की दुनिया बिल्कुल अलग होती है ।यहां लोहा पारदर्शी भी हो सकता है और कपड़े अपनी सफाई खुद कर सकते हैं।वैसे भी धरती की उम्र को अगर हम स्केल मान तो मानव की उम्र उसमें नैनो स्केल की तरह ही होगा। जीवाश्मों के सहारे जब हम धरती ती कथा पढ़ते है तो कई अक्षर हमारी पहचान के नहीं होते तो कई पन्ने गायब मिलते है मिलते भी है तो सिलसिलेवार नहीं । उसमें कुछ पाने के लिए हमें

उसमें डूबना होता है उसके प्रवाह में अपने को प्रवाहित करना होता है समय व स्पेस दोनों में दूसरे सिरे से यात्रा करनी होती है। मिथकों के ब्यौरे विस्तार और बारीकी दोनों में ही कई बार हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं हमारी कल्पना को झकझोरते हैं इसलिए वे अक्सर कला की दुनिया में दस्तक देते हैं चित्रकला में खास तौर पर।

मिथकों व नदियों की आपस में नातेदारी है इसलिए चरित्र में उनके बीच काफी समानता देखने में आती है। मिथकों व नदियों को लेकर कई समस्याओं की जड़ में हमारी अपनी सीमाएं। जैसे नदियां दिक काल में एक साथ कई तलो और कई आयामों में प्रवाहमान होती है वैसे ही मिथक भी एक साथ कई स्तरों व आयामों में प्रवाहमान होते हैं। अपने प्रवाह के क्रम में वह गुजरने वाले प्रदेशों से संवाद करती चलती है यह संवाद रूप व कथ्य दोनों ही स्तर होती है। समस्या है कि अपनी सीमाओं की वजह से हम उसके सभी स्वरूप को एक साथ नहीं देख पाते जिसके कारण उसके दो स्वरूप एक दूसरे से नितांत भिन्न हो सकते हैं।

जिसने गंगा को सिर्फ बनारस में देखा हो गोमुख के पास नहीं वह यह मानने को कतई राजी नहीं हो सकता है कि आप फांदकर गंगा को पार सकते हैं।जिसने भूगर्भ शास्त्र नहीं पढ़ा हो उसे कम ही पता होता है कि यमुना गंगा के साथ मिलती है यह हर युग के लिए सत्य नहीं है।बागमति गंगा की सहायक नदी भले हो पर उसकी महत्ता थोड़ी भी कम नहीं है इसके लिए हमें मिथकों का छोर पकड़कर उसके साथ यात्रा पर निकलना होता है। यह यात्रा देश व समय दोनों में होती है। नदियों का संगम तीर्थ माना जाता है यह बात केवल प्रयाग या इलाहाबाद के लिए सच नहीं है । चंद्रा और भागा नदियों का संगम जो साथ मिलकर चेनाब नदी का निर्माण करती है बौद्धों के लिए उतना ही पवित्र है।

कैलाश हमारे लिए जितना पवित्र है बौद्धों के लिए भी उतना ही। दक्षिण भारत में पूजा पाठ के अवसर पर जल को तीर्थ ही कहा जाता है। जब हम भारत से नेपाल की ओर रुख करते हैं तो पाते हैं कि जैसे भारत में हिंदुओं की मुक्ति गंगा के बगैर नहीं होती वैसे ही नेपाल में हिंदू और बौद्ध दोनों की ही बागमति के बगैर नहीं होती। यही बात हमें उत्तर बिहार से चलकर झारखंड पहुंचने पर पता चलती है कि भले दामोदर को हम बंगाल के शोक को तौर पर पहचानते हैं पर संतालों को मुक्ति बगैर दामोदर में अस्थि प्रवाहित किए नहीं होती है।नर्मदा व सोन के अधूरे विवाह की कथा भी एक अलग तल पर जाकर हमें उसके पुरातन प्रवाह मार्ग की कथा बताती है।विष्णु के दस अवताओं में दूसरे अवतार कूर्म हैं।

काकीनाडा में इस अवतार की समपर्त मंदिर की असली मूर्ती के बारे में कई लोगों का कहना है कि यह मूलत: एक फॉसिल है। आंध्रप्रदेश में गांवो में मालेरी फॉर्मेशन में पाये जाने वाले ड़ॉयनासोरों के अवशेष के बारे में भी कई रोचक कहानियां सुनी जाती है कि कुछ फॉसिल को स्थानीय लोग देवी मानकर पूज रहे थे। महाबालेश्वर में भी शिवलिंग और उसकी पूजा पद्धती अलग है। एक नजर देखने में एक लावा प्रवाह से जुड़ा मालूम होता है। एक उदाहरण देने से थोड़ी सहूलियत हो सकती है थोड़ी देर के लिए हम कछुओं की दुनिया में चलते हैं उसे मानव की तरह स्मृति व संवाद सामर्थ्य से लैस मान लें। आपने ओलिव ग्रीन रिडले कछुओं के बारे में सुना होगा।

एक लंबा सफर तयकर उनके लिए सागर तट पर आकर कुछ खास जगहों पर अंडा देना और उन अंडो से बच्चे जैसे ही निकलते हैं वे समुद्र की ओर रुख कर लेते हैं।मुझे इसकी वजह पहले नहीं समझ आती थी। पर बात में पढ़ा की एक समय कछुए बेचारे अत्यं निरीह जीव थे। समुद्र उनके लिए एक खतरनाक जगह थी खासकर उनके नवजातों के लिए । उनकी नवजात बचे रहे और उनका वंश चले इसके लिए उन्होंने सागर के बाहर की दुनिया का रुख किया। पर यह अतीत में काफी पुरानी बात है आज के कछुओं के लिए समुद्र उतनी खतरनाक जगह नहीं है पर यह परंपरा आज भी कायम है।

कुछ मछलियां भी इसी तरह का व्यवहार करती है। पता नहीं कछुए आपस में क्या और कैसे संवाद करते हैं उनके स्मृतियों की कितनी आयु होती है। पर थोड़ी देर के लिए उन्हें अपनी तरह मान लें तो कछुओं के लिए भी उनके पहले पूवर्ज की कहानी जिसने अपने बच्चों मिथक की तरह हो जाएगी।

अभी हाल में ही रूस के साइबेरिया में एक गुफा से इस बात के प्रमाण मिले है कि मानव के दो पूवर्ज प्रजातियों निएंडरथल व डेनिस्टोव के बीच यौन संबंध बने थे। मिथक कथाओं के बारे में पढ़ते हुए दक्षिण पूर्व एशिया पूर्वी इंडोनेशिया के केदांग प्रांत में एक कथा ऐसी मिलती है जिसमें एक नायक एक ऐसी नायिका से मिलता है जो देखने में मानव से काफी भिन्न लगती है। बाद में गौर करने पर उसे पता चलता है कि वह कोई राक्षसी या जानवर न होकर एक महिला है और वह उसके साथ विवाह कर लेता है।

हम आज जिस समय-समाज में जी रहे हैं उसमें सूचनाओं का प्रवाह प्रबल है। जिस तेजी से सूचनाओं का प्रवाह हमारी ओर आ रहा है वो हमारे पैरों को हकीकत (समझ) की जमीन से उखाड़ दे रहा है। हमें ठहरकर सोचने की मोहलत ही नहीं देता है। जिंदगी में हकीकत को आभासी दुनिया ने घेर रही है बड़ी होशियारी से होशियार लोग हमारी सीमाओं का इस्तेमाल कर हमें एक ऐसे कोने में धकेल देते हैं जिसमें हम मान बैठते है हमारे अंदर ज्ञान व सत्य को समझने की असीमित क्षमता है इसकी परिधी से जो भी बाहर है वह मायावी है जो मायावी है वो गैर जरूरी है।

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मुस्कुराइए कि आप मिथिला में हैं.

संस्कृतियों के उद्भव तथा विकास का स्थानीय पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों का अटूट सम्बन्ध है. प्राकृतिक संसाधन पर्यावरण के अनुरूप बदलते रहते हैं तो संस्कृतियाँ भी उसी के संग बदलती हैं और विकसित होती हैं. जहां जंगल ज्यादा हैं वहाँ जंगल आधारित जीवन शैली या संस्कृति का विकास होता है, शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों जीवन पद्धति, रहन-सहन, रीति-रिवाज, खेती-बारी आदि तथा अन्य जीवधारियों से मनुष्यों के सम्बन्ध उसी तरीके से विकसित हुए होंगें. यही बात हिम-आधिक्य क्षेत्र में एक हिम संस्कृति का विकास हुआ होगा.

मिथिला जल-बाहुल्य क्षेत्र था और अभी भी बहुत कुछ बिगड़ा नहीं है तो यहाँ जीवनचक्र जल के इर्द-गिर्द घूमता रहा है और अभी भी पानी ही यहाँ की जीवन चर्या को निर्धारित करता है. रेगिस्तान वाले इलाके में अगर हम जाएँ तो वहाँ का सारा परिवेश जल संचय पर आधारित है. सुबह से उठ कर रात तक पानी के स्रोत खोजना, उसे लाना, उसकी सुरक्षा के उपाय ढूँढना और उसे संपत्ति की तरह सहेजना दिनचर्या का अंग होता है. उन क्षेत्रों में आपको दूध यथेष्ट मात्र में पीने को मिल जाएगा पर बहुत सी जगहें ऐसी हैं जहां पानी का उधारा चलता है. आज अगर मैंने आप को एक घड़ा पानी दिया तो मैं यह आशा करूंगा कि मेरी जरूरत के समय आप एक घड़ा पानी लौटा देंगें.

उस दृष्टि से मिथिला बहुत ही जल-संपन्न क्षेत्र है कि हमारी महिलाओं के सर पर अभी तक घड़े नहीं दिखाई पड़ते जबकि पश्चिमी राजस्थान में घड़ा महिला की पोशाक का हिस्सा बन जाता है. वहाँ अगर कभी किसी ऐसी महिला को ग्रामीण क्षेत्र में आते-जाते देखें जिसके सर पर घड़ा न हो तो यह उतना ही अजीब लगता है जितना मिथिला क्षेत्र की किसी महिला सर पर घड़ा लगता है.

वहाँ परिवार के एक कम से कम या दो पुरुषों का तो काम बनता है कि ऊँट गाड़ी लेकर निकल जाएं और पानी की व्यवस्था करें. उन लोगों ने पानी को संचित रखने और उसे सुरक्षित रखने में ग़ज़ब का कमाल हासिल किया है. जहां तक मिथिला में पानी की स्थिति है, वहाँ आज भी ‘मुस्कुराइए कि आप मिथिला में हैं.’ हमें यहाँ मित्रों से शर्त नहीं लगानी पड़ती कि बारिश होगी तो ओरीचूएगी या नहीं, नाली बहेगी या नहीं आदि आदि. यह सब कम पानी वाले क्षेत्रों की समस्याएं हैं यहाँ बरसात होगी तो झमाझम होगी और वह किसी शर्त के दायरे में नहीं आती.

हमने पानी के प्राचुर्य के साथ जीना सीखा. उसी के हिसाब से हमने अपने घरों की डिजाइन तैयार की, स्थानीय गृह-निर्माण सामग्री से अपने घर बनाए, उसी के अनुरूप अपने कृषि-चक्र को तैयार किया, उसी पर आधारित अपनी फसलों और बीजों का चयन किया और उसी को ध्यान में रख कर पानी के मूल स्रोत नदियों के साथ रिश्ते स्थापित किये. उनका माता, से लेकर भूतनी, वक्रा (बकरा), डाइन आदि तक का नामकरण किया. हमारी कोसी एक ऐसी नदी है जिसे माता और डाइन दोनों का दर्ज़ा समान रूप से हासिल है.

यह निर्भर इस बात पर करता है कि नदी आज हमारे साथ कैसा सलूक कर रही है. हमने उन्हें कन्याओं की तरह स्वछन्द रूप में देख कर उछलते कूदते देखा है जैसा मिथिला की अधिकाँश नदियाँ हैं. वह एक जगह स्थिर नहीं रहतीं. कोसी, बागमती, कमला, महानंदा और अधवारा समूह की अनेको नदियाँ इसके उदाहरण हैं.

वहीँ नारायणी (गंडक) और गंगा विवाहिता इसलिए हैं वो कन्याओं की तरह उछल कूद नहीं करतीं. पर्वत से आने वाली तमाम नदियों को हमने पार्वती कह कर उनका मान बढाया है तो हमारी सिकरहना एक पातालफोड़ नदी है. इन सारी नदियों के साथ पौराणिक और लोक-कथाएँ जुड़ी हैं. पुराण तो लिपिबद्ध हैं मगर लोक कथाओं का हमारे यहाँ टोटा जरूर है.

इन नदियों और सरोवरों से समृद्ध मिथिला ने सिंचाई की व्यवस्था विकसित की थी. उपजाऊ ज़मीन और बारहों महीने उपलब्ध जल ने अकाल या दुर्भिक्ष से मिथिला को साधारणतः दूर रखा. अगर कभी ऐसी परिस्थिति आई भी तो वह जल, जंगल और ज़मीन के कुप्रबंधन और शासकों के लोभ के कारण आयी, समृद्ध पर्यावरण पर पड़े दबाव के कारण नहीं. अट्ठारहवीं शताब्दी के मध्य में अँगरेज़ भारत में सत्ता में आये. अगले लगभग सौ वर्षों में उन्होनें यहाँ की सिंचाई और कृषि के क्षेत्र में बहुत से प्रयोग किये पर उनका उद्देश्य आम जनता की भलाई का उतना नहीं था जितना अपने ज़खीरे भरना.

उन्होनें देश के सूखे वाले क्षेत्र में सफलता भी अच्छी पायी और तब उनकी नज़र इस जल-संपन्न क्षेत्र पर भी पड़ी. उनको लगा कि अगर इस क्षेत्र को बाढ़ से मुक्त कर दिया जाय तो बाढ़ मुक्ति के नाम पर उनकी कमाई हो जायेगी और जब बाढ़ नहीं रहेगी तो सिंचाई की जरूरत पड़ेगी और तब वह उसमें भी कमाई कर लेंगें. उन्हें लगता था कि ऐसा करके वो सूखे वाले क्षेत्रों से ज्यादा पैसा बाढ़ वाले इलाके से बना लेंगें.

उन्होनें बंगाल और उड़ीसा में काफी कोशिशें भी कीं और मुंहकी खाई. जल-संपन्न नदियों ने तो उन्हें अपनी पूरी नीति पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया था. 1870 के आसपास उन्होनें कसम खाई की वो जब तक भारत में रहेंगें, हिमालय से आने वाली और भारी मात्रा में गाद लाने वाली नदियों को कभी बाढ़ नियंत्रण के लिए हाथ नहीं लगायेंगे. यह कौल उन्होनें1947 तक रखा जब तक वो यहाँ से हमेशा के लिए चले नहीं गए.

उनके जाने के बाद आज़ाद भारत में हमने अपने पारम्परिक नजरिये की ओर ध्यान न देकर उन तकनीकों को आगे बढ़ाया जिसमें न तो स्थानीय परिवेश, फसल चक्र, सिंचन व्यवस्था, निर्माण सामग्री और स्थानीय बीजों का ध्यान रखा और न ही अंग्रेजों की गलतियों से कोई सीख ली. जहां अँगरेज़ उत्तर बिहार के सन्दर्भ में अपनी सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण की तकनीक को अव्यावहारिक बता कर हाथ खींच चुके थे उसी को आधुनिकता के नाम पर हमने स्वीकार किया और उसे ही विकसित किया.

शायद यहीं हमसे गलती हो गई. रोटी, कपडा और मकान किसी भी मनुष्य की बुनियादी जरूरतें हैं जिसकी व्यवस्था स्थानीय परिवेश, संसाधन और परंपरा से कर लेनी चाहिए थी जिसमें आधुनिक विज्ञान हमारी मदद करता. रोटी, कपडा और मकान के इन तीनों क्षेत्रों में हमने एक ऐसी बुनियाद पर भवन खड़ा करने का प्रयास किया जो टिकाऊ हो ही नहीं सकता था और वही हुआ. आज हम अगर पलायन न करें तो हमारे घरों में चूल्हे न जलें.

इस विषय पर हमें चिंता और चिंतन जरूर करना चाहिए. हमें अपनी समस्या का समाधान अपने संसाधनों परिवेश, पारंपरिक ज्ञान और जनोन्मुख विज्ञान के सामंजस्य में ही खोजना चाहिए. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इश्वर की श्रेष्ठ कृति ही प्रकृति है और जब हम प्रकृति से कोई छेड़-छाड़ करते हैं तो एक बार यह जरूर सोच लेना चाहिए कि हम किसके मुकाबले खड़े हैं.

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विद्यापति पदावली और मिथिला की लोक चित्रकला

विद्यापति और मिथिला की चित्रकला के बीच एक गहरा संबंध दिखाई पड़ता है। विद्यापति के गीत और चित्रकला मिथिलांचल के जीवन के कण-कण में समाहित हैं।मिथिला की लोक चित्रकला विद्यापति का जन्म 1360 ई. के आसपास अनुमानित है। इससे काफी पूर्व से प्रचलन में रही है। इसे बहुत दिनों तक मधुबनी चित्रकला कहा गया।

प्रारंभ में रंगोली के रूप में रहने के बाद यह कला धीरे-धीरे आधुनिक रूप में कपड़ों,दीवारों एवं कागज पर उतर आयी है। माना जाता है कि ये चित्र राजा जनक ने राम-सीता के विवाह दौरान महिला कलाकारों से बनवाये थे। पहले महिलाएँ इस कला में थीं,अब पुरुष भी सक्रिय हो गये हैं। अपने असली रूप में ये पेंटिंग गाँव की मिट्टी से लीपी गई झोपड़ियों में दिखती है,लेकिन इसे कपड़े या पेपर या कैनवास पर भी बनाया जाता है। देवी-देवताओं की तस्वीर,प्राकृतिक नजारे एवं विवाह के दृश्य इस पेंटिंग की विषय-वस्तु होते हैं।

यह पेंटिंग दो तरह की होती है-भित्ति चित्र और अरिपन या अल्पना। इसमें चटक रंगों का इस्तेमाल खूब किया जाता है। मिथिला लोक चित्रकला की सर्वप्रमुख विशेषता जीवन के हास-विलास,प्राकृतिक संभार एवं अध्यात्म का अंकन है। इसमें जीवन का सम्पूर्ण विस्तार समाहित है और सम्पूर्ण जन-जीवन इसे उत्कीर्ण करने में योगदान देता रहा है। विद्यापति पदावली की भी यही स्थिति है। मिथिला के लोक जीवन के साथ वह एकम एक है।

कविता और चित्रकला में एक अन्तःसम्बन्ध तो बनता ही है। कवि ऐसा चित्रकार होता है,जो बाह्य संसार के बिम्ब को उसी सजीनता से चित्रित करता है,जिस प्रकार चित्रकार वस्त्र वर चित्र अंकित करता है। पश्चिम में कविता और चित्रकला के अन्तःसम्बन्ध पर चिंतन हुआ है,किन्तु भारत में इस संदर्भ में किंचित विस्तृत चर्चा नहीं हुई है। हॉरेस ने अपने आर्सपोइतिका में कविता और चित्रकला के अन्तःसम्बन्ध पर विचार किया है।

यूरोप के पुनर्जागरणकाल और बारोक (अतिशय अलंकारवादी) समीक्षकों ने सौन्दर्यात्मक समीक्षा में एक व्यापक प्रवृत्ति निर्धारित करने के लिए हॉरेस के ”जैसे चित्र में वैसे कविता में’ उक्ति का प्रयोग किया। कवि ऐसा चित्रकार माना गया,जो अपनी योग्यता से बाह्य संसार के बिम्ब को उसी सजीवता से चित्रित करता है,जैसे चित्रकार वस्त्र पर करता है। भारत में कविता और चित्रकला के अंतःसम्बन्ध पर पश्चिम की तरह सिलसिलेवार विमर्श तो नहीं हुआ,पर विद्यापति,सूरदास,बिहारीलाल आदि ऐसे कवि हुए हैं,जिनकी कविता का सादृश्य चित्रकला से रहा है।

कवि नरेन्द्र मोहन ने स्वीकार किया है कि चित्रों के रंग और रेखाओं के साथ संवाद की अवस्था में आने पर उनकी कल्पना के पंख लग जाते हैं। चित्रकला के कुछ ऐसे ही अनुभव-क्षणों में उन्होंने ‘खरगोश के चित्र और नीला घोड़ा’जैसी लम्बी कविता लिखी थी,जिसमें कविता चित्र और सृजन प्रकिया साथ-साथ है। कविता और चित्रकला में माध्यमों की भिन्नता तो है,पर ये अपनी विधागत सीमाओं को तोड़कर एक-दूसरे के करीब आती हैं। चित्रकला की रेखाओं और रंगों की अभिव्यक्तियों कविता की लय में रूपायित होती हैं। विद्यापति पदावली और मिथिला लोक चित्रकला को आमने-सामने रखकर कविता और चित्र की दुनिया में छिपे रचना-सूत्रों की खोज की जा सकती है। सौन्दर्य का सूक्ष्म विश्लेषण,आत्माभिव्यक्तियाँ तथा रहस्यपूर्ण शैली मिथिला लोक चित्र की विशेषता है और यही विशेषता विद्यापति पदावली की भी है। विद्यापति पदावली की प्रत्येक पद अलग-अलग चित्र प्रदर्शित करता है।

विद्यापति सौन्दर्य के कवि हैं। नखशिख वर्णन,सद्यस्नाता-वर्णन,मिलन,अभिसार,वियोग आदि भावों के मनोमय चित्र पदावली में दृष्टिगत होते हैं और उनका रूपांकन मिथिला लोक चित्रकला में दृष्टिगत होता है। श्रीकृष्ण के विरह से व्याकुल राधा कहती है कि वसन्त काल में जब श्रीहरि पुनः वापस लौटेंगे तब वह अरिपन की लिखिया करेगी-”लता तरुअर मंडप दीअनिरमलससधरभित्तिपऊअँ नाल अइपनभल भेल।”

‘रात पल्लव नव पहिरवधबलीयदेल’काव्य और चित्र का माध्यम अलग-अलग है,किन्तु धर्म एक ही है। विद्यापति ने नायक-नायिका के रूप-चित्रण के अंतर्गत अंग-प्रत्यंग की योजना और वेशभूषा का चित्रण किया है,जिसकी सहधर्मिता मिथिला चित्रकला से दिखायी पड़ती है। विद्यापति की राधा कहती है-

”छाड़कान्ह मोर आँचर रे,फाटत नव-सारी।
अपजसहोयत जगत भरि हे,जनिकरिअ उधारी।”

इस प्रसंग में मिथिलांचल में बहुतेरे लोकचित्र दिखायी पड़ते हैं। राधा-कृष्ण की मधुर लीलाओं से पदावली भरी पड़ी है और इनके चित्रांकन से मिथिला लोक चित्रकला। विद्यापतिनखशिख वर्णन के प्रसंग में रेखाओं और रंगों का अद्भुत समायोजन प्रस्तुत करते हैं। सद्यःस्नाता नायिका का यह चित्र तो देखिए

”कामिनिकरेयसनाने,हेरतहिहद्यहनएपँचबाने।
चिकुर गरए जलधारा,जनिभुख-ससि डरें रोअएअँधारा।
कुच-जुएचारूचकेवा,निअ कुल मिलतआनि कोने देवा।
तेसंकाएँ भुज पासे,बाँधिबएलउड़िजाएतअकासे।
तितलबसन तनु लागू,मुनिहुक मानस मनमथजागू।
सुकवि विद्यापति गावे,गुनमतिधनिपुनमत जन पावे।’

विद्यापति पदावली में अपने समय और समाज के यथार्थ और भक्ति से संबंधित पद भी हैं-
जय-जय भैरवि असुर भयाउनि,पशुपति-भामिनि माया।
सहज सुमति बर दिअ हे गोसाउनि,अनुगति गति तुअ पाया।
बासररैनिसबासनसोभित,चरनचन्द्रमनि चूड़ा।
कतओक दैत्य मारिमुँहमेलल,कतेकउगिलिकेल कूड़ा।
सामर वरन नयन अनुरंजित,जलद जोग फुलकोका।
कट-कट विकट ओठ-पुटपाँडरि,लिधुर फेन उठ फोका।
घन-घन-घनन घुंघरू कत बाजए,हन-हन कर तुअ काता।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक,पुत्र बिसरूजनि माता।

इस पद मेंविद्यापति देवी का चित्र खींच देते हैं। कविता और चित्रकला का भेद मिटता प्रतीत होता है। विद्यापति के विविध पदों में चित्रात्मकता स्पष्टतः परिलक्षित होती है। वह मिथिला चित्रकला के प्रभाव से रससिक्त है। उनकी कृति की आधार-भूमि पर मिथिला चित्रकला की परंपरा भी बदस्तर जारी है।

काव्य और चित्र का धर्म एक ही है। सिर्फ दोनों की अभिव्यक्ति का माध्यम अलग-अलग है। रूप-चित्रण से लेकर भक्ति-भाव-वर्णन तक मिथिला चित्रकला का प्रभाव विद्यापति पर दिखायी पड़ता है। वहाँ इस चित्रकला की रेखाओं और रंगों का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। पदावली रेखाचित्रों से भरी पड़ी है। इनका मुख्य आधार,कृष्ण-लीला,नायिका भेद एवं प्रकृति रही है। कृष्ण के रूप-सौन्दर्य के चित्रण में सिरपर मोर-मुकुट गले में वनमाला एवं शरीर पर पीताम्बर चित्रकला की सबल रेखाएँ हैं। पदावली में वर्ण-चेतना भी है। प्राथमिक रंग,सहायक रंग,मध्यवर्ती रंग एवं उदासीन रंग रेखांकित किये जा सकते हैं। विरोधी रंगों के संयोजन से विभिन्न तरह के चमत्कारिक चित्र खींचे गये।

मिथिला लोक चित्रकला की आधार-भूमि लोक जीवन,लोक तत्त्व,लोकोक्ति,अंधविश्वास आदि हैं। यही विद्यापति की काव्य-भूमि है। इसलिए मिथिलांचल में दोनों की लोकप्रियता अप्रतिम है।

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मिथीलक संगीत घराना: इतिहास आ समकालीन

दरभंगा मनोकामना मंदिर के सोझाँ मे बैसल महाराजक मूर्ति के देखैत कतहु पढ़ल मोन पड़ल जे कुंदनलाल सहगल अहि ठाम राजाबहादुर विश्वेश्वर सिंहक बियाह मे “बाबुल मोरा! नैहर छूटो जाए” गउने रहथि। आब अहि गोल चबूतरा पर गै-महीस टहलि रहल अछि, मुदा कखनो एतय ‘बैंड-स्टैंड’ छल। हम आँखि बन्न कय ‘टाइम-मशीन’ सँ पचास-सय बरख पाछू चल गेलहुँ। नरगौना पैलेसक अगुलका बाड़ी में बैसल दरभंगाक बैंड। जेना मैहर (मध्य प्रदेश) क बैंड छल, तहिना दरभंगा महाराजक सेहो। हमर कल्पना में बिस्मिल्लाह ख़ानक शहनाई बाजि रहल अछि। अहि माटि में संगीतक रहस्य सभ नुकैल छैक। जे सरोद आई उस्ताद अमजद अली ख़ान सभ बजबइत छथि, ओकर जड़ि दरभंगा में भेटत। जे राग देस पर ओंकारनाथ ठाकुर स्वतंत्रताक संध्या पर ‘वंदे मातरम्’ गओलनि, ओ राग देस मिथिला में जन्मल। जाहि बाइस टा श्रुति पर हिंदुस्तानी संगीत ठार अछि, ओकर वर्णन मिथिला में भेल। ध्रुपदक तानसेनी गौहर बानी के आहि धरि सम्हारि रखनिहार एतहि के माटि के छथि। अखनो संगीतक उसरल खेत में किछु आशा अछि। भविष्य में ई लेख पढ़ि जे मनोकामना मंदिर जाथि, ओ यैह कामना करथि जे अपन परंपराक दशांशो घुरि आबय।

कार्नाटिक संगीत (कार्नाट) सँ मिथिला धरि

अोना तs तानसेन सभक समय में सेहो ‘पायरेसी’ तs नहि कहब, मुदा एम्हर के राग ओम्हर होइत छल। दक्खिनक कार्नाटिक संगीत’क राग कान्हड़ा में तानसेन जखनि महाराज अकबर के किछु गांधार (ग) आंदोलित क’ सुनौलखिन, ओ प्रसन्न भय ओकर नामे ‘दरबारी’ राखि देलखिन। तहिना गजेंद्र नारायण सिंहक मनतब छनि जे तिरहुत राग सभ’क मूल कार्नाटिक संगीत में अछि। आ ई गप्प प्रामाणिक सेहो लगइत अछि। मिथिलाक इतिहास में कर्नाट वंशक राजा न्यायदेव (1097-1134 ई.) कर्नाट प्रदेश सँ आएल रहथि, आ अपने संगीत विशारद छलाह। हुनक लिखल संगीतक प्राचीन पोथी (भारत भाष्य/सरस्वती हृदयालंकार) के एकटा फोटोकॉपी भंडारकर ओरियेंटल रिसर्च संस्थान (पुणे) में राखल अछि। मूल स्रोत भरिसक हेरा गेलहि। मूल तs कल्हण के राजतरंगिणी सेहो हेरा गेलहि। ई सभटा मूल जँ नालंदा में जरि-खपि गेल हुए, तइयो फ़ोटोकॉपी तs ओहि समय नहि छल। फ़ोटोकॉपी जँ पूना में छहि, तs मूल अवश्य किनको लग नुकायल राखल हैत। हुनकर पोथी में एकटा तार्किक गप्प लिखल जे अजुको संगीतकार सभक ध्यान जोग। ओ लिखलनि जे विलंबित लय में गाबी तs करूणा रस जन्मत, मध्य लय में गाबी तs हास्य आ शृंगार, द्रुत में गाबी तs वीर रस, रूद्र वा भयानक रस जन्मत। कतेक प्रायोगिक गप्प छहि से गीतक गति से रस बदलि जाइत छैक!

राजा न्यायदेव’क समय में संगीतक आनो शास्त्रकार मिथिला में छला। जेना भोज, शारंगदेव, सोमेश्वर आदि। न्यायदेव’क बाद बारहम सदी में बुधन मिश्र नामक संगीत-शास्त्री छला जे कवि जयदेव के शास्त्रार्थ में पराजित कएने छलखिन। अहि में मुदा ई स्पष्ट नहि अछि जे मिथिला में शास्त्रकार बेसी छला वा संगीतकार। ई संभव छहि जे मैथिल सभ पद्धति, स्वरलिपि आ रागक सूत्र बनबइत होथि, जाहि पर आधारित देश’क आन संगीतकार लोकनि गबइत-बजबइत होथि। हिनकर सभक तुलना आधुनिक काल में पं. विनायक पुलुस्कर, भातखंडे, रामाश्रय झा वा देवधर बाबू सभ सँ कयल जा सकइत अछि। जे गओलनि कम, लिखलनि-ज्ञानोपार्जन केलनि बेसी।

तेरहम सदी में कार्नाट वंशक अंतिम मिथिलेश हरि सिंह देव अपने संगीतक पैघ विद्वान छला, जिनका लय लिखल गेल,

“हरो वा हरिसिंहो वा, गीत विद्या विशारदौ,

हरिसिंह गते स्वर्गागीत विद् केवलं हर:।”

हिनक दरबारी ज्योतिरीश्वर ठाकुर (1290-1350 ई.) मैथिली भाषाक पहिल पोथी ‘वर्णरत्नाकर’ लिखलनि जेकर एकटा प्रसिद्ध मीमांसा प्रो. आनंद मिश्र सेहो कयलनि। अहि में संगीतक तीनू अंग- गायन, वादन आ नृत्य तीनू के समावेश छल। एकरा ‘भरत नाट्य शास्त्र’ सँ आगू के संस्करण बूझल जाए किएक तs अहि में बाइस श्रुति आ अठारह जाति के अतिरिक्त एकइस (21) टा मूर्च्छणा के विवरण सेहो देल गेल। आबक हारमोनियम सभ पर ओ बाइस टा श्रुति बजेनाइ सेहो संभव नहि। किछुए दिन पूर्व एकटा प्रो. विद्याधर ओक के सुनलहुँ जे ओ एहन हारमोनियम बना लेलनि जाहि सँ बाइस श्रुति बजि सकइत अछि। ओना विज्ञाने थीक, किछु आई संभव अछि। मुदा मिथिला में ई सिद्धांत आठ सय वर्ष पूर्व लिखि देल गेल।

हिनक पश्चात् जखइन मुस्लिम (गयासुद्दीन तुगलक) आक्रमण सँ हरि सिंह देव नेपाल भागि गेला, तs मिथिलो सँ संगीत पहिल बेर उठि गेल। एकर बाद दोसर बेर उठल जखनि पं. विदुर मलिक जी दरभंगा छोड़ि वृंदावन चलि गेला। लगभग दू-तीन सय वर्ष तक मिथिलाक संगीत इतिहास लुप्त भs जाति अछि। राजा शिव सिंह आ विद्यापति के योगदान भिन्न छनि, आ ओहि सँ संगीत प्रभावित भेलहि मुदा खाँटी शास्त्रीय संगीत परंपरा में काज किछु भरिसक थमि गेलहि। शिव सिंह के दरबार में आन देस से कथक नचइ बला सभ अबइत छला, जाहि में जयत गौड़, सुमति आ उदय के नाम’क चर्चा छैक।

खडोरे वंश के राजा शुभंकर (1516-1607 ई.) के किछु इतिहासकार मिथिला’क मानइत छथिन। ओ दू टा पोथी लिखलनि- ‘संगीत दामोदर’ आ ‘श्री हस्तमुक्तावली’। हमरो मोन कहइत अछि जे ओ मिथिले के छलाह किएक तs हुनक वर्णित ‘राग शुभग’ मिथिलाक राग छी। राजा शुभंकर अप्पन पोथी में वीणा के 29 प्रकार आ 101 ताल के चर्चा केलनि, जे अप्पन समय लय बड्ड आधुनिक गप्प। आब वीणा के इतिहास सँ राजा शुभंकर’क नामे काटि देल गेल अछि। की करबई? जिनक हाथ में कलम, तिनके राज।

एकटा नाम जे मिथिला सँ मिटेनाइ असंभव, से थिकाह कवि लोचन (1650-1725 ई.)। कतेक लोक लोचन झा सेहो लिखइत छथिन, मुदा ओ मात्र लोचन सँ बेसी ठाम लिखल-बूझल जाइत छथि। हुनके लिखल पोथी ‘राग तरंगिणी’ में राग व्याख्या थीक,

“भैरव कौशिकश्चैव हिन्दोलो दीपकस्था।

श्री रागो मेघ रागश्च षडेते हनुमन्ता:।।”

अहि में छह टा पहिल राग जे लिखल अछि से थीक- भैरव, कौशिक, हिन्दोल, दीपक, श्री अा मेघ। बादक संगीत इतिहासकार सभ अहि में कौशिक के स्थान पर मालकौस कहइत छथिन। ओना देवधर बाबू मालकौस के नsब राग कहइत छथिन। जे सत्य हुअए मुदा एकर व्याख्या कवि लोचन कs गेला। दरभंगा-बेतिया के ध्रुपदिया सभ मालकौस के बड्ड पुरान राग मानइत छथिन, आ हमरो सैह सत्य लगइत अछि। लोचनक पोथी में संस्कृत आ प्राचीन मैथिली, दुनूक प्रयोग अछि। हुनक पोथी में राग अडाना के सेहो व्याख्या छनि, मुदा ई नहि कहब जे ‘अडाना’ मिथिले में जन्मल। एतेक अवश्य जे कवि लोचन के समय में मिथिलाक संगीत शीर्ष पर छल। मात्र बंगाल-अवध नहि, चीन तक संगीत पहुँचि गेल छल। कवि लोचन किछु दुर्लभ राग रचलनि जे आब नहि गाओल जाइत अछि- राग गोपी बल्लभ, तिरहुत, तिरोथ, बिकासी आ धनही।

कवि लोचन राज घराना सभ सँ बेसी संभव फराक कवि छला। हुनक एकटा भारत स्तर पर छवि छनि जेना वाचस्पति मिश्र वा मंडन मिश्र के। सत्य तs ई थीक जे मिथिला सँ दरबारी संगीत परंपरा कार्नाट वंशक पश्चात् समाप्ते जेकाँ भs गेल छल। तखनहि किछु नsब इजोत आएल।

राजस्थान सँ मिथिला’क डोरि: ध्रुपद घराना

एकटा बिदेसी सिनेमा थीक – ‘लाचो ड्रोम’। ओहि में राजस्थान सँ स्पेन धरि के संगीत-यात्रा देखाउल गेल अछि जे कोना लोक संगीत लेने-धेने विश्व में कतहु से कतहु चलि गेल। इतिहास छैक जे बीकानेर के नारायणगढ़ में राजा कदर सिंह के दरबार में एकटा संस्कृत आ संगीत’क विद्वान पं. रामलाल दूबे (वा रामदास पांडे) छला। ओ महामारी के भय सँ भागि बिहार आबि धनगइ गाम (जिला-भोजपुर) में बसि गेला। हुनक दू टा पुत्र माणिक चंद आ अनूप चंद तीस बरख तक एकटा गुरू वेंकट राव मातंग सँ ध्रुपद सिखइत रहला। तीस बरख तक! अहि युगल जोड़ी के डुमराँव के शाह विक्रम शाह राजगायक नियुक्त केलनि आ ‘मल्लिक’ के उपाधि देलखिन। पहिने राजगायिका के ‘मल्लिका’ आ राजगायक के ‘मल्लिक’ के पदवी भेटइत छल। ओहि वंश में आगू चारि टा भाय भेला- रामनिवास, सीताराम, राधाकृष्ण आ कर्ताराम। रामनिवास आ सीताराम के वंश आगू नहि बढ़लनि। राधाकृष्ण आ कर्ताराम ग्वालियर चलि गेला आ ओतय उस्ताद नियामत ख़ान (सदारंग) के पुत्र भूपत ख़ान (महारंग) सँ संगीत सिखलनि। अहि गुरू-शिष्य परंपरा दुआरे तानसेन वंश कहल जाइत छैक किएक तs सदारंग तानसेनक परंपरा में छथि। मुदा तानसेन से दरभंगा घराना के सोझ संबंध नहि छैक। बेतिया सँ अवश्य किछु छहि मुदा दरभंगाक ध्रुपद घराना ओहि सँ नsबे कहल जाय। एतेक अवश्य जे ई दुनू भाई राधाकृष्ण आ कर्ताराम के गायन भारतवर्ष में प्रसिद्ध छलनि आ छह टा मुख्य राग पर अधिकार छलनि। हुनके जखनि डुमराँव राजा अहिठाम महाराज माधव सिंह (1775-1807 ई.) सुनलखिन तs कहलखिन जे हमरा हिनका लs जाय दिअ।

आब अहि में किछु स्पष्ट नहि जे अपने राधाकृष्ण आ कर्ताराम अएला वा हुनक कोनो भैयारी एलखिन। अहि में संदेह जे डुमराँव राजा अप्पन मुख्य गायक सभ के दरभंगा पठा देथिन। ग्वालियरक पश्चात् ओ सभ किछु दिन अवध के नवाब शुजाउद्दौला अहि ठाम सेहो रहथि आ पटना में सेहो। ओ सभ दरभंगा आएलो हेता तs फेर कतहु आगू निकलि गेल हेता। जे बाप-पूत दरभंगा अएला, ओ भरिसक वाणीप्रकाश मलिक आ जयप्रकाश मलिक छला। ओना प्रेमकुमार जी के अनुसार राधाकृष्ण आ कर्ताराम अएला। ओ सभ आबि पहिने मिश्रटोला (दरभंगा) में डेरा लेलनि आ बाद में महाराज हुनका बहेड़ी से किछु आगू अमता गाम लग गंगदह में जमीन देलखिन। जयप्रकाश मलिक के बेटा क्षितिपाल मलिक सँ असल अमता घरानाक नींव पड़ल। लोक बहुत नाम लइत छहि, मुदा क्षितिपाल मलिक बुझू एहि घरानाक असल ध्रुव तारा! मल्लिक घराना कतेक नब राग रचलनि, जेना- राग मंगल, देस, श्वेत मल्हार, रत्नाकर, भक्त विनोद आदि। अहि में राग देस दिग्विजय कs गेल। बाद में राजा रमेश्वर सिंहक नाँ पर राग रमेश्वर सेहो रचल गेल। दरिभंगाक खूबी छैक- काव्यात्मक छंद-बद्ध बंदिश, स्पष्ट उच्चारण, विलंबित लय में आलाप, गंभीर स्वर-प्रयोग आ गर्जनक संग द्रुत लय में गमक आ विस्तार। ताहि कारण एकरा गौहर आ खान्धार, दुनू के मिश्रण कहल जाइत छैक।

क्षितिपाल मल्लिक (1840-1923 ई.)

क्षितिपाल मलिक असगर ध्रुपद गबितो छलाह आ पखावज सेहो सुन्नर बजा लइत छलाह। हुनका ध्रुपद, धमार, तिल्लना, तिरवट सभ ध्रुपदिया विधा में निपुणता छलनि। मुदा ओहू सभ सँ बेसी ओ कठिन वा हरायल-भोतिआयल राग’क विशेषज्ञ छला। हमरा ई नहि बूझल जे ई सभटा राग ओ अपने बनौलनि वा कतहु सँ हुनका उपलब्ध भेलनि, मुदा एहि में कतेक राग’क नामो नहि सुनने छी। जेना- पदचंचली, कौस्तुभ, सुही, जूही, कुरंग, बहुली, हेमा, देवगांधार, त्रिवेणी, हर्ष, समावती, चित्रांची, श्यामनाट, कुमारिल इत्यादि। हुनक तीन टा पुत्र भेलखिन- नरसिंह मल्लिक, महावीर मल्लिक आ यदुवीर मल्लिक। नरसिंह मल्लिक के अल्पायु मृत्यु भेलनि, मुदा यदुवीर-महावीर के जोड़ी नाँ-गाँ कs गेल। क्षितिपाल मल्लिक के दू टा शिष्य छलखिन- पं. राजितराम शर्मा मल्लिक आ देवकीनंदन पाठक। अही ठाम सँ मल्लिक घराना में ‘पाठक’ सेहो जुड़ला आ बाद में ‘तिवारी’ आ ‘चतुर्वेदी’ उपनाम सेहो जुड़ल गेल।

यदुवीर मल्लिक-महावीर मल्लिक

ई ध्रुपदिया परंपरा रहल जे युगल गायकी होइत रहल। अहि सँ ध्रुपद’क कठिन रियाज़ आ गायकी किछु सुलभ भs जाइत छैक। मुदा युगल में नीक संबंध आ साम्य रहय तखनि ने? सलामत-नजाकत अली बंधु (शाम चौरसिया घराना) के सेहो संग टूटिए गेलनि। दरभंगा घराना में ई गप्प नीक जे माणिकचंद-अनूपचंद, राधाकृष्ण-कर्ताराम, महावीर-यदुवीर मलिक सँ होइत आहि धरि प्रशांत-निशांत मल्लिक तक युगल परंपरा भगवती कृपा सँ बाँचल अछि।

1924 ई. में दरभंगा के विक्टोरिया हॉल में दुनू भाय यदुवीर-महावीर के सुनहि लेल पं. वी. डी. पुलुष्कर एलखिन तs सुनि चकित रहि गेला। 1936 ई. में मुजफ्फरपुर में बाबू उमाशंकर प्रसाद जी हिनका दुनू गोटा के ‘संगीताचार्य’ के उपाधि देलखिन।

रामचतुर मल्लिक

क्षितिपाल मल्लिक के शिष्य राजितराम शर्मा मल्लिक के पुत्र रूप में अमता गाम में रामचतुर मल्लिक के जन्म भेल। जन्मक वर्ष 1902 वा 1907 ई.। हुनक पिता राजितराम जी ‘राग विनोद’ के रचयिता छला जेकर विवरण हुनक पोथी ‘भक्त विनोद’ में छनि। रामचतुर मल्लिक जी पहिने हुनके संग सिखनाइ प्रारंभ केलनि। ओकर पश्चात ओ दरबारक सुरबहार वादक रामेश्वर पाठक जी से सिखय लगला।

पं. रामचतुर मल्लिक 1924 ई. में राजदरबारी नियुक्त भेला आ राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह के प्रिय रहथि। हुनका संग ‘37 ई. में इंग्लैंड आ फ़्रांस घूमति ओ पहिल बेर दरभंगाक ध्रुपद के विश्व-जतरा करौलनि। हुनक पश्चात् तs पं. अभयनारायण मल्लिक रोम आ जर्मनी, पं. सियाराम तिवारी आ पं. विदुर मलिक यूरोप, पं. प्रेमकुमार मलिक आ हुनक पुत्र लंदन दरबार फ़ेस्टिवल गेला। पीटर पान्के एकटा फ़्यूज़न बनौलनि आ पेरिस में दरभंगा घराना पसरल, मुदा पहिल पंडित रामचतुर मल्लिक जी। रामचतुर मल्लिक जी लग बंदिश सभक भंडार छलनि। हमर सूनल गप्प जे सब सँ पैघ भंडार भारत में बेतिया लग, आ तकर बाद पंडित रामचतुर जी लग। एतबय नहि, उस्ताद फैयाज़ ख़ान जेना ठुमरी आ शास्त्रीय गबइत छला, तहिना पंडित जी ध्रुपद के अतिरिक्त चारू पद गबइत छला। खयाल, दादरा, टप्पा/ठुमरी आ लोकगीत (विद्यापति/भजन) सभ किछु। एक बेर कजनी बाई ठुमरी गबइत रहथिन, महाराज हिनको कहलखिन ठुमरी गबइ लय। कजनी बाई टोंट कसलनि जे, “ए रामचतुरबा! तू का गैवे”। मुदा ओ तेहन ठुमरी गेलखिन, जे कजनी बाई सुनिते रहि गेलखिन। 1967 ई. में हुनका पद्मश्री सँ सम्मानित कयल गेल। दरभंगा घराना सँ दोसर पद्मश्री पं. सियाराम तिवारी जी के भेटल।

पं. रामचतुर मल्लिक के शिष्य भेलखिन- अभयनारायण मल्लिक। ओ जयनारायण मल्लिक के पुत्र छथिन। अभय नारायण जी के पुत्र संजय मल्लिक ध्रुपद गायकी धेने छथि।

पं. सुखदेव मल्लिक परिवार

रामचतुर मल्लिक के बिहार सरकार जे बेसी प्रश्रय नहि देलकनि, तs अहि सँ दरभंगाक संगीतकार सभ के मोन टूटय लगलनि। जे साठि-सत्तर के दशक में बीणापाणि क्लब सभ में दुर्गा पूजा में रामचतुर मल्लिक आ विदुर मल्लिक द्वारा ध्रुपद गाओल जाइत छलैक, से बन्न हुअए लगलइ। पं. अभयनारायण मल्लिक खैरागढ़ चल गेला। आ पं. सुखदेव मल्लिक के पुत्र पं. विदुर मल्लिक जी वृंदावन चल जाइत रहला। हिनका दुनू लोकनि के अमता/दरभंगा भरि जीवन मोन में रहलनि, मुदा की करतथि जखनि दरभंगे बदलि गेल? बाद में हुनक पुत्र प्रेमकुमार मल्लिक इलाहाबाद में पं. विदुर मल्लिक ध्रुपद संस्थान स्थापित कय अप्पन नब-नब शिष्य बनेनाइ प्रारंभ केलनि। अही शृंखला में पं. विदुर मल्लिक जीक शिष्य सुखदेव चतुर्वेदी जीक नाम अबइत अछि, जे अजुका नीक ध्रुपद गायक छथि। प्रेमकुमार जी के पुत्र लोकनि प्रशांत और निशांत मल्लिक ‘स्पिक मकै’ आ आन सम्मेलन सँ बच्चा-युवा में ध्रुपद के पसारि रहल छथि। हुनक पुत्री प्रियंका मल्लिक पांडे नीक खयाल गायकी करइत छथि।

विदुर मलिक के दोसर पुत्र रामकुमार जी अखनो दरभंगा में बैसि ध्रुपद के सम्हारने छथि। हुनक पुत्र समित मलिक आ साहित्य मलिक के जोड़ी सेहो नीक ध्रुपद गायक छथि।

मिथिलाक खयाल घराना

भारतवर्ष में एक्कहि टा क्षेत्र अछि जतय दुनू संगीत शैली के घराना रहल, आ ध्रुपदिया सभ सेहो खयाल गायकी करइत रहला। ऑलराउंडर सभक गढ़ रहल मिथिला। एकर कारण ईहो संभव जे ध्रुपद के ख्याति घटय लगलहि, मुदा अहुना नीक खयाल गायकी होइत रहल।

मधुबनी घराना

राँटी-मंगरौनी सँ पसरल मधुबनी घराना। एकर जड़ि में ध्रुपद रहइ जे क्रमश: खयाल भेल गेलहि। जखनि ध्रुपदिया तानसेन के अगिला खाढ़ी खयाल गाबय लागल, ता आन कियैक नहि? मधुबनी में ध्रुपद आद्या मिश्र तक बाँचल छल, मुदा हुनक पुत्र रामजी मिश्र के गाओल “अलबेला सजन आयो रे” कान में नचइत अछि। हुनके प्रयास सँ मिथिला इनवर्सिटी में संगीत विभाग फूजल, आ दरभंगाक खयाल गायकी पसरल। मधुबनी सँ आन नाम सभ अछि- भनसा मिश्र, डीही मिश्र, खरबान मिश्र, गुरे मिश्र, शिवलाल मिश्र, सित्तू मिश्र, हीरा मिश्र, झिंगुर मिश्र, भगत मिश्र, ललन मिश्र, लक्ष्मण मिश्र, परमेश्वरी मिश्र, कमलेश्वरी मिश्र आदि।

पनिचोभ घराना

पनिचोभक खयाल घराना कखनो नीक छल, ई सुनल गप्प। एतय के अबोध झा (1840-1890 ई.) आ हुनक पुत्र रामचंद्र झा से ई परंपरा शुरू भेल। दुनू गोटे बनैली आ दरभंगा दरबार में नियमित गबइत छला। एकर अतिरिक्त मंगनू झा, दिनेश्वर झा, दुर्गादत्त झा, जटाधर झा, रमाकान्त झा, ब्रजमोहन चौधरी, नचारी चौधरी आदि गबइत रहला।

पंचगछिया घराना

अखनि धरि मिथिलाक शास्त्रीय परंपरा में आन जाति के संगीतज्ञ कम वा नहि छला। मुदा सहरसा पंचगछिया के रायबहादुर लक्ष्मीनारायण सिंहक खबास मांगन सँ ई परंपरा शुरू भेल। रामेश्वर खबास के पुत्र मांगन खबास ओहिना बर्तन मंजइत गबइत छला, तs रायबहादुर प्रभावित भय हुनका शिक्षा दिऔलखिन। गजेंद्र बाबू अप्पन पोथी में मांगन खबास के महान् गायक कहलखिन। ओंकारनाथ ठाकुर तक हुनक संगीत सँ प्रभावित छलखिन। कहल जाय छहि जे रसदार ठुमरी में हुनकर जोड़ा नहि। आ ओ जखनि राग मेघ गबैत तs ठीके अकास मेघौन भ जाए। बाद में 1936 ई. में ओहो विश्वेश्वर सिंह लग दरभंगा आबि गेला। मांगन आ एकटा रघू झा के अनेक शिष्य भेलखिन, जेना- तिरो झा, बाल गोविंद झा, बटुकजी झा, युगेश्वर झा, उपेंद्र यादव, परशुराम झा, शिवन झा, रामजी झा, पुनो पोद्दार, सुंदर पोद्दार, गणेशकांत ठाकुर इत्यादि। अहि में सभ जातिक समावेश छल।

बनैली एस्टेटक संगीत

एकटा पढ़ल गप्प अछि जे एक बार कुमार श्यामानंद सिंह के भतीजी के बियाह में पं. जसराज अएला तs मंदिर में क्यो भजन गबइत रहथि। एहन स्वर सुनि पं. जसराज भाव-विभोर भय मंदिर दीस बढ़ला, आ ओतय कुमार साहेब के अपने भजन गबइत सुनलखिन। फेर कुमार साहेब कतेक बंदिश गाबि सुनौलखिन। मुदा कुमार श्यामानंद सिंह व्यवसायिक गायन में अपने नहि अएला। एक बेर विदुषी केसरबाई केरकर हुनकर गीत सुनि आग्रह केलखिन जे हुनका सँ गण्डा बन्हौथिन। आब ओ सिखेनाई प्रारंभ केलखिन तs स्थाई उठा लेलखिन मुदा अंतरा नहि उठैल भेलनि। अहिना एक बेर प्रसिद्ध तबला वादक लतीफ़ हुनक गीत पर तकिते रहि गेला जे ‘सम’ कोना दी। कुमार साहेब हाथ से देखौलखिन तs संगत देल भेलनि। 1995 ई. में कुमार साहेब के मुइला के बाद हुनक पुत्र बिहारी जी निजी रूप से खयाल गायकी करइत छथि, मुदा ओहो व्यवसायिक गायन में नहि छथि।

मिथिलाक ठुमरी

गौहर जान

“रस के भोरे तोरे नैन”

भारतवर्षक पहिल ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड गौहर जानक छनि जिनका पछिला साल गूगल डूडल पर अएला पर लोक चिन्हलकैन। एकटा आर्मीनिया मूल के एंज़ेलिना जखइन गौहर जान बनली तs सबसे पहिने 1887 ई. में दरभंगा महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह के दरबार में गओलनि, आ 1898 ई. में लक्ष्मीश्वर सिंहक मृत्यु धरि दरभंगे दरबार में नृत्य आ गायन करइत रहली। ओ बुलंद ‘माई नेम इज़ गौहर ख़ान’ से ठुमरी के अंत करइ वाली के कतेक गीत अखनो यू-ट्यूब पर भेट जायत। हुनका सँ पूर्व 1885 ई. में एकटा नामी ठुमरी गायिका आ नर्तकी जोहराबाई सेहो महाराज दरबार में आबि रहली, आ बाद में पटना चल गेली।

मिथिलाक वादन

रामेश्वर पाठक

पं. रविशंकर अप्पन पोथी में दू टा प्रेरणा-स्रोतक चर्चा केलनि। एकटा बाबा अलाउद्दीन ख़ान आ दोसर रामेश्वर पाठक। ई गप्प अद्भुत् इतिहास छैक जे मैहर से बाबा अलाउद्दीन ख़ान अप्पन शिष्य रविशंकर के दरभंगा अनलखिन आ पं. रामेश्वर पाठक के गण्डा बन्हई के आग्रह केलखिन। ओ भरिसक नहि बान्हलखिन, मुदा पं. रविशंकर मोने मोन गुरू मानइत रहलखिन। आब रामेश्वर पाठक के एकहि टा ‘बिहाग’ रिकॉर्डिंग उपलब्ध आ एकटा पुरान सन फ़ोटो पं. प्रेमकुमार मलिक जी के पोथी में भेटल। रामेश्वर पाठक के एकटा भाय रामगोविंद पाठक कासिमबाज़ार (बंगाल) चल गेलखिन। हुनके पुत्र (रामेश्वर जीक भातिज) भेलखिन लोकप्रिय सितार वादक पं. बलराम पाठक जी। बलराम पाठक जी के पुत्र अशोक पाठक जी आकाशवाणी, पटना से जुड़ल रहला आ आब नीदरलैंड में रहइत छथि। रामेश्वर पाठक जी के एकटा संतान नारायण जीक बियाह मल्लिक परिवारक सविन्दा दाई सँ भेलनि आ आब ओहि पाठक परिवार से तबला-पखावज वादक सभ छथि।

अब्दुल्लाह खाँ आ सरोदक आविष्कार

प्रसिद्ध उस्ताद अमजद अली ख़ान के पितामह नन्हे ख़ान के भाय मुराद अली नि:संतान छला। ओ ग्वालियर छोड़ि शाहजहाँपुर आबि गेला जतs एकटा अनाथ के अप्पन बेटा बनौलनि आ संगे दरभंगा महाराज लग आबि गेला। ओ अनाथ बालक अब्दुल्लाह ख़ान मुराद अली के मुइला के बाद राज संगीतकार बनला। आ दरभंगे में ओ पुरना अफ़गानी रबाब में परिवर्तन कए सरोद बनौलनि। अजुका सरोद एकटा अनाथक बनौल छहि, आ बंगाश घरानाक रक्त-वंशज के नही। आ सेहो मिथिला में बनल अछि। बाद में हुनक संतान सभ बंगाल जा बसलनि आ रवींद्र नाथ टैगोरक परिवार सँ नीक संबंध छलनि। हुनके शिष्य परंपरा में आब बुद्धदेव दासगुप्ता छथि।

पखावज

बिहार में पखावज के दू टा मुख्य घराना भेल- दरभंगा आ गया। ध्रुपद में पखावज आवश्यक छलैक तs मल्लिक परिवार में कतेक पखावज आ तबला वादक भेला जे गायक के संग देथिन। अहि में कतs से प्रारंभ करी आ कतs से अंत। प्रेमकुमार जी के पोथी सँ गनी तs पचास टा तबला-पखावज वादक तs मात्र मल्लिक परिवार में। आ तहिना अनेक पाठक परिवार में।

मिथिलाक संगीतक अष्टभुजा

अहि लेख’क आ मिथिलाक संगीतक कोनो अंत नहि छैक। बिस्मिल्लाह ख़ान के मरइ सँ पूर्व इच्छा छलनि जे एक बार दरभंगा में शहनाई बजाबी आ ओहि पोखरि में नहाई जाहि में दिन में दू बेर नहाइत छलहुँ। सिद्धेश्वरी देवी महाराजक नौका विहार में ठुमरी गबइत छली। प्रसिद्ध गायिका शुभा मुद्गलक गुरू रामाश्रय झा ‘रामरंग’ दरभंगाक छला आ हुनक गुरू पं. भोलानाथ भट्ट सेहो दरभंगेक छला आ इलाहाबाद जा के बसि गेला। आब अहि में कतेक नाम, कतेक संदर्भ छूटि गेल। मुदा एतेक स्पष्ट छहि जे शास्त्रीय संगीतक सभ शैली आ सभ रूप में दरभंगा अग्रणी छल। आब एकर पुनर्जागरण आवश्यक थीक, आ दरभंगा के ध्रुपद शिक्षण संस्थान में बेसी सँ बेसी बाल-प्रशिक्षु के राखि एकरा जीवित राखल जाए।

प्रमुख संदर्भ-ग्रंथ/स्रोत:

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  2. गजेंद्र नारायण सिंह. सुरीले लोगों की संगत. कनिष्क पब्लिशर्स. नई दिल्ली
  3. पं. प्रेमकुमार मल्लिक. दरभंगा घराना एवम् बंदिशें. काश्यप प्रकाशन.
  4. सेलिना थीएलेमान. दरभंगा ट्रैडिशन: ध्रुपद इन द स्कूल ऑफ़ विदुर मलिक. इंडिका बुक्स. वाराणसी.
  5. पीटर पान्के. सिंगर्स डाई ट्वाइस: अ ज़र्नी टू द लैंड ऑफ़ ध्रुपद. सीगल बुक्स.
  6. आशीष झा/कुमुद सिंह. “उत्तर बिहार में संगीतक सुखाइत रसधार”. ईसमाद.
  7. अरविन्द दास. अभय नारायण मलिक सँ साक्षात्कार
  8. नैशनल खबर. प्रेम कुमार मल्लिक सँ साक्षात्कार
  9. ITC संगीत रिसर्च अकादमीक वेबसाइट पर ‘ध्रुपद घराना’ आलेख
  10. आर. के. दास. बेसिक्स ऑफ़ हिंदुस्तानी म्यूज़िक.
  11. के. विष्णुदास श्रीलाली. सरगम: ऐन इन्ट्रोडक्शन टू इंडियन म्यूज़िक. अभिनव पब्लिकेशन. नई दिल्ली
  12. ‘मिथिला कनेक्ट’ वेबसाइट. “गायन की एक परंपरा जिसका विकास हुआ था दरभंगा में”
  13. ‘ई-समाद’ वेबसाइट. “दरभंगा घरानाक प्रस्तुति सँ भाव-विभोर भेल दरबार हॉल”.
  14. बी.बी.सी. हिन्दी. “कला-संस्कृति का द्वार था दरभंगा”
  15. पीटर पान्के निर्मित प्रेम कुमार मल्लिक द्वारा. द प्रिंस ऑफ़ लव: वोकल आर्ट ऑफ़ नॉर्थ इंडिया. सेलेशियल हार्मनिज़.
  16. डेविड टूप. ओसन ऑफ़ साउंड: ऐम्बिएंट साउंड ऐन्ड रैडिकल लिसनिंग इन एज़ ऑफ़ कम्युनिकेशन. सरपेंट्स टेल.
  17. यू.जी.सी. सी.ई.सी. द्वारा दरभंगा घराना पर प्रोग्राम.
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  22. सुभाष चंद्र. मिथिलाक संगीत परंपरा. मैथिली टाइम्स.
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  24. राज्य सभा टी.वी. पर ‘शख़्सियत’ प्रोग्राम में प्रेम कुमार मल्लिक सँ साक्षात्कार
  25. विक्रम संपत. माई नैम इज़ गौहर जान: द लाइफ़ ऐन्ड टाइम्स ऑफ़ अ म्यूज़िसियन. रूपा पब्लिकेशन.
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