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पंजीक इतिहास आ ओकर प्रासंगिकता

मिथिलाक पंजी एकटा आनुवंशिक विवरणी थीक, जाहिमे व्यक्तिक परिचयक लेल निम्नलिखित छह सूचना देल गेल अछि- पिता, मातामह एवं माता के मातामहक नाम आ एहि तीनूक मूल-ग्रामक नाम। एहि प्रकारें माता एवं पिता दिस सँ प्राप्त आनुवंशिक गुणक आधार पर कोनो व्यक्तिक पूर्ण विवरण एहिमे लिखल गेल अछि। संगहि कोनो व्यक्तिक विरुद, जेना- महामहोपाध्याय, सदुपाध्याय, उपाध्याय, वैयाकरण, मौहूर्तिक, कवि, कविराज, भाषाकवि, धर्माधिकरणिक, पार्णागारिक आदि आस्पद सभ भेटैत अछि जाहिसँ हुनक व्यक्तित्व सेहो जानल जा सकैत अछि।

बादमे आबि एही आधार पर दूषण पंजी सेहो लिखाएल जाहिमे त्याज्य परिवारमे वैवाहिक सम्बन्ध कएनिहार व्यक्तिकें इंगित कए हुनक वंश-परम्परा लिखाएल। मुदा ई सभ मूल पंजीक अनुप्रयोग छल। एहि आलेखमे पंजीक इतिहास, इतिहासक दृष्टि सँ पंजीक उपयोग आ एकरा सम्बन्धमे पसरल अथवा पसारल गेल भ्रान्ति आ पंजीकें आधुनिक उपयोगक लेल सक्षम बनएबाक भावी गतिविधि सभक विवेचन हमर अभीष्ट अछि।

पंजी-परम्परा कहियासँ?

वाल्मीकीय रामायणक बालकाण्डमे राम-जानकी विवाहक अवसर पर वर आ कन्याक कुलक वर्णन आएल अछि। एहि प्रसंग मिथिलाक दिससँ शतानन्द कहैत छथि जे हे मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ, कन्यादान करबाक काल कुलीन व्यक्ति अपन कुलक वर्णन करैत छथि तें अहूँ ई सुनू। एहिसँ सिद्ध होइत अछि जे मिथिलामे एकर परम्परा बड़ प्राचीन कालसँ अछि। सातम शतीमे कुमारिल भट्ट सेहो तन्त्रवार्तिक<sup>1</sup> मे शास्त्रदृष्टविरोधाच्च सूत्रक व्याख्यामे एकर उल्लेख कएने छथि जे “विशिष्टेन हि प्रयत्नेन महाकुलीनाः परिरक्षन्त्यात्मानमनेनैव हेतुना राजभिर्ब्राह्मणैश्च स्वपितृपितामहादिपारम्पर्याविस्मरणार्थं समूहलेख्यानि प्रवर्तितानि। तथा च प्रतिकुलं गुणदोषस्मरणात्तदनुरूपाः प्रवृत्तिनिमित्तयो दृश्यन्ते।” अर्थात् महाकुलीन लोकनि विशेष रूपसँ प्रयास कए अपन रक्षा करैत छथि। एही कारणें राजा आ ब्राह्मण सभ अपन पिता पितामह आदिक परम्परा कें स्मरण रखबाक लेल समूहलेख्य बनौलनि। संगहि प्रत्येक कुलमे गुण आ दोष रहैत छैक तें ओकरा देखैत वैवाहिक सम्बन्धक लेल प्रयास कएलनि अथवा ओहि कुलक त्याग कएलनि।” एहिसँ स्पष्ट होइत अछि जे मिथिलामे सातम शतीमे सेहो वैवाहिक सम्बन्ध बनेबामे पंजी लीखि रखबाक परम्परा छल, जकर नाम समूहलेख्य छल। कुमारिलक एहि समूहलेख्यकें स्पष्ट करैत पं. ढुंढिराज पन्त धर्माधिकारी टिप्पणीमे लिखैत छथि जे- मूलपुरुषप्रभृतिवर्तमानपुरुषपर्यन्तानां सम्बन्धप्रदर्शनपुरःसरं नामोल्लेखाय रचितो वंशवृक्षः।<sup>2</sup>

बसहा कागज पर ‌उपलब्ध पंजी

कर्णाट राजवंशक शासक हरिसिंहदेवक जन्म 1213 शक संवत् अर्थात् 1294 ई.मे भेल छल। हुनक जन्मसँ 32 वर्षक बाद ब्राह्मणलोकनि एहि पंजीकें फेरसँ सुव्यवस्थित कएलनि, जे विश्वचक्र कहौलक। एहि कालमे मूल आ ग्राम निर्धारित करबाक संकेत भेटैत अछि। ई सूचना 16म शतीमे पडुआ वंशक रघुदेव अपन ग्रन्थक आरम्भिक श्लोकमे दैत छथि। संगहि कहैत छथि जे जकरा प्राचीन कालमे विश्वचक्र कहल गेल छल से हमरासनक ब्राह्मणकें देल गेल।<sup>3</sup> उपर्युक्त रघुदेव 16म शतीमे उपलब्ध सामग्रीक आधार पर पंजीक निर्धारण कएलनि, जे आधुनिक पंजीक आधार-ग्रन्थ थीक। खण्डवलाकुलक माधव सिंह बहुत रास सामाजिक सुधारक काज कएलनि। एहि कालमे अबैत-अबैत हमरालोकनि वैवाहिक सम्बन्धक सीमामे संकीर्णता आबए लागल अछि। एहि कालसँ पूर्वक उपलब्ध पंजीमे ई संकीर्णता हमरालोकनि नहिं देखैत छी। एहिसँ प्रतीत होइत अछि जे एहि कालमे सेहो पंजीमे कोनो ने कोनो निर्धारण अवश्य कएल गेल अछि।एहि ऐतिहासिक विवेचनसँ हमरालोकनि देखैत छी जे पंजीक परम्परा मिथिलामे अदौ सँ रहल अछि। मुदा एकटा पैघ भ्रान्ति छैक जे पंजीक व्यवस्था (?) हरिसिंहदेवक आरम्भ कएल थीक। आ पंजीक लेल हरिसिंहदेवी व्यवस्था शब्दक सेहो प्रयोग बहुत दिन धरि होइत रहल अछि। एतय पंजीक संग हरिसिंहदेवक सम्बन्ध पर किछु विचार आवश्यक प्रतीत होइत अछि।

अनेक इतिहासकारक बीच ई भ्रान्ति पसरल अछि जे हरिसिंहदेव पंजी-व्यवस्था आरम्भ कएलनि। प्रो. रमानाथ झा<sup>4</sup> लिखैत छथि- “महाराज हरिसिंहदेव ने व्यवस्था दी की सभी ब्राह्मणों के परिचय संगृहीत किये जायं और उन्हें खास-खास विशिष्ट पंडितों के जिम्मे कर दिये जायं। वे पंडित-जन ही अधिकार का निर्णय करें और निर्णय करके ‘अस्वजन-पत्र’ लिखकर दें जिसके बाद ही विवाह हो और वही विवाह प्रामाणिक हो। यही व्यवस्थापन ”पंजी-प्रबन्ध” है।

संगृहीत परिचय जिसमें प्रत्येक विवाह और विवाह की सन्तानों के नाम और नये सम्बन्ध बराबर जोड़े जाते रहे हैं ‘पंजी’ कहलया। जिन पंडितों को ये संगृहित परिचय सौंपे गये वे ‘पंजीकार’ कहलाये। अधिकार का निर्णय करके अस्वजन-पत्र लिख कन्या-पक्ष बाले को देना कि अमुक कन्या के साथ विवाह करने का अधिकार अमुक वर को है ‘सिद्धांत’ कहलाया।

अतएव स्पष्ट है कि हरिसिंहदेव ने कुछ नया नहीं किया। हरिसिंहदेव ने इसमें इतना ही संशोधन किया कि जो समूह-लेख्य पहले व्यक्ति स्वयं ही रखा करते थे उसे अब ‘एकत्र’ करके विशिष्ट व्यक्तियों के हाथों में दे दिया। जो पहले वैयक्तिक था वह अब राजकीय हो गया। दूसरी बात यह हुई कि बिना पंजीकार की अनुमति प्राप्त किये वैवाहिक सम्बन्ध अवैध समझा जाने लगा। और तीसरी बात यह कि प्रत्येक वैवाहिक सम्बन्ध पंजीकारों की अनुमति से होने से पंजी में सभी उल्लेखों के समावेश की सुविधा हो गयी।”

नवीन उपलब्ध ऐतिहासिक एवं पुरातात्त्विक स्रोतसभक आधार पर आ पंजी-प्रबन्धक कर्ता रघुदेवक द्वारा देल गेल सूचनाक आधार पर ई सिद्ध होइत अछि जे हरिसिंहदेवक नाम केवल तिथि-निर्धारणक लेल लेल गेल अछि। जेना केओ अपन जन्मक वर्षक सम्बन्धमे कहैत छथि जे हमर जन्म भूकम्पक घुरती साल भेल छल, तँ एतए भूकम्पक संग हुनक जन्मक सम्बन्ध भूकम्प सँ मानब भ्रान्ति थीक। वास्तविकता ई अछि जे रघुदेवक अनुसार हरिसिंहदेवक जन्मक 32 वर्षक बाद पंजीक समेकित लेखन आरम्भ भेल आ हरिसिंहदेव 26-29म वर्षमे तुगलक आक्रमणक कारणें अपन राजधानी सिमरौनगढ़ छोड़ि नेपालक उपत्यकामे भागि गेलाह। पराजित आ भागल अवस्थामे ओ मिथिलामे केना पंजीक लेल राजकीय आदेश पारित करताह से सहज खण्डित भए जाइत अछि। मिथिलाक इतिहासमे हरिसिंहदेव कोन वर्ष पराजित भए भागि गेलाह तकरो निर्धारणमे भ्रान्ति अछि। म.म. परमेश्वर झा<sup>5</sup> लिखैत छथि जे – अन्ततोगत्वा महाराज हरिसिंहदेव अपन राजधानी छोडि जङ्गल पहाड़क शरण लेलन्हि। एहि अवसरक श्लोक अछि-
वस्वब्धिबाहुशशिसम्मितशाकवर्षे पौषस्य शुक्लदशमी क्षिति(रवि) सूनुवारे।
त्यक्त्वा सपट्ट(त्त)नपुरीं हरिसिंहदेवो दुर्दैवदर्शित पथो गिरिमाविवेश।।

म.म. परमेश्वर झाक अगिला उक्तिसँ संकेत भेटैत अछि जे ई श्लोक पंजी-प्रबन्धक थीक। ओ एतए वस्वब्धिबाहुशशिसम्मितक स्थान पर बाणाब्धिबाहुशशिसम्मित पाठान्तरक उल्लेख कएने छथि। ई श्लोक सिमरौनगढक स्थानीय परम्परासँ सेहो उपलब्ध भेल अछि, जेकर प्रकाशन एसियाटिक सोसायटी ऑफ बंगालक शोधपत्रमे 1835 ई.मे भेल अछि।<sup>6</sup>

एहि आलेखक लेखक बी.एच. हॉगसन, जे नेपालमे रेजिडेंट रहथि ओ एसियाटिक सोसायटीक सम्पादक कें सूचित करैत छथि जे यद्यपि हिन्दू पंचांगक अनुसार 1322 ई.मे हरिसिंहदेवक पराजय भेल आ सिमरौनगढ परित्यक्त बनल, ओतहि मुसलमानी परम्पराक अनुसार 1323 ई. भेटैत अछि, मुदा ओ सिमरौनगढक परम्परासँ प्राप्त दू टा श्लोक कें प्रामाणिक मानैत छथि जाहिमे 1245 शकसंवत् अर्थात् 1323ई. उल्लिखित अछि। हॉगसन सिमरौनगढक स्थापना आ परित्यागक सम्बन्धमे ई दू श्लोक उद्धृत करैत छथि-

रामस्य वित्तं नलराजवित्तं पुरूरवावित्तमलर्कराज्ञः।
ह्रदात्समुद्धृत्य निपात्य नागं श्रीनान्यदेवो निरमात्स्वगर्तम्।।
बाणाब्धियुग्मशशिसम्मितशाकवर्षे पौषस्य शुक्लनवमीरविसूनुवारे।
त्यक्त्वा स्वपट्टनपुरं हरिसिंहदेवो दुर्दैवदर्शितपथाथ गिरिं विवेश।।<sup>7</sup>

अर्थात् राम, राजा नल, पुरूरवा आ राजा अलर्कक धन जे नागसँ रक्षित पोखरिमे राखल छल तकरा पोखरिसँ निकालि नागकें पराजित कए राजा नान्यदेव वास्तुक खात बनौलनि अर्थात् महल बनएबाक लेल निञों खुनलनि। बाण-5, अब्धि-4, युग्म-2, शशि-1 (वाम भागसँ गणनाक कारणें 1245) शाकेमे पौष शुक्ल नवमी शनि दिन हरिसिंहदेव अपन पट्टनपुर छोडि दुर्भाग्य द्वारा देखाओल गेल रास्तासँ पहाड़मे प्रवेश कएलनि। एहि पाठके अनुसार हरिसिंहदेव शाके 1245 मे अर्थात् 1323 ई. हारि कए अपन राजधानी छोडि भागि गेलाह। हरिसिंहदेवक एहि पराजय-तिथिक समर्थनमे आरो ऐतिहासिक साक्ष्य अछि जे हरिसिंहदेवक पितामह रामसिंहक समयसँ मन्त्री रहल, अत्यन्त प्रतिष्ठित वृद्ध कर्म्मादित्य जखनि हाबीडीहमे रामसिंहक पत्नी सौभाग्यदेवीक आज्ञासँ हैहट्टदेवीक मूर्तिक स्थापना 212 लक्ष्मण संवत् अर्थात् 1332 ई. मे कएल, तखनि ओ हरिसिंहदेवक नाम धरि नहिं लेलनि।

<sup>8</sup> वस्तुतः 1323 ई.क बाद सिमरौनगढक स्थान पर हमरालोकनि दरभंगा जिलामे कर्म्मादित्यक द्वारा कएल गेल काज सभ देखैत छी। ओएह कर्म्मादित्य तिलकेश्वरमठक निर्माणकर्ता कहल गेल छथि आ ओकर एक शिलालेखसँ संकेत भेटैत अछि जे तिलकेश्वर मठक परिसरमे हुनक दाह-संस्कार 1258 शक संवत् अर्थात् 1336 ई.मे कएल गेल।

<sup>9</sup> एतावता सिद्ध होइत अछि जे 1323-24 ई.मे हरिसिंहदेवक हारिक बाद अपन प्रजाकें देखबाक लेल ओ सिमरौनगढकें छोडि दक्षिण दिस आबि गेलाह। आ हाबीडीह पर मूर्ति-स्थापनाक काज कएलनि।

ताड़ पत्र पर सिद्धांत
परमेश्वर झा<sup>10</sup> ई लिखैत छथि जे पंजीक आरम्भक तात्कालिक कारण देवहार गामक मुक्तेश्वरनाथ मन्दिरक एकटा घटना छल, जाहिमे गंगौरे मूलक हरिनाथ शर्माक विवाह स्वजनमे होएबाक कारणें हुनकामे चाण्डालत्व आबि गेल आ हुनक पत्नी एकटा चाण्डाल द्वारा बलोपभुक्ता होएबाक खण्डन करैत दिव्य-परीक्षामे नाहं चाण्डालगामिनी पंक्ति पर तँ तप्पत लोहासँ पाकि गेलीह, मुदा स्वपतिव्यतिरिक्तचाण्डालगामिनी पंक्ति पर नै पकलीह। ई एहि घटनाक स्थान वर्तमान मधुबनी जिलाक देवहार गामक कहल गेल अछि, जकर निर्णय लेल हरिसिंहदेवक राजधानी सिमरौनगढ जाएब ओहि कालमे सम्भव नै छल।

तें ई स्पष्ट अछि जे हरिसिंहदेवक पराजयक बाद परिवारक पारम्परिक वृद्ध मन्त्री कर्म्मादित्यक नेतृत्वमे हरिसिंहदेवक अन्य ब्राह्मण अधिकारी आ विद्वान् लोकनि आपातकालमे प्रजाकें संगठित करबाक लेल, मिथिलाकें यवनक आक्रमणक कारणें छिन्न-भिन्न होएबासँ बचेबाक लेल दक्षिण दिस बढलाह आ अपन उद्देश्यमे सफल भेलाह। दरभंगाक मोतीमहल अभिलेख (1341ई.) सँ सूचना भेटैत अछि जे हट्टपति (व्यापारिक गतिविधिक उच्चतम अधिकारी) सप्रक्रिय संकेश्वर अपन आवासीय भवन बनेबाक वास्तु लेलनि।

<sup>11</sup> ई शिलालेख कतहु ने कतहु दरभंगाक लगे-पासक थीक। सिमरौनगढक राजधानी उजडि गेलाक बाद दरभंगा-प्रक्षेत्रमे शासकीय गतिविधि, प्रजाक लेल युद्धस्तर पर कएल गेल काज, मूर्तिस्थापना, मठ-मन्दिरक निर्माण, राजकीय अधिकारी द्वारा आवासीय-भवनक निर्माण आदि सिद्ध करैत अछि जे मिथिलाक इतिहासमे 1323 सँ ओइनिवार शासन व्यवस्थित होएबाक बीचक काल, जकरा अन्धकार युग कहल गेल अछि, ओ ब्राह्मण विद्वान् सँ शासित छल आ एहि कालमे अनेक सामाजिक सुधार भेल। तुगलकक आक्रमणक कारणें ओकर सैनिकक द्वारा यत्र-तत्र बसि जाएब कोनो असम्भव नै छल आ तें मैथिल मूल आ घुसपैठ केनिहारक बीच दूरी रखबाक लेल पंजीक पुनर्गठन तात्कालिक आवश्यकता छल। जे काज आइ आसाममे एन.सी.आर.क अन्तर्गत कएल जा रहल अछि से काज ओहि कालमे ब्राह्मणलोकनि कएने रहथि। तें 1326 ई.मे पंजीक सामूहिक लेखन ब्राह्मणलोकनि अर्थात् राजकीय विद्वान् अधिकारी लोकनिक द्वारा आरम्भ भेल, जाहिमे हरिसिंहदेवक कोनो राजकीय आदेश प्रभावी नहि छल।

यद्यपि 1812-13 ई.मे जखनि बुकानन पूर्णिया जिलाक सर्वेक्षण कए रहल छलाह तँ हुनका मैथिल ब्राह्मणक विभाजनक सम्बन्धमे हरिसिंहदेवक नाम कहल गेलनि। बुकाननक रिपोर्टक आधिकारिक प्रकाशन करैत 1838 ई.मे मांटगोमेरी मार्टिन लिखैत छथि-

“The customs by which this nation are at present ruled are said to have been established by a certain Hari Singha a Rajput who was king of Mithila or Tirahoot or Tirabhukti as it is called in the Sangskrita language. The Brahmans by this prince were divided into four ranks. The highest are called Suti the second Majroti the third Yogya and the fourth Grihasthas. These distinctions were founded on the various degrees of supposed purity and learning which in the time of Hari Singha individuals possessed but the distinctions have now become totally hereditary At the time of Hari Singha only 13 men were considered as entitled to the dignity of Suti. These distinctions do not absolutely prevent intermarriages but if a man of high rank marries a low girl he sinks to her rank only he is reckoned at its head If a low man can afford the enormous expense of marrying a woman of high birth he is considered as elevated to the head of his own tribe but cannot ascend to a perfect level with those of the tribe above him In this district the two higher classes are very few in number and there seems to be little loss as scarcely any of the Sutis and very few of the Majrotis give themselves any sort of trouble but live entirely by the rents of their lands or the profit of their rent and if by accident they become poor they can always obtain a maintenance by marrying the daughter of some low but wealthy man who will cheerfully and thankfully support them and their children owing to the lustre that will be added to his family In such cases however they themselves are reduced to the level of their father in law and their children if they wish to gain distinction will be under the necessity of undergoing the fatigues of study.” <sup>12</sup>

मुदा ई तत्कालीन जनश्रुति इतिहासक दृष्टिसँ एकदम मिथ्या थिक, आ उन्नीसम-बीसम शतीमे जे विभाजन सोझाँ आएल ओ एहिसँ भिन्न अछि।

एहि प्रकारें मिथिलाक पंजी एकटा उच्च कोटिक परिचयक लिखित स्वरूप थीक, जकर अनेक प्रयोजन अछि। एकरा लेल ‘पंजी-व्यवस्था’ शब्दक प्रयोग सभसँ पैघ भ्रम थीक। कोनो प्रकारक ‘व्यवस्था’ पंजीक विषय नहिं ओ धर्मशास्त्रक विषय थीक। एहि व्यवस्था पर वाचस्पतिक “सम्बन्ध-विचार” सनक पृथक् ग्रन्थ अछि जे पंजीकें आधार मानि लिखाएल। बिहार रिसर्च सोसायटी, पटनामे एकटा खण्डित तथा शीर्षकविहीन पाण्डुलिपि (बंडल संख्या 37, पाण्डुलिपि संख्या 91) मात्र 9 पत्रक अछि, जाहिमे व्यक्तिक नाम सभ छैक आ ‘क्षेम्यः’ आ ‘अक्षेम्यः’ शब्दसँ दू परिवारक बीचक सम्बन्धकें उचित आ अनुचित कहल गेल अछि। एहि प्रकारक ग्रन्थ आरो लिखाएल होएत, से सम्भव। एहि ग्रन्थक प्रकाशन आवश्यक अछि।

पंजी प्रबन्ध
16म शतीमे रघुदेव “पंजी-प्रबन्धः कृतः” कहैत छथि। ‘प्रबन्ध’ शब्दक अर्थ थीक एक सूत्रमे बाँधल ग्रन्थ, मुदा ‘प्रबन्ध’ शब्दक प्रयोग ‘प्रबन्धन’- अंगरेजीक ‘मैनेजमेंट’क अर्थमे कएल गेल सेहो भ्रम थीक। ई प्रबन्ध शब्दक अर्थ नहिं लगबाक कारणें आ व्यवस्था शब्दक मानसिकताक कारणें ई भ्रम सभ पसरल। तेसर भ्रम इहो पसरल जे पंजी विवाहमे सीमा निर्धारित करैत अछि, अर्थात् विवाह कोन कोन परिवारमे भए सकैत अछि, तकर अनुमति दैत अछि। जखनि की वास्तविकता ई अछि जे पंजी मात्र रक्तसम्बन्धक निर्णय दैत अछि जे अमुक वरक विवाह कोन कोन परिवारमे नहिं भए सकैत छैक।

पंजी स्वजनक सीमा निर्धारित करैत अछि। कोनो परिस्थिति मे केओ मैथिल भाइ-बहिन, काका-भतीजी, मामा-भगिनी आदि सनक वैवाहिक सम्बन्ध स्वीकार कए गारि नै सुनए चाहताह। बहुत परिस्थितिमे एहि पंक्तिक लेखकक अनुभव रहल अछि जे जाहि व्यक्तिक संग कोनो सम्बन्ध ध्यान पर नै अबैत अछि, मुदा जखनि जाँचल जाइत छैक तखनि बड़ नजदीक सम्बन्ध ठहरि जाइत छैक। तें पंजीकारक द्वारा अस्वजनक निर्णयक बादे वैवाहिक कार्य श्रेयस्कर अछि। एहि प्रकारें पंजीक सम्बन्धमे पसरल अनेक भ्रमक कारणें एकर उदात्त परम्पराकें बहुत हानि पहुँचलैक आ एखनि जे सामग्री उपलब्ध अछि ओकर संरक्षण आवश्यक भए गेल अछि।

एकर संरक्षणक लेल डा. योगनाथ झा तीन खण्डमे “पंजी-प्रबन्ध” नामक ग्रन्थ प्रकाशित कएलनि। डा. गजेन्द्र ठाकुर सेहो “जीनोम मैपिंग”क नामसँ दू खण्डमे यथोपलब्ध सामग्रीकें प्रकाशित कए देल। मुदा प्रकाशित अंश सम्पूर्ण पंजीक नगण्य भाग थीक। आइ एकटा आर विडम्बना अछि जे जाहि पंजीकारक लग ई ग्रन्थ सभ छनि ओ ओकरा अपन सम्पत्ति बुझैत छथि आ ओकरा प्रकाशन कें अपन आर्थिक क्षति बुझैत छथि। हुनका भ्रम छनि जे हमरा लग जे पंजी अछि ओ दोसराक लग चलि जाएत तँ ओहो ‘सिद्धान्त’ कराए लेताह आ हमर स्वयत्ता समाप्त भए जेबाक कारणें आय घटि जाएत। वास्तविकता एकर विपरीत अछि। जँ सभक लग उपलब्ध पंजीक प्रकाशन भए जाएत तँ सभ केओ सभ गामक सिद्धान्त कराए सकताह आ हुनक आयमे वृद्धि होएतनि। ई संगठित क्षेत्रक एकटा रोजगारक रूपमे विकसित होएत। आइ कर्मकाण्डक पोथी सभ सर्वत्र सुलभ छैक, तैयो योग्य पुरोहितक लेल पुछारि भैए रहल अछि।

आइ बहुतो पंजीकारक द्वारा पाण्डुलिपि सभ नुका कए राखब एकर संरक्षणमे बाधक भए रहल अछि। ओ लोकनि सिद्धान्त करएबामे स्वायत्तताक कारणें जँ एना कए रहल छथि तँ एतए हुनका लोकनिकें ध्यान देबाक चाही जे सिद्धान्त करएबामे अधिकसँ अधिक दू सए वर्षक पंजीक काज पडैत छैक। ओहिसँ पहिलुक पंजीक कोनो उपयोग सिद्धान्त करएबामे नहिं अछि। कमसँ कम ओतबा अंश व्यवस्थित कए प्रकाशमे आबए देथि। दू सए वर्षसँ पुरान पंजी आइ मिथिलाक इतिहासक स्रोत थीक आ ओ नष्ट होएत तँ बड पैघ क्षति होएतैक।

भावी गतिविधि

पंजीक वर्तमान स्थित मृतप्राय अछि। बहुत कम संख्यामे नवीकरण भए रहल अछि। बहुत गोटे जे बाहर रहैत छथि से अपनहिं मोने विवाह ठीक कए लैत छथि आ तकर सूचना सेहो पंजीकार कें नहिं दैत छथिन। संगहि अन्तरजातीय विवाहक कारणें सेहो नवीकरण नै होइत अछि। एकरा लेल आइ आवश्यक छैक जे कम्प्यूटर डाटाबेस तैयार कएल जाए, जाहिसँ एकटा फार्म भरि ओ अपनहिं पंजीकरण कए लेथि आ मूलपंजी नवीकृत भए जाए। अंतरजातीय विवाहक स्थितिमे सेहो एहि फार्ममे व्यवस्था रहबाक चाही जे दूनू पक्षक पूर्ण परिचय ओहिमे आबि जाए।

प्राचीनकालमे पत्नीक नाम नै आएल अछि, मुदा आब ओहो देबामे कोनो हर्ज नै छैक। आब जखनि भारत सरकारक द्वारा परिचयक क्रममे माताक नाम सेहो आवश्यक कए देल गेल अछि तँ पत्नीक नाम जोडब अपेक्षित छैक। एकर स्वरूपक लेल हमरहि पंजीक एकटा उदाहरण लेल जाए- भवनाथ-कुमुदभ्यां सुतौ महिनाथ प्र. राकेश, अभिचन्द्रकौ दरिहरासं.कीर्तिनन्दन प्र.महन्थ सुत सुरेश दौ.। महि. पाली. सं. ब्रजनन्दन सुत लक्ष्मीनन्दन दु.दौ.।। एतय पंजीक विशिष्ट भाषाक अनुकूल पत्नीक नामक बाद ‘भ्याम्’ प्रत्यय लगाएल जाए, जे पंचमी विभक्तिक द्विवचनक बोध कराओत आ ‘एहि दूनूसँ उत्पन्न’ ई अर्थ देत। ई पंजीक भावी गतिविधिक पंजीकारलोकनिक अनुमोदनक प्रत्याशामे लेल प्रस्तावित अछि, जे वर्तमान समयमे उपयोगी होएत। एहि प्रकारक आरो काजसभ कए पंजीक पुनरुद्धार आवश्यक अछि। इति।।


सन्दर्भ:
1. कुमारिल भट्ट, तन्त्रवार्तिक, 1.2.2, बनारस, 1882, पृ. 6.

2. उपरिवत्, टिप्पणी।

3. योगनाथ झा, पंजीप्रबन्ध, अंकित प्रकाशन, दरभंगा, 2010, भूमिका, पृ. Xii.

4. रमानाथ झा, “मैथिल ब्राह्मणों की पंजी-व्यवस्था”, पुनर्मुद्रित, पंजीप्रबन्ध भाग 3, योगनाथ झा, दरभंगा, 2018, पृ. 112.

5. परमेश्वर झा, मिथिलातत्त्वविमर्श, श्रीपरमेश्वर पुस्तकालय, तरौनी, 1949, पृ. 143.

6. Hodgson, B.H., “Account of a Visit to the Ruins of Simraoun, Once the Capital of Mithila Province” The Journal Of The Asiatic Society Of Bengal, James Prinsep (ed.), Calcutta, Vol. iv, 18 35, p. 121.

7. उपरिवत्, पृ. 124.

8. Mishra, Jaykant, History of Maithili literature, vol. 1, 1949, p. 135.

9. Jha, Bhavanath , “Some Inscriptions from Mithila”, मिथिला भारती, पटना, भाग 5, 2018, पृ. 191-192.

10. परमेश्वर झा, मिथिलातत्त्वविमर्श, श्रीपरमेश्वर पुस्तकालय, तरौनी, 1949, पृ. 136-38.

11. भवनाथ झा, “मिथिलासँ प्राप्त किछु नव शिलालेख”, मिथिला भारती, अंक 3, पटना, 2016, पृ. 13.

12. Martin,Robert Montgomery , Puraniya, Ronggopoor and Assam, 1838, pp. 155-56.

(प्रस्तुत शोध लेख लोकप्रिय पुस्तक मड़बा(Madba) मे प्रकाशित अछि।)

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सौराठ: मिथिला का एक सांस्कृतिक स्थल

सौराठ मिथिला(उत्तर बिहार) के मधुबनी जिले में स्थित एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक गाँव है। यह मिथिला के उन गांवों में से एक है, जो मिथिला के सांस्कृतिक इतिहास में अपने विशाल योगदान के लिए जाना जाता है। यह एक प्राचीन स्थान है, जहाँ खुदाई किये गए कुछ टीले पाए गए हैं, जो संभवतः इसके ऐतिहासिक महत्व की अपार जानकारी को अपने गर्भ में गोपन किया हुआ है। ब्रिटिश- भारत सरकार के पुरातत्व सर्वेक्षक अलेक्जेंडर कनिंघम ने उन्नीसवीं सदी के आठवें दशक में इस गांव का सर्वेक्षण ओईनवार वंशीय राजा शिव सिंह के एक अभिलेख की एक छाप या फोटोग्राफी लेने के लिए किया , जो 14 वीं सदी से संबंधित है, प्रकृतः यह एक दान अभिलेख है जो राजा ने विद्यापति को प्रदान किया था।

इस ताम्रपत्र अभिलेख की जानकारी उनके साथ दरभंगा के बाबू लाल नामक एक स्थानीय पंडित ने साझा की थी।

कनिंघम लिखते हैं कि पंडित बहुत बुद्धिमान और विद्वान था, और उन्हीं से सौराठ के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई थी। 1880-81 ई. में अपनी पुरात्त्विक सर्वेक्षण यात्रा के बाद उन्होंने इस प्राचीन ग्राम की प्रशंसा में निम्नलिखित लिखा है: “इस ब्राह्मणवादी गाँव की एंटिक्विटी पर थोड़ा संदेह हो सकता है, और यद्यपि मूल ताम्रपत्र अभिलेख से किसी तरह का स्टाम्प या संस्करण हासिल न करने पर गंभीरता से निराश होना पड़ा, मुझे सौराठ जाने का दुख नहीं है । ”

कनिंघम ने उल्लेख किया है कि यह अभिलेख नान्हू ठाकुर के कब्जे में था और उन्होंने लगभग 20 साल पहले सरकार को यह ताम्रपत्र अभिलेख प्रस्तुत किया था। अन्य गाँव के पंडितों के साथ ठाकुर ने अधिक जानकारी एकत्र करने में उनकी मदद की। उस समय कनिंघम सौराठ में दो डीह को देख सकते थे, जो लगभग एक मील पर अलग था। उस सतह पर कोई पुरातात्विक अवशेष नहीं खोज सका, इसलिए खुदाई की स्थल तय करना मुश्किल था। प्रख्यात सर्वेक्षक लिखते हैं कि ग्रामीण उन टीलों अथवा अवशेषों को प्राचीन नगर या बस्ती का अवशेष मानते हैं और वें उन लोगों के विचार से सहमत भी हैं। उन्होंने बड़े डीह में कुछ सतही खुदाई की जिसमें कुछ ईंटें और मिट्टी की कई गेंदें जिसके केंद्र में छिद्र मिलीं, संभवतः जिसका प्रयोग कताई (spinning weights) के लिए किया जाता था।

इस गाँव का मूल संस्कृत नाम “सौराष्ट्र” है। लोक दर्शन अथवा परंपरा में इस नाम की उत्पत्ति दो प्रकारों से वर्णित है। पहली दंत कथा(anecdote) बताती है कि यह गाँव रामायण काल से पहले का है और रामायण काल में यह सौ छोटे देशों के समूह का मुख्यालय था। हालांकि यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि रामायण की कुछ घटनाएं सौराठ गाँव के आसपास के कुछ स्थानों से भी जुड़ी हुई हैं, जैसे सतालखा, मंगरौनी और कनैल। इस जनश्रुति के आधार पर स्थानीय इतिहासकार इज़हार अहमद ने ग्राम जगतपुर की पहचान की है जो सौराठ के पूर्व में मिथिलापुरी, विदेह साम्राज्य की राजधानी के रूप में स्थित है। यह वहीं स्थल है जहाँ पर राजा जनक की सभा में वाद-विवाद/शास्त्रार्थ में याज्ञवल्क्य ने कई विद्वानों को पराजित किए थे। इस क्षेत्र में टीलों की खुदाई से रामायण की कलाकृतियों तथा रामायणकालीन संस्कृति की पुरातत्विक साक्ष्य को खोजने की संभावना है, जो भविष्य में मिथिला के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को एक नया दृष्टि प्रदान कर सकता है।

सौराष्ट्र/ सौराठ के नामकरण से संबंधित दूसरे उपाख्यान के अनुसार जब 1025 ईस्वी में महमूद गजनी ने गुजरात राज्य अंतर्गत सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का लूट पाट किया और ज्योतिर्लिंग को तोड़ा तब सौराठ ग्राम के दो ब्राह्मण भाई भागीरतदत्त और गंगादत्त को भगवान् आशुतोष का स्वप्न आया और महादेव ने उन्हें ज्योतिर्लिंग को कहीं और सुरक्षित स्थान उपलब्ध कराने के लिए कहा और वे शिवलिंग को इस गांव में ले आए। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि जब राजा हरिसिंहदेव ने चौदहवीं शताब्दी ई. (1309-24) के पहले चरण में मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों का पंजीकरण(genealogical accounts of the region maintained by hereditary record keepers) शुरू किया था, उस समय सौराठ नाम की कोई उत्पत्ति या मूल नाम की कोई शाखा नहीं थी। इससे पता चलता है की उस समय गांव में ब्राह्मणों और कायस्थों का निवास नहीं था।

सभा गाछी में पंजीकार और उनके पंजी दस्तावेज

सौराठ मैथिल ब्राह्मणों के वैवाहिक मिलन केंद्र के लिए प्रसिद्ध रहा है, जिसे लोकप्रिय रूप में सौराठ सभा के रूप में जाना जाता है। सभा-गाछी विवाह मिथिला के सामाजिक जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है जो देश में कहीं भी समानांतर नहीं है। सांस्कृतिक गांव सौराठ में सभा की संस्था ने पूर्व -आधुनिक मिथिला में संवेग प्राप्त किया। राज्य एवं स्थानीय लोगों की देख रेख में प्रतिवर्ष सौराठ सभा का आयोजन इस गांव के बाहरी इलाके से गुजरने वालीं जयनगर- मधुबनी मार्ग के निकट स्थित सभागाछी में आयोजित किया जाता था। जिस स्थान पर लोग इकट्ठा होते थे वह स्थल तपती सूरज से सुरक्षा प्रदान करने वाले पीपल, बरगद, पाकुड़ और आम आदि के पेड़ों से घिरा हुआ था (अभी भी सभा स्थल पेड़ों से घिरा हुआ है), जिन्हें मैथिली में सभा गाछी कहा जाता है। बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में इस वैवाहिक सभा की प्रासंगिकता वैश्वीकरण की सांस्कृतिक अस्त्र पश्चिमीकरण के आगमन के साथ घटती गई और यह घटना व्यावहारिक उपयोग से बदलकर सामाजिक परंपरा की सांस्कृतिक वर्षगांठ के रूप में बदल गई है।

सभा गाछी में हजारों लोगों की उपस्थिति स्रोत: इंडिया टुडे/गूगल

यह सभा हिंदू कैलेंडर के ज्येष्ठ-आषाढ़ महीनों में आयोजित होने वाला एक वार्षिक कार्यक्रम था। ऐसा कहा जाता है की लाखों लोग यहाँ आते थे। वर और वधु दोनों पक्ष घटक, पंजीकार, रिश्तेदार या परिचितों के साथ इस मिलन सभा में एकत्रित होते थे। हालांकि यह एक खुला वैवाहिक आयोजन था लेकिन जाति/वर्ण की स्थिति को बनाए रखा गया था। इस सभा को आयोजित करने का आदेश स्थानीय खंडवाल राजाओं ने पंजीकारों को दिया था और उन्होंने इसका सफलतापूर्वक आयोजन और संचालन किया। सौराठ सभा में विभिन्न गाँवों के रजिस्ट्रार / पंजीकार अपनी-अपनी पंजी प्रबंधों के साथ बैठते थे। धीरे-धीरे कई प्रसिद्ध पंजीकार / वंशावली परिवारों ने गाँव में बसने का फैसला किया और उनमें से कुछ अभी भी वहाँ हैं। सौराठ सभा की उत्पत्ति से पहले इस तरह की बैठकें समौल और अक्सर पिलखवाड़ (दोनों मधुबनी जिले में स्थित ग्राम हैं) में होती थीं। किसी समय, इस तरह की बैठकें मिथिला के विभिन्न क्षेत्रों में चौदह स्थानों पर होती थी जिनमें सौराठ और समौल प्रमुखता से शामिल हैं।

महामहोपाध्याय परमेश्वर झा के अनुसार, खंडवाला राजा राघव सिंह(1703- 1739 ई.) ने समौल गांव के पास सभा का आयोजन शुरू किया। सभा में पंजिकार दोनों पक्षों के मध्य विवाह ठीक हो जाने पर ताड़-पत्र पर लिखकर सिद्धांत पत्र देते थे। सिद्धांत पत्र विवाह के लिए स्वीकृति होती है जो यह जाँचने के बाद जारी किया जाता था (अभी भी कुछ लोग विवाह की इस पारंपरिक-साइंटिफिक पद्दति के द्वारा विवाह करते हैं) की सात पीढ़ियों से वर-वधू पक्ष के बीच कोई खून- सम्बन्ध(blood-relation) नहीं था।

परमेश्वर झा लिखते हैं कि समौल में सभा के लिए नियुक्त रजिस्ट्रार/पंजीकार पर किसी कारणवश ग्रामीणों द्वारा एक बार अत्याचार किया गया था और उन्होंने उस गाँव से पलायन करने का फैसला किया और अंततः सौराठ में बस गए, जहाँ पंजीकारों ने सभा / सभा का गंतव्य चुनने के लिए तरौनी (दरभंगा जिला) के होराइ झा की सहायता प्राप्त की। राजा माधव सिंह ने इस सभा में शामिल होने के लिए बाहर से आने वाले लोगों की सुविधा के लिए एक सभागृह, मंदिर(माधवेश्वर शिवालय), मंदिर के चारों दिशा में विशाल धर्मशाला और मंदिर के इशान कोण में एक बड़ा पोखर का निर्माण शुरू किया।

छत्र सिंह के समय में निर्माण कार्य 1832-33 ई. में पूरा हुआ। निर्माण कार्य से सम्बंधित उपरोक्त वृत्तांत माधवेश्वर मंदिर के कीर्तिशिला में उल्लेखित है। दुर्भाग्य से अभिलेख का दूसरा भाग अब स्पष्ट दिखाई नहीं देता है, इसको पुरातत्विक ढंग से साफ करके पढने की आवश्यकता है। कीर्तिशिलालेख का प्रथम भाग इस प्रकार है:

अभिलेख माधवेश्वर मंदिर के गर्भगृह के बाहर वाले दीवार पर अंकित है। फोटो साभार: लेखक स्वयं

इस प्रकार सौराठ मिथिला की एक सांस्कृतिक-ऐतिहासिक स्थल है। सोमनाथ मंदिर सहित गाँव में कई मंदिर हैं जो एक आधुनिक वास्तुकला के साथ विराजमान हैं जहाँ लोग बड़ी आस्था के साथ पूजा करने जाते हैं। जैसा की पूर्व उल्लेखित है मिथिला के शासक द्वारा निर्मित सभागाछी में माधवेश्वर मंदिर नाम का एक बड़ा शिव मंदिर है। मंदिर का परिसर हरा-भरा है, जिसके आंगन में श्रदालु-आश्रय के लिए एक इमारत है, जिसके निकट ही एक बड़ा पोखर है और पक्का घाट बना हुआ है। अब इस स्थल का रखरखाव नहीं किया जाता है, कोई भी इसकी दयनीय स्थिति को देखते हुए इस पोखर में स्नान नहीं करना चाहता है।

कुछ पंजीकार अभी भी सक्रिय हैं, उनका घर भी सभा गाछी के परिसर में ही है। वें वहां नित्य अपने सम्पत्ति/विरासत पंजी-प्रबंध के साथ बैठते हैं और समुदाय के सदस्यों के लंबे वंशावली इतिहास को बनाए रखते हैं। हाल ही में सौराठ सभा गाछी के निकट मिथिला लोक कला केंद्र तथा मिथिला संग्रहालय की स्थापना हुई है। सौराठ ग्राम में विभिन्न जाति/वर्ण के लोग रहते हैं, आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से गाँव समृद्ध है। गाँव के कई महिलाओं ने मिथिला पेंटिंग में अपना नाम कमाया है।

माधवेश्वर शिवालय, सभा गाछी फोटो साभार: लेखक स्वयं


Bibliography :
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Choudhary, Radha Krishna, Select Inscriptions of Bihar, Saharsa: Shanti Devi, 1958.

Cunningham, Alexander, Archaeological Survey of India Report, Vol. XVI, 1880-1881.
Jayaswal, K. P. and A. Banerji Shastri, Descriptive Catalogue of Manuscripts in Mithila, Patna: Bihar Research Society, 1927.<br>
Jha, Parmeshwar, Mithila-Tattva-Vimarsh, Patna: Maithili Akademi, 2013(edition).

Journal of the Bihar and Orissa Research Society, Patna, Vol. III.<br>
Thakur, Upendra, History of Mithila, Darbhanga: Mithila Institute of Post-Graduate Studies and Research in Sanskrit Learning, 1988(edition).

Thakur, Vijay Kumar, Mithila-Maithili : A Historical Analysis, Patna: Maithili Akademi, 2016(edition).

Thakur, Manindra Nath, Savita, Ripunjay Kumar Thakur, Madba(मड़बा), New Delhi: Indica Infomedia, 2020.<br>


अनुवादक :
मोहिनी किशोर
कला इतिहास विभाग
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
(प्रस्तुत आलेख के मूल स्वरूप की भाषा अंग्रेजी है जो पुस्तक मड़बा में प्रकाशित है।)

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बिहार में बाढ़ के मौसम की शुरुआत और नेपाल का पानी छोड़ना !!

बिहार में बरसात का मौसम शुरू हो गया है। हर साल की तरह इस बार भी नेपाल द्वारा पानी छोड़ने की बात मीडिया में प्रखर रूप से सामने आ रही है। कुछ दिन पहले एक राष्ट्रीय टीवी चैनल पर भी यही बात सुनने में आयी जो किसी भी पैमाने से गैर-जिम्मेदाराना है। संवाददाता को यह पता ही नहीं थी कि वह कह क्या रहा है और क्यों कह रहा है। इस तरह के बयानों से आम जनता के बीच भ्रम फैलता है।

नेपाल द्वारा पानी छोड़ने की परंपरा कोई नयी नहीं है। सन 2004 में 7 जून के दिन सीतामढ़ी के भनसपट्टी गांव के पास एक नाव दुर्घटना में एक बस बागमती नदी की बाढ़ में चपेट में आ गयी थी जिसमें 32 बाराती सवार थे। सरकारी सूत्रों के अनुसार उनमें से केवल छ: को बचाया जा सका और बाकी लोगों की जल-समाधि हो गयी। उसी दिन शिवहर को सीतामढ़ी से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग 104 पर डुब्बा पुल के पास एक नाव दुर्घटना में 24 लोगों के मारे जाने की खबर आयी।

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार इस नाव पर सवारियों की पांच मोटर साइकिलें और दस साइकिलों के साथ लगभग साठ सवार लोग सवार थे। जिला प्रशासन ने केवल दस व्यक्तियों के मारे जाने की पुष्टि की आंकड़ों के बात न भी भी करें तो इस वर्ष बाढ़ की शुरुआत बहुत ही भयानक तरीके से हुई थी।

इन दोनों घटनाओं के संदर्भ में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री राबड़ी देवी का एक बयान आया जिसमें कहा गया था कि, “नेपाल से पानी छोड़े जाने से बाढ़ आई”। इस शीर्षक से दैनिक हिंदुस्तान के पटना संस्करण में 9 जून, 2004 में अखबार ने लिखा कि, “यहां जारी सरकारी प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक मुख्यमंत्री ने कहा कि नेपाल से बिना सूचना दिये अधिक पानी छोड़ दिये जाने के कारण असामयिक बाढ़ आ गयी है। सीतामढ़ी के जिलाधिकारी ने मुख्यमंत्री को सूचित किया है कि असामयिक बाढ़ आने के कारण यह दुर्घटना हुई।” यह बात अगर किसी टी.वी. चैनेल से या अखबार से कही जाती तो उसको शायद माफ किया जा सकता था पर यह बयान तो राज्य के मुख्यमंत्री का था।

मुख्यमंत्री के इस बयान को लेकर उस समय बिहार विधानसभा और विधान परिषद में तीखी बयानबाजी हुई। उस समय इन दोनों संस्थाओं का वर्षा कालीन सत्र चल रहा था। जल संसाधन विभाग के 2004-05 के बजट पर बहस चल रही दौरान विधायक रामप्रवेश राय ने कहा कि कांग्रेसी राज्यों में सिंचाई से सुविधा प्रदान करने की योजना बनी थी लेकिन आज भी पूरे बिहार में माननीय मंत्री जी के इलाके को छोड़ कर कहीं कोई सुविधा नहीं है। महोदय, यह जल प्रबंधन की बात करते हैं। यह कल परसों ही (यहां) कहा जा रहा था कि नेपाल पानी छोड़ देता है।महोदय, मैं भी कभी कभी इनके पास बैठता हूं। यह भी कहते हैं कि नेपाल पानी नहीं छोड़ता है। हम लोग नेपाल पर झूठ-मूठ इल्जाम लगते हैं। जब पानी क्षमता से अधिक हो जाता है तो वह पानी बाढ़ के रूप में आता है और उससे बिहार का नुकसान होता है। महोदय, अभी-अभी बाढ़ का पानी आने से अनेकों लोग लापता हैं। नेपाल से पानी आने के कारण आज सीतामढ़ी, शिवहर और मुजफ्फरपुर का राजमार्ग बंद और हम आरोप लगाते हैं कि नेपाल पानी छोड़ देता है, इस कारण से यह हो रहा है।”

अनेक राजनेताओं की गलत जानकारी या फिर उनके द्वारा जान-बूझकर गलत बयानी करने और नेपाल द्वारा पानी छोड़ने की झूठ को बार-बार दोहराने से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के जन-मानस में यह बात पूरी तरह बैठ गयी है कि इस क्षेत्र में बाढ़ से तबाही के पीछे नेपाल का हाथ है। जानकारी में अभाव की वजह से इस दुष्प्रचार में मीडिया भी जोर-शोर से भाग लेता है। यह बात जहां राजनीतिज्ञों, प्रशासकों और इंजीनियरों से अनुकूल पड़ती है क्योंकि वह आम आदमी की नजरों में तात्कालिक जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं वहीं दोनों देशों के पारस्परिक सम्बधों में खटास पैदा करती है। इसलिये कोई आश्चर्य नहीं है कि अगर नेपाल में आम लोग इस मानसिकता से ग्रस्त हों कि जल संसाधन के विकास की सारी साझा योजनाओं का सारा लाभ केवल भारत को मिलता है और उनके हिस्से केवल तबाही आती है।

बिहार में बाढ़ की शुरुआत और नेपाल का पानी छोड़ना भाग-2

नेपाल के एक ख्यातिलब्ध इंजीनियर और समाज कर्मी अजय दीक्षित ने इस घटना पर कहा कि,” नेपाल में कोई संचयन जलाशय है ही नहीं जिससे पानी छोड़ा जा सके अतः जो कुछ भी बाढ़ आती है उसके पीछे क्षेत्र की जलीय परिस्थिति का एक दूसरे से जुड़ा होना है। नेपाल में कुछ वियर और बराज बने हुए हैं जिनमें कोई खास पानी जमा रखने की क्षमता नहीं है। केवल एक बांध कुलेखानी नदी पर बना हुआ है जिसमें मामूली मात्रा में बरसात का पानी इकट्ठा होता है। मगर जो आम समझदारी है उसमें पारंपरिक प्रतिक्रिया झलकती है जिससे समस्या और उसका समाधान दोनों ही स्थान और समय को देखते हुए बाहरी स्रोतों पर केंद्रित हो जाता है। और उन्हें बाढ़ समस्या का समाधान पारंपरिक लकीर पीटने में ही दिखाई पड़ता है। हिमालयी पानी के विकास और प्रबंधन के दिशा में इन बातों से गंभीर सच्चाई का सामना करना होता है और इसके साथ ही इस दिशा में जो फायदे आते हैं उनका भी अंदाजा लगता है।”

जाहिर है कि हम अपनी जमीन और साझा नदियों की वजह से आती बाढ़ का दोष ऊपरी क्षेत्र पर डाल कर कि वह पानी छोड़ देता है या हमारी समस्या में रुचि नहीं ले रहा है, कह कर अपने दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं।

नेपाल में बड़े बांधों का पहला प्रस्ताव 1937 में पटना बाढ़ सम्मेलन में किया गया था और तभी से, 83 साल हुए, दोनों देशों के बीच बांध निर्माण की वार्तायें चल रही हैं। हर साल बरसात में सरकार द्वारा इस प्रयास का हवाला दिया जाता है, कमेटियां गठित होती हैं, अध्ययन होता है और उसके बाद सब कुछ शांत हो जाता है। यह काम अतिरिक्त गम्भीरता पूर्वक 1997 से हो रहा है और, कारण चाहे जो भी रहा हो, अभी तक तबसे कोसी हाई डैम की प्रोजेक्ट रिपोर्ट नहीं बन पायी है। अगर प्रोजेक्ट रिपोर्ट 23 साल में भी नहीं बन पाती है तो बांध बनाने में कितने साल लगेंगे यह कौन जानता है?

यह बात अलग है कि बांध अगर बन भी जाय तो जहां उसका निर्माण होना है वहां से लेकर कोसी का नीचे का जलग्रहण क्षेत्र 13,676 वर्ग किलोमीटर है जिस पर उस बांध का कोई असर नहीं होगा। वहां बरसने वाली पानी की हर बूंद नदी में प्रवेश करने की कोशिश करेगी जिसे उसके किनारे बने तटबंध रोक देंगे और अतिरिक्त जल-जमाव का कारण बनेंगे। दूसरे, बांध बन जाने के बाद भी नदी को सुखा तो नहीं दिया जाएगा। बरसात में उसे चालू ही रखना पड़ेगा और उसकी वजह बांध से पानी छोड़ा ही जायेगा। बांध से छोड़ा हुआ पानी कोसी तटबंधों के बीच बसे लोगों को उसी तरह से तबाह करेगा जैसा वह आज करता है।

बांध के नीचे का नदी का जल ग्रहण क्षेत्र बागमती के जल ग्रहण क्षेत्र के लगभग बराबर है और कमला नदी के जल ग्रहण क्षेत्र का दुगुना है। अगर आपने इन नदियों में बाढ़ की हालत देखी है तो आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि यह बांध बन जाने के बाद भी बांध के निचले क्षेत्र में बाढ़ और जल जमाव की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा।

तीसरी बात, कोसी पर अगर बांध बना भी लिया जाए तो उस बांध का महानंदा, कमला, बागमती, और गंडक आदि नदियों की बाढ़ पर क्या कोई नियंत्रण हो पाएगा? इन नदियों का कोसी से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन बाढ़ किसी भी नदी घाटी में आये, बात कोसी पर प्रस्तावित बराहक्षेत्र बांध की होने लगती है। यह सब सवाल न तो पूछे जाते हैं और न इसका कोई जवाब दिया जाता है। इसलिए यथास्थिति बनी रहेगी और सरकार रिलीफ तब तक बांटेगी जब तक हम अपनी जमीन पर अपने संसाधनों से समाधान नहीं खोजेंगे। नदियों पर तटबंध बना कर हमने देखा लिया, बराहक्षेत्र बांध के ऊपर 83 साल बरबाद कर लिया, नदी-जोड़ योजना को 2017 में पूरा हो जाना चाहिए था, नहीं हुआ। क्यों?

बाढ़ से बचने के लिए हम क्या-क्या कर सकते हैं यह जानने के साथ-साथ यह जानना भी उतना ही जरूरी है कि हम क्या-क्या नहीं कर सकते हैं। ऐसी चीज़ों को छोड़ कर जब तक व्यावहारिक धरातल पर बात नहीं होगी तब तक इस समस्या का समाधान सोचा भी नहीं जा सकता।

(प्रस्तुत आलेख डॉ. दिनेश
मिश्र के फेसबुक पेज से उनकी अनुमति से लिया गया है।)

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प्राचीन मिथिला में पोखर परम्परा

Source ; परिषद साक्ष्य, नदियों की आग, सितंबर 2004
प्रायः पुण्य के लोभ के कारण, सिंचाई एवं जल की अन्य आवश्यकताओं तथा कीर्ति की आकांक्षाओं के कारण पोखर खुदवाने की परम्परा बहुत प्रचलित थी। पर पोखर के रूप में पोखर की मान्यता तभी होती थी जब उसका यज्ञ हो जाए। इसलिये यज्ञ और उत्सर्ग का विधान पोखर खुदवाने का अत्यंत आवश्यक अंग बन गया। यज्ञ के पश्चात् पूरे समाज को उस पोखर के जल और मछली, मखाना, घोंघा, सितुआ जैसी जल की वस्तुओं के स्वच्छन्द उपयोग का अधिकार हो जाता है।

जल संचय के लिए मानवीय प्रयास से खुदवाये जाने वाले पोखर-सरोवर भारतीय जीवन के सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक पक्ष से इतिहास के आरम्भ से जुड़े हैं। इसकी चर्चा ऋग्वेद में भी है। जब से गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र की रचना/ संकलन प्रारम्भ हुआ (800 से 300 ई.पू की अवधि में) तब से इसे धार्मिक मान्यता और संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इन सूत्रों के अनुसार किसी भी वर्ण या जाति के कोई भी व्यक्ति, पुरुष या स्त्री पोखर खुदवा सकते हैं और उसका यज्ञ करवा कर समाज के सभी प्राणियों के कल्याण हेतु उसका उत्सर्ग कर सकते हैं। विष्णु धर्मसूत्र ऐसे व्यक्तियों को बहुत पुण्य का भागी मानता है। संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि वाण अपनी कृति कादम्बरी (सातवीं शताब्दी) में ऐसे कार्य को सर्वाधिक महत्व का मानते हैं। मत्स्यपुराण और अग्निपुराण (300-600 ई.पू) में इस प्रसंग पर काफी चर्चा की गयी है। लोक कल्याण हेतु इस प्रकार के खुदवाये गये जल कोष को चार वर्गों में विभाजित किया गया है:

कूप
गोलाकर, जिसका व्यास 7 फीट से 75 फीट हो सकता है और जिससे जल निकालने के लिए किसी यंत्र जैसे डोल डोरी का प्रयोजन हो,<br>

वापी (बहुत छोटा पोखर)
चौकोर, लम्बाई 75 से 150 फीट हो और जिसमें जलस्तर तब पांव के सहारे पहुंचा जा सके,

पुष्करणी (छोटा पोखर)
गोलाकार, जिसका व्यास 150 से 300 फीट तक हो और

तड़ाग (पोखर)
चौकोर, जिसकी लम्बाई 300 से 450 फीट तक हो।

मत्स्यपुराण मे इस प्रसंग में पांचवें वर्ग की चर्चा की गयी है, इसे हदक नाम दिया गया है, जिसमें साधारणतः पानी कभी नहीं सूखता हो। धर्मशास्त्र के बाद की सभी रचनाओं में विभिन्न क्रमों में विभिन्न प्रकार के पोखरों की लम्बाई-चौड़ाई दी गई है, पर पोखर का उत्सर्ग करने के प्रसंग में सभी एकमत हैं। पुराणों के पश्चात् इसके उत्सर्ग यज्ञ के लिए अलग ग्रन्थ की रचना आरम्भ की गयी।

मिथिला कर्मकाण्ड के लिए प्रसिद्व रहा है। यहाँ बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी से पोखर-यज्ञ के लिए पद्धतियों का निर्माण शुरू हुआ। कर्णाट राज काल में तड़ागामृतलता और जलाशयादिवास्तु पद्धति नामक दो महत्वपूर्ण पुस्तक वर्धमान उपाध्याय ने लिखी। पंद्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में जलाशयोत्सर्ग पद्धति लिखी गयी जिस पर बुधकर ने अपनी टीका लिखी। प्रायः पुण्य के लोभ के कारण, सिंचाई एवं जल की अन्य आवश्यकताओं तथा कीर्ति की आकांक्षाओं के कारण पोखर खुदवाने की परम्परा बहुत प्रचलित थी। पर पोखर के रूप में पोखर की मान्यता तभी होती थी जब उसका यज्ञ हो जाए।

पोखर मुख्यतः राजा और जमींदार वर्ग द्वारा खुदवाया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त जो लागे अपने को सक्षम मानते थे वे लोग अपनी कीर्ति के लिए पोखर खुदवाते थे। स्मारक के रूप में समाज में इसका काफी महत्व था।

इसलिये यज्ञ और उत्सर्ग का विधान पोखर खुदवाने का अत्यंत आवश्यक अंग बन गया। पोखर-यज्ञ में लोक कल्याण व पशु-पक्षी कल्याण हेतु पोखर का उत्सर्ग किया जाता है। यह यज्ञ पोखर खुदवाने के बाद पोखर के एक महार पर पूरे समाज की उपस्थिति में आयोजित की जाती है। इसके बाद ही इस पोखर का जल देवताओं पर चढ़ाया जा सकता है या पूजा-पाठ में उसका व्यवहार किया जा सकता है। यज्ञ के पश्चात् पूरे समाज को उस पोखर के जल और मछली, मखाना, घोंघा, सितुआ जैसी जल की वस्तुओं के स्वच्छन्द उपयोग का अधिकार हो जाता है।

यहां एक बात की चर्चा आवश्यक है। मिथिला में पोखर-यज्ञ के लिये सिर्फ पद्धति की रचना ही नहीं हुई अपितु अक्सर पोखर खुदवाया भी जाता रहा। बारहवीं शताब्दी में गांग देव द्वारा काफी पोखर खुदवाया गया, जिसमें कुछ आज भी अन्हरा-ठाढ़ी, भौरा, मठिआही और आसी गाँव में मौजूद हैं। हाबीडीह, दरभंगा (शहर), बीरसाइर, वासुदेवपुर, सिमराओन और नेहरा गाँव के काफी पोखर चौदहवीं शताब्दी के पूर्व ही खुदवाये गये थे। ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर (चौदहवीं शताब्दी) में सरोवर और पोखर वर्णन है।

चौदहवीं शताब्दी में पोखर का एक और वर्ग ‘सरोवर’ गया, क्योंकि पूर्व परिचित पांच वर्ग (कूप, वापी, पुष्करणी, तड़ाग और ह्रद) में सरोवर नही था। पोखरा सातवां वर्ग हुआ। ज्योतिरीश्वर पोखर को महाह्रद या पोखरा सातवें वर्ग के रूप में दिखता है। वर्णरत्नाकर का पोखर वह पोखर नहीं है, जिसका प्रसंग बाद की लोकोक्तियां निर्देशित करती हैं।

यह लोकोक्ति है, पोखर, रजपोखरि और सब पोखरा; राजा शिवसिंह और सब छोकड़ा। शिव सिंह और ज्योतिरीश्वर के बीच करीब एक सौ वर्ष का अन्तर है। हो सकता है कि वर्णरत्नाकर के सौ वर्ष बाद रजपोखरि खोदे जाने के बाद पोखर के आकार की मान्यता बदल गयी हो और तब उपरोक्त लोकोक्ति का प्रचार हुआ हो। हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि मिथिला के इतिहास में विभिन्न प्रकार के पोखर खुदवाने और उनकी मौजूदगी के काफी प्रसंग उपलब्ध हैं। उदाहरण स्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखा गया आईना-ए-तिरहुत मिथिला के निम्नलिखित प्रसिद्ध पोखरों का विवरण प्रस्तुत करता है।

आईना-ए-तिरहुत के अनुसार मिथिला के प्रसिद्ध पोखरों का विवरण
क्र.सं
गाँव/शहर का नाम
परगना
पोखरों की संख्या
पोखरों का क्षेत्रफल (बीघा में)
1
दरभंगा (शहर)

8
बहुत बड़ा
2
बिरौल
हाटी
1

3
बर
पिंडारूच
1
200
4
सागरपुर
हाटी
1

5
रैयाम
भौर
1
60-70
6
कमतौल
भरवारा
1
80-85
7
रांटी
हाटी
1
50-60
8
संग्राम
पचही
1
70-80
9
जरहटिया
हाटी
1

10
लहरा
परिहारपुर-राघो
1
60-70
11
केओटी
पिंडारूच
1
20
12
नेहरा
परिहारपुर-राघो
1
2 मील लम्बा
13
भरवारा
भरवारा
1
2 मील लम्बा
14
बेला
आलापुर
1
2 मील लम्बा
15
हरिपुर
हाटी
1
60-70
16
नेहरा (नील कारखाना के समीप)
परिहारपुर-राघो
1
60-70
17
भिट्ठा
परिहारपुर-राघो
1
100
18
लबानगान
लबानगान
1
40-50
19
अन्तिहर
बारी
2
50-60 (प्रत्येक)
20
ब्रह्मपुर
भरवारा
1
83-84
21
बासोपट्टी
भाला
1
50-60
22
रहिका
जरैल
1
10-15
23
कछुआ
आलापुर
1
60-70
24
शंकरपुर कंसी
भरवारा
1
60-70
25
सिमरी
भरवारा
1
50-60
26
बनौली
रामचावन्द
1

27
सिमरी
जरैल
1
25-30
28
तारालाही
फरकपुर
1
70-80
29
दिकहार
नारे-दिगर
1
50-60
30
वैदेहीपुर
लबानगान
1
50-60
31
सिमराम
हाटी
1
70
32
शिवसिंहपुर
सौट
1
70-80
33
चनौर
लबानगान
1
70-80
34
दामोदरपुर
जरैल
1
25-30
35
बिनौल
तिरसठ
1
60-65
36
कठरा
लोआम
1
126
37
बीरसाइर
हाटी
1
25
38
अकौर

1
30-40

उपरोक्त सभी पोखरों के अलग-अलग नाम हैं, नाम के साथ दन्तकथा जुड़ी है। इन सभी दन्तकथाओं में विभिन्न कालों के ऐतिहासिक महत्व की सामग्री बिखरी पड़ी है। तथा हरेक पोखर का इतिहास उस गाँव व इलाके के जीवन के इतिहास से जुड़ा है। इस संदर्भ में शोधकार्य प्रारम्भ करना आवश्यक है।

बिहारी लाल फितरत, जिन्होंने गाँव-गाँव घूम-घूम सर्वेक्षण कर आईना-ए-तिरहुत की रचना की, लिखते हैं कि उपर्युक्त सारणी में जितने पोखरों का विवरण दिया गया है, उसके अलावा दरभंगा जिला (उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के दरभंगा जिला) में हजारों की संख्या में पोखर वर्तमान है, इनमें से प्रत्येक का विवरण एक पूर्ण व्यवस्थित दफ्तर द्वारा तैयार किया सकता है। मिथिला क्षेत्र की इस विपुल जल सम्पदा के प्रति हमलोग बिहारी लाल फितरत के बाद प्रायः उदासीन रहे हैं।

पोखर मुख्यतः राजा और जमींदार वर्ग द्वारा खुदवाया जाता रहा है। इसके अतिरिक्त जो लागे अपने को सक्षम मानते थे वे लोग अपनी कीर्ति के लिए पोखर खुदवाते थे। स्मारक के रूप में समाज में इसका काफी महत्व था। म.म. शंकर मिश्र के जन्म के समय जिस चमाईन ने अपनी सेवा दी थी उन्हें म. म. अयाची मिश्र ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार शंकर मिश्र की पहली कमाई दे दी। इस आमदनी से उस चमाईन ने अपनी कीर्ति के लिये अपने गाँव सरिसब-पाही में एक पोखर खुदवाया, यह जनश्रुति प्रचलित है।

चमनिया-डाबर कहा जाने वाला एक पोखर इस गाँव में आज भी मौजूद है। इससे यह जनश्रुत परम्परा सत्य प्रतीत होती है, लेकिन इससे इतना तो अवश्य प्रमाणित होता है कि लोगों में अपना कीर्ति स्मारक स्थापित करने की भावना प्रचुर रूप में विद्यमान थी और स्मारक के तौर पर पोखर खुदवाना बहुत उपयुक्त समझा जाता था। इससे पुण्य (धार्मिक दृष्टि से) भी होता था तथा खेत की सिंचाई करते समय, मछली मारते समय और घोंघा-सितुआ चुनते समय पुश्त-दर-पुश्त गाँव/इलाके में पोखर खुदवाने वाले का नाम लिया जाता था। पोखर का सबसे महत्वपूर्ण उपयोग खेतों की सिंचाई के लिये किया जाता था।

ग्रिअर्सन अपनी पुस्तक ‘बिहार पीजैन्ट लाइफ’ में बिहार में प्रचलित तीन प्रकार की सिंचाई की चर्चा करते हैं:

1. पईन और नहर से,
2. कुआं से और
3. पोखर से।

इस तीन तरह की सिंचाई में किस प्रकार का उपयोग बिहार के किस क्षेत्र में होता था उसके बारे में ग्रिअर्सन कोई खास सूचना अपनी पुस्तक में नहीं देते हैं। इस प्रसंग की सूचना विलेज नोट्स में उपलब्ध है। यह विलेज नोट्स बिहार के प्रथम भूसर्वेक्षण, जो उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में प्रारम्भ हुआ और इस शताब्दी के दूसरे दशक तक चला, के दौरान गाँव-गाँव में जाकर सर्वेक्षण पदाधिकारी द्वारा तैयार किया गया है। लेखक द्वारा सिंचाई के संदर्भ में बिहार के उस समय पटना, शाहाबाद, गया, भागलपुर, पूर्णिया, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, चम्पारण और सारण जिलों के करीब पांच हजार गाँवों के विलेज नोट्स का अध्ययन किया गया है।

दरभंगा जिला के अतिरिक्त सभी जिलों के विलेज नोट्स में खेती की जमीन की सिंचाई के लिये कहीं-कहीं ही पोखर की चर्चा मिलती है। लेकिन दरभंगा जिला का जितना विलेज नोट्स उपलब्ध हुआ उसके प्रायः 70 प्रतिशत में पोखर का उपयोग अंशतः सिंचाई के लिए किये जाने की चर्चा है। इसके अलावा जिन-जिन गाँवों में पोखरों की संख्या अधिक है, उसका वर्णन है जैसे, ननौर (सं. 246), परगना-पचही, थाना-मधुबनी में करीब 70 पोखर थे, रैयाम (सं. 169), परगना-भौर, थाना मधुबनी में 50-60 पोखर, हरडी (सं. 282), परगना-भौर, थाना-मधुबनी में 5-6 पोखर, नबनगर (सं. 287), परगना – जबदी, थाना-मधुबनी में 9 पोखर, मधेपुर (सं. 259), परगना-पचही,थाना-फुलपरास में 25 पोखर, लखनौर (सं. 247), परगना-पचही, थाना-फुलपरास में 20 पोखर, टटुआर (सं. 192), परगना-लोआम, थाना – बहेरा में 23 पोखर, हावी-मौआर (सं. 20), परगना-हावी, थाना – बहेरा में 20 पोखर इत्यादि। लेकिन विलेज नोट्स में गाँव की खेती की कितनी जमीन की सिंचाई होती थी, उसके बारे में कोई आंकड़ा नहीं दिया गया है। वैसे इतना निष्कर्ष तो लगाया जा सकता है कि जिस गाँव में पोखरों की संख्या और उसका रकबा जितना अधिक है, उसका वहां पोखरों से उतनी ही अधिक सिंचाई होती होगी।

जेएच केर ने इस शताब्दी के प्रारम्भ में दरभंगा जिला की वैसी जमीन का आंकड़ा प्रस्तुत किया है जिसकी सिंचाई पोखर से होती थी। इस जिला में दरभंगा, मधुबनी और समस्तीपुर तीन सबडिविजन थे। मधुबनी में चार थाना था: बेनीपट्टी, खजौली, फुलपरास और मधुबनी, दरभंगा सबडिविजन में तीन थाना था: दरभंगा, बहेड़ा और रोसड़ा। समस्तीपुर में भी तीन थाना था: वारिसनगर, समस्तीपुर और दलसिंहसराय। हर सबडिविजन में पोखरों से जितने खेतों की सिंचाई होती थी उसका विवरण निम्नलिखित सारणी में दिया जा रहा है।

क्र.
सं.
सबडिविजन
कुल खेती की जमीन का सिंचित हिस्सा (प्रतिशत में)
कुल सिंचित जमीन में पोखर सिंचित हिस्सा (प्रतिशत में)
1
बेनीपट्टी
31.83
55.14
2
खजौली
11.46
42.05
3
फुलपरास
11.73
30.04
4.
मधुबनी
5.43
58.71
कुल
14.35
48.85
5.
दरभंगा
0.50
13.65
6.
बहेरा
0.74
53.62
7.
रोसड़ा
0.12
10.48
कुल
0.48
36.04
8.
वारिस नगर
1.37
11.17
9.
समस्तीपुर
2.49
8.80
10.
दलसिंहसराय
2.32
12.08
कुल
2.14
10.39
<br>
जेएच केर द्वारा दिये गये आंकड़े से यह स्पष्ट है कि बेनीपट्टी, मधुबनी और बहेड़ा थाना में पोखर सिंचाई का मुख्य स्रोत था। केर के अनुसार, मधुबनी सबडिविजन में 45,000 एकड़ जमीन की सिंचाई सम्भव थी। मधुबनी सबडिविजन का क्षेत्र अब मधुबनी जिला बना गया है, जहां करीब-करीब 20,000 पोखर मौजूद हैं। लेकिन यह कहना अब कठिन है कि कितना पोखर कितना उपयोगी रह गया है।

स्वतंत्रता के पूर्व मछली, मखाना जैसी पोखर की वस्तुएं किसी बाजार में खरीद-बिक्री के लिए प्रायः नहीं भेजी जाती थीं। अतएव पोखर से जो कुछ उपलब्ध होता था, उसका उपभोग गाँव अथवा इलाका में बिना खरीद-बिक्री के किया जाता था। प्रथम भूमि-सर्वेक्षण में गाँव के खतियान में पोखर की हैसियत गैरमजरूआ आम या गैरमजरूआ खास के रूप में दर्ज थी। इस प्रकार पोखर ‘आम’ अथवा ‘खास’ हो गया।

ग्रामीणों को पहले जिस प्रकार मछली उपलब्ध होती थी, अब सम्भव नहीं है। उन लोगों को परम्परागत तौर पर पोखर के उपयोग का जो अधिकार था, वह सब समाप्त हो गया। खास पोखरों की भी यही दुर्गति हुई। इसके फलस्वरूप, गाँव का पोखर से जो अनुबंध था वह समाप्त हो गया। अब कौन पोखर का महार तोड़ता है, कौन पोखर में आने वाला पानी बंद करता है, किस पोखर का पानी दुर्गंध करता है, किस में केचुली भर गई है, इन सब से किसी को कोई मतलब नहीं है।पोखर का ऐसा परिचय पहले नहीं था। आम पोखरों की देख-रेख जमींदार लोगों के हाथ में थी तथा खास पोखरों की देख-रेख जिन लोगों की मिल्कियत होती थी, वे लोग किया करते थे। लेकिन समाज दोनों तरह के पोखरों का उपयोग करता था, उसके पानी से खेत की सिंचाई की जाती थी।

समाज उसकी मछली, मखाना, घोंघा-सितुआ इत्यादि का भी उपयोग करता था। बाजार उपलब्ध नहीं होने के कारण और धार्मिक तौर पर उत्सर्ग हो जाने के कारण, पोखर सम्पूर्ण समाज के उपयोग के लिए रहता था। कारण प्रायः सम्पूर्ण समाज अपने गाँव के सभी पोखरों को अपना समझता था, उसके प्रति एक खास ममत्व की भावना रहती थी, उसकी सुरक्षा के लिए सभी साकांक्ष रहते थे- समाज और पोखर के बीच एक सशक्त सम्बन्ध स्थापित था।

इस सम्बन्ध को सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाज और ज्यादा मजबूत करता था। जैसे मिथिला क्षेत्र में प्रचलित जूड़शीतल पर्व। यह पर्व बैसाख (अप्रैल) माह में मनाया जाता है। यह पर्व बिहार के दूसरे इलाकों में सतुआइन और वैशाखी के नाम से मनाया जाता है। मिथिला में इसके अनुष्ठान की विधि भिन्न रही है। यहां गाँव-गाँव में लोग कीचड़-कादो से खेलते हैं, लोग पोखर में जमा हो कर एक-दूसरे पर पानी, कीचड़ और कादो फेंकते हैं। इस प्रकार कीचड़-कादो खेलने से पोखर का गाद हट जाता है तथा पोखर में भर गये घास, केचुली, सेवार इत्यादि साफ हो जाते हैं। लगता है, पोखर के संरक्षण को ध्यान में रखते हुए इस विधि से यह पर्व मनाने की प्रथा मिथिला में चली होगी।

अन्य विधि-व्यवहार में भी पोखर का स्थान महत्वपूर्ण है। जैसे, कुमरम दिन (लड़की के विवाह का पूर्व दिन) में लड़की को पोखर में स्नान करवाने के लिए ले जाने की प्रथा है। स्नान करने के बाद पोखर के जल में जलेन्द्रि की पूजा की जाती है। इसके बाद जल से बाहर निकल कर पोखर के महार पर पूजा करायी जाती है। इसी प्रकार विवाह के बाद मसनही में वधू को पोखर में स्नान-पूजा करायी जाती है। श्राद्ध कार्य का बहुत सारा कर्म तो पोखर के महार पर ही सम्पन्न किया जाता है। इसके अतिरिक्त पोखर की चर्चा लोकगीत, सामागीत और लोक कथाओं में भी प्रचुर मात्रा में मिलती है।

उपर्युक्त सभी बातें समाज और पोखरों के सम्बन्ध की दृढ़ता का परिचायक हैं। गाँव की जो शक्ति सामाजिक सत्यता के रूप में थी उसका एक पक्ष (मिथिला में) पोखर से प्रतिबिम्बित होता था। गाँव के समाज और गाँव के पोखर का ऐसा अद्भुत सम्बन्ध अब बिखर रहा है।

जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के पश्चात् बिहार सरकार द्वारा भू-सर्वेक्षण प्रारम्भ कराया गया। इस सर्वेक्षण में पूर्व का गैरमजरूआ आम पोखर बिहार सरकार के पोखर के रूप में दर्ज किया गया। साथ ही मछली और मखाना का बाजार भी उपलब्ध हो गया। सरकार द्वारा सरकारी पोखरों को मछली और मखाना के लिए खास अवधि हेतु लीज पर दिया जाने लगा। सरकार को इससे आमदनी शुरू हो गयी। लीज लेने वाले जहां तक हो सके अपना लाभ सोचने लगे, जिससे गाँव के लिये पोखर के पानी का उपयोग बंद जैसा हो गया। सिंचाई के लिए पानी लेने पर रोक-थाम होने लगी, क्योंकि पोखर का पानी कम होने पर मछलियां मर जाती थीं। मछली मर जाने से लीज लेने वाले को घाटा होता है।

इसलिए वे घाटा क्यों सहें! ग्रामीणों को पहले जिस प्रकार मछली उपलब्ध होती थी, अब सम्भव नहीं है। उन लोगों को परम्परागत तौर पर पोखर के उपयोग का जो अधिकार था, वह सब समाप्त हो गया। खास पोखरों की भी यही दुर्गति हुई। इसके फलस्वरूप, गाँव का पोखर से जो अनुबंध था वह समाप्त हो गया। अब कौन पोखर का महार तोड़ता है, कौन पोखर में आने वाला पानी बंद करता है, किस पोखर का पानी दुर्गंध करता है, किस में केचुली भर गई है, इन सब से किसी को कोई मतलब नहीं है।

लीज लेने वालों को तो पोखर से यथासाध्य लाभ हासिल करना है। उन लोगों को कोई मतलब नहीं है कि गाँव का पोखर किस प्रकार व्यवस्थित रहेगा। इस तरह पोखर, जो समाज की सामूहिक सम्पत्ति था, सामूहिक उपभोग-सामूहिक जीवन का एक सशक्त स्रोत था, अधोगति के अंधकार में समाप्त हो रहा है। साथ ही जो समाज इसके (पोखर) साथ इतने दिनों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध रहा है, उससे अब दूरी बढ़ रही है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि सरकार और समाज दोनों इस समस्या का निदान खोजें – समाज की यह सम्पदा समाज को पुनः मिले, साथ ही यह सम्पदा स्थायी रूप से समाज द्वारा संरक्षित हो, समाज के लिए उपयोगी हो।

मैथिली से अनुवाद: रणजीव
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Rajnagar : The Cradle of Modern Mithila

Around 15 kilometers north-east to the bustling town-center of Madhubani in Bihar’s Mithila region, lies the rural block of Rajnagar. Well-connected through the national highways and railways networks, Rajnagar has about 60 villages and 2.5 lakh inhabitants. It also functions as an electoral constituency in the state assembly. Most of the families rely on agriculture, while some minor industries, including those based on Madhubani paintings provide livelihood to the people. What brings the tourists to this place is the photographic beauty of green lands, expansive orchids of mangoes, large ponds clad with lotus leaves (for makhana production), villages with painted houses and celebrity Madhubani artistes, some fish delicacies, and almost a century-old abandoned city of the kingdom of Darbhanga-Raj.

While Mithila and Madhubani trace their histories back to ancient times, through bouts of multiple civilizations, kingdoms and religions, the origins of the Darbhanga-Raj date back to the 1550s. In an interesting turn of change-of-powers, a celebrated Thakur family based out of Darbhanga in North-Bihar was awarded the Zamindari (land-ownership and tax-collection agreement from Mughal-era) of the Mithila or Tirhut province by Akbar, the erstwhile ruler of Mughal-India.1 By the time of the restructuring of the independent India’s tax systems in mid-20th century, Darbhanga was one of the largest and wealthiest Brahmin-ruled estates of the modern-era northern India.

Spread in an area around 6000 square kilometers, it covered most of the present-day Darbhanga and Madhubani districts (which were separated only in the year 1972) and even included parts of present-day Nepal. Although a large lot of their histories are unknown to the general public, the benevolence and intellectualism of the later monarchs of the dynasty are commonly quoted. With umpteen folklores and examples, from making large charities to their subjects, to enterprising industries in the region, contributing to the socio-political uplifting of the British-India, and taking keen interest in cultivating centers of language, literature, art, music, religion, and philosophy.

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The Zamindars of Darbhanga, who were to eventually adopt the titles of Raja, Maharaja, Bahadur and even Maharajadhiraja, ruled from vast and extravagant palaces in Madhubani. And from the time of Raja Madho Singh in the late 19th century, also in Darbhanga. Noted as a family of connoisseurs of their times, they sanctioned lakhs and crores of rupees upon their signature Mithila-architecture, seen in numerous of the Darbhanga-Rajparisars (palace-campuses) across the two cities. The last Maharaja, whose reign was officially nullified by the government of independent India in 1952, Sir Kameshwar Singh lived in Darbhanga. The famed campus of today’s Lalit Narayan Mithila University was originally his office and residence. Several remains of the royal monuments can be spotted also in Madhubani; the most illustrious among them and probably one of the grandest architectural remains of modern India, is located in Rajnagar.

Through generations, the Rajas of Darbhanga kept a tradition of gifting lands to their brothers. As a part of that, the 19th ruler, MaharajadhirajaLakshmeshwar Singh is said to have given three villages of Madhubani to his younger brother Rameshwar Singh in the year 1880. Rajnagar, on the banks of the Kamala river, was among them.2 In the wave of developing a new royal residence there, choice of place being of the awardee Rameshwar Singh himself, the interest and money kept flowing into the otherwise agricultural block of Rajnagar for the next 50 years. When Lakshmeshwar Sing died heirless, Rameshwar Singh took over as the Maharaja. He shifted parts of the administration from Darbhanga to Rajnagar, in turn justifying its name joining the words Raj (meaning king or kingdom) and Nagar (meaning town).

Rajnagar, a short drive from Madhubani, was constructed majorly as a princely-township, a walled regal complex which was spacious and colorful, with richness and diversity of art and craftsmanship imbibed in all of its ten-odd temples, palaces, numerous gardens and lakes. Constructed from scratch, over a span of 48 years, it remains a prime example of the elaborate and aesthetic town-planning, as well as the aristocratic display of wealth by last of the Mithila’s kings.

It was built in the times when the Indian architecture was seeing a rapid wave of change, and a lot of influence of contemporary British and European styles.

An Italian-origin master-architect M. A. Corone is said to have convinced Maharaja Rameshwar Singh to enliven his experiments in a neo-classical fusion of Indian palace-arts with those from the west, reason why a renowned historian went on to call Rajnagar as the ‘Italian Lutyens of Darbhanga-Raj’.3 In the later years of his life, in 1920s, Majaraja is said to have invested more aggressively into it but a completed capital city remained an unfulfilled dream in the 31 years of his rule. As the fate had it, it was neither fully finished nor did it survive too long.

One fine winter morning in the year 1934, while the ruling Maharaja with his family was vacationing in Calcutta, the infamous Nepal-Bihar earthquake hit his kingdom. This was one of the worst natural disasters the region has seen in the past century. It not only resulted in devastating tremors but also in large ruptures, sand fissures, and water vents, flattening most of the Darbhanga-Raj.4 Five years after the death of its patron king Rameshwar Singh, Rajnagar’s lavish monuments were ravaged to the extent of final abandonment. As the then Raja was residing in Darbhanga, the havoc in Madhubani remained out of his diligence.

The agony of Rajnagar sustained as it remains mostly unmanned and unpreserved even now. Much of what is to be seen in the city are ruins: of gigantic arched city-forts and walls, intricately ornamented imperial palaces and their marvelously carved pillars, gates and halls, staircases, pavilions, some surviving and some broken temples with their eye-catching domes, and ponds with their Ghats.

Much of the legacy of Rajnagar remains to be seen, heard and told. A quick visit to the historical complex would acquaint one to the plenty of what constituted the cultures and lives of Maithilas (residents of Mithila) in the 19th and 20th centuries. Spread across an area of about 6 square kilometers, a rightful ‘quick visit’ would actually demand a full day or two. The centerpiece is the Naulakha Mahal, a multistoried palace, which apparently costed about nine lakh rupees to the king and so the name.5 Many believe it was still incomplete when the 1934 earthquake shattered it down.

The administrative center, the secretariat building, along with the Raja’s court, his dining and study rooms were placed behind the grand and much-acclaimed Durga Bhawan, having a notable idol of the goddess Durga at its entrance. While the halls were destroyed, the entrance portico and the inner houses survived the calamity. The imperial residence was built like a typical Maithila’s house, still seen in the villages nearby. Central Angana (courtyard) is surrounded on four sides by houses, each featuring its own Asora (verandah). There is a covered platform called Marbaa for religious rituals in the courtyard.

One of the houses is dedicated to the family deity as Bhagwati or GusauniGhar, while usually the one on the southern side is kept for newlyweds, KohbarGhar. The only daughter of Raja Rameshwar Singh was married in this house in 1919. It is noteworthy that the décor on the KohbarGhar of the palace done for her wedding, happens to be the oldest existing wall painting of Madhubani style. Even though the Madhubani painting has existed for more than 1000 years as folk art, the earliest of its formal recording was done in 1940s (Archer’s collections, British Library), most of those also were lost in the wake of impoverishing which followed the 1934 earthquake in Bihar.

Multi-layered details of the carvings often claimed to be more elaborate than those present in Taj Mahal, are too alluring to be missed on Rajnagar’s monuments and their remains.

Giant elephant sculptures at the entrance to the palace and the planned secretariat building (also termed as Hathi Mahal at many places, probably one of the very few secular sections of the campus) are as easily witnessed as they are critical in the masonry history of India. These are the oldest sculptures made out of cement in India, have survived the enormous earthquake, and have one of the most iconic stories of the forgotten city associated with it. To exemplify the strength of cement, a new invention, and never-used as a sculpting material, chief architect Corone had said to the king that even elephants could not break a cement statue. The legend goes that Maharaja had, therefore, ordered him to build real-size elephants out of cement.

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While being an entrenched magistrate in his yesteryears, a prolific ruler, a multi-faceted literatus who would gather a wide audience of political, academic and religious pundits, Rameshwar Singh was also an established Tantric and followed quite an arduous daily routine of worshipping and Vedic rituals.6,7 Much of this is evident from his Rajparisar, which constitutes an assortment of as many as 11 Puranic temples, dedicated to Shiva, Hanuman, Kamakhya, Rajrajeshwari, Ardhanareshwari, Girija, Kali, etc.

He is said to begin his day with meditation and extensive puja of Dakshineshwar Kali in the white ivory temple, a repaired version of which still stands to amaze the visitors with its pristine beauty. Packing in itself the splendor of Hindu temple-art and one of the most regarded centers of Shakta tradition in India, Rajnagar campus hosted the grand official celebration of Dussehra for years, even after Rameshwar Singh’s passing away.

The glory of Rajnagar has been decaying in open since the past three-quarters of the century. It is high time the ornate monuments and the campus itself be systematically and professionally conserved. Some of the buildings are in use by local government offices and paramilitary organizations, but the most distinguished ones are in deplorable conditions. Whistleblowers have noted that the magnificent ruins are now home to stray cattle.8 The place holds the potential of being one of major tourism spots in the state, but right now its management is next to nothing. Dilapidation of Rajnagar is a graphic endorsement of the sheer neglect and under-development the region in Bihar has witnessed since decades.

Art and archeology historians have long claimed it to be a site of national importance and have raised the urgent need to protect Rajnagar from further natural degradation, manmade damages, and encroachments. Non-government bodies have been investing resources into awakening the locals, the incumbent custodians, regarding the matter. An essential motto of events like the Madhubani Literature Festival is to divert the country’s attention to this prominent, unmatched sample of India’s varied cultural heritage, and to re-establish Rajnagar as a unique identity of Mithila.

References:
1. Raj Darbhanga–home of India’s wealthiest Zamindars, IANS, Telagana Today (2019).
https://telanganatoday.com/raj-darbhanga-home-of-indias-wealthiest-zamindars
2. Rajnagar : The lost city of Mithila, G. Manish, 2ghumakkar, (2019)
https://www.2ghumakkar.com/rajnagar-the-lost-city-of-mithila/
3. Rajnagar: An ‘Italian Lutyens’ in Bihar, A. Anurag, Live History India, (2019).
https://www.livehistoryindia.com/amazing-india/2019/08/04/rajnagar-an-italian-lutyens-in-bihar<br>
4. Documenting the image in Mithila art, C. B. Heiz, Visual Anthropology Rev. 22 (2), (2006).
5. Navlakha Palace, Wikipedia page, (2019).
https://en.wikipedia.org/wiki/Navlakha_Palace<br>
6. Maharaja Rameshwar Singh, Srividya, Nirvana Sundari, (2019).
http://www.kamakotimandali.com/blog/index.php?s=rameshwar&advm=&advy=&cat=
7. Tantric Maharaja, Darbhanga Raj/ Sarkar Tirhut, R. D. Jha, (2019).
http://darbhangaraj.blogspot.com/
8. Rajnagar Campus, special report by L. N. Jha, Mithila Mirror, (2019).
(By: Prasoon Raj (Research Fellow, Nuclear Sciences,Karlsruhe Institute of Technology, Germany.)

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Saurath : A Cultural Seat of Mithila

Saurath(सौराठ) is a historic-cultural village in Madhubani district of North Bihar or Mithila. It is one of the villages of Mithila, which is known for its immense contribution in the cultural history of Mithila. It is an ancient place containing some excavated mounds, probably hiding immense information of its historical importance. Alexander Cunningham, archaeological surveyor to the government of India, visited this village in the 8th decade of 19th c. CE. to take an inked impression or photography of an inscription of Raja Shiva Singh, which belongs to the 14th c. CE. The information about this copper plate inscription was shared with him by a local pandit named Babu Lal at the heart of Mithila, Darbhanga. Cunningham writes that pandit was very intelligent and learned, and it was from him that important information about Saurath was obtained. After his visit in 1880-81 he wrote the following in praise of the place: “There can be little doubt of the antiquity of this Brahmanical village, and though seriously disappointed at not securing an impression of some kind from the original copper inscribed tablet, I was not sorry for having visited Sawrath.”

He has mentioned that the inscription was in the possession of Nanhu Thakur and he had presented the copper-plate inscription to the Government about 20 years ago. Thakur with other village pandits helped him in collecting more information. At that time Cunningham could see two Dihs in Saurath, which were separated by almost a mile. He could find no archaeological remains on its surface, therefore it was difficult to decide for any excavation. Cunningham writes that the villagers believe them to be the remains of an ancient city or habitation. and he also agreed with them. He did some superficial excavations in the larger Dih and found some bricks and also a number of clay balls with holes in the center, which may have been used for spinning weights.

The original Sanskrit name of this village is called “Saurashtra”. In the folk tradition, the origin of this name is described in two ways. The first story suggests that this village is of the pre-Ramayana period and in the Ramayana period it was the headquarters of a group of hundred small nations. It is important to note that some events of Ramayana are also connected with some places around the village of Saurath, such as Satalkha, Mangrauni and Kanail. On the basis of this janushruti, historian Izhar Ahmad has identified the village Jagatpur, located in the east of Saurath asMithilapuri, the capital of Videha Kingdom. This is where Yajnavalkya defeated many scholars in the debate at the assembly of Raja Janaka. There is a possibility of finding Ramayana artifacts from the excavation of the mounds in this region, which may highlight the historical and cultural significance of Mithila.

According to the second anecdote related to the nomenclature of Saurashtra/Saurath, when Mahmud Ghazni in 1025 CE looted the Somnath temple and broke its Jyotirlinga in Saurashtra region of Gujarat, then two Brahmin brothers from Sauratha Village, Bhagiratadatta and Gangadatta dreamed of Mahadeva/Shiva who asked them to provide Jyotirlinga a safe place somewhere else and they took it to this village. It is important to note that when King Harisinhadeva in the first phase of the fourteenth century CE (1309-24) started the registration of the Maithil Brahmins and Karna Kayasthas, at that time there was no origin or any branch of origin in the name of Saurath. This suggests that the village was not inhabited by Brahmins and Kayasthas at that time.

The village Saurath has been famous for its matrimonial gathering of Maithil Brahmins which is popularly known as Saurath sabha, the Sabha-gachi marriage became an important aspect of Mithila’s social life no parallel elsewhere in the country. It seems that the institution of Saurath-sabha at the cultural village Saurath gained momentum in the pre modern Mithila. Such gatherings used to be organized on the outskirts of this village. The place where people gather is surrounded by trees of Pipal, Bargad, Pakad and Mango etc. that provided protection from the sun, which is called Sabha Gachhi in Maithili. In the last phase of the twentieth century the relevance of this matrimonial gathering declined with the advent of westernization and the event changed from practical use to the form of a cultural anniversary of a social tradition.

The Sabha or gathering was an annual event held in the Hindu calendar months of Jyestha-Aashaadh. It is said that lakhs of Brahmins used to congregate here. Both the bride and groom parties used to gather here along with the constituents, Panjikars, relatives or acquaintances. Though it was an open matrimonial gathering but caste status was maintained. The order of organizing this gathering was given by the Khandwala kings to the Panjikars who duly organized and conducted it. The registrars/ Panjikars of various villages used to sit with their own books in the Saurath Sabha. Gradually many famous Panjikar/genealogist families must have decided to settle in the village and some of them still there. Prior to the origin of the Saurath Sabha such meetings were held in Samoul and often in Pilkhwad (both in the Madhubani district). At some stage such meetings are said to be held in fourteen places including Saurath and Samoul.

According to Maha Mahopadhyaya Parmeshwar Jha, Khandwala Raja Raghav Singh (1703- 1739 CE) started organizing the assembly near the village of Samoul. The sabha used to have a Panjikar as he had to give a Siddhant Patra written on palm leaves(ताड़पत्र) to the parties concerned when the marriage used to get fixed(without dowry). Siddhant is the approval for marriage which was released after checking that there had been no blood-relation between bride and groom sides for seven generations.The appointed registrars for the assembly in Samoul are said to have been tortured once by the villagers for some reason and they decided to migrate from that village and got settled in Saurath where the registrars received the assistance of Horai Jha of Tarauni (Darbhanga district) to choose the destination of the assembly/ Sabha. Raja Madhav Singh started the construction of a temple, dharamshala and tank for the convenience of the people who used to come from from outside to attend this Sabha. The construction got completed in 1832-33 CE during the time of Chhatra Singh.

Thus, Saurath is a cultural seat of Mithila. Many temples are there in the village including Somnath Temple with a modern architecture where people go to worship with great faith. There is a big Shiva temple named Madhaveshwara Temple in Sabhagaachi(assembly under tress/ Mango orchard ) built by the ruler of Mithila. The temple has a large green campus with a building for Shradhalus-stands in a court-yard (now it has been ruined), to the right direction of which, as one enters, is a large Pokhar or Tank. Now, it is not maintained, no one wants to take a bath in this Pokhar after looking its ruined condition. Some Panjikars are still there, who maintain the long genealogical history of the members of the community.

Bibliography :
Ahmad, Izhar, Madhubani Through the Ages: A Regional History of Madhubani, Delhi: Image Impressions, 2007.
Choudhary, Radha Krishna, Select Inscriptions of Bihar, Saharsa: Shanti Devi, 1958.
Cunningham, Alexander, Archaeological Survey of India Report, Vol. XVI, 1880-1881.
Jayaswal, K. P. and A. Banerji Shastri, Descriptive Catalogue of Manuscripts in Mithila, Patna: Bihar Research Society, 1927.
Jha, Parmeshwar, Mithila-Tattva-Vimarsh, Patna: Maithili Akademi, 2013(edition).
Journal of the Bihar and Orissa Research Society, Patna, Vol. III.
Thakur, Upendra, History of Mithila, Darbhanga: Mithila Institute of Post-Graduate Studies and Research in Sanskrit Learning, 1988(edition).
Thakur, Vijay Kumar, Mithila-Maithili : A Historical Analysis, Patna: Maithili Akademi, 2016(edition).
Thakur, Manindra Nath, Savita, Ripunjay Kumar Thakur, Madba(मड़बा), New Delhi: Indica Infomedia, 2020.

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The in-country migration of Labour from Mithila with decline of agriculture

Migration or in-country exodus of the labour was not till 1970s. Thereafter the unemployment rate rose because of no viable agro- industry in Mithila.Infrastructure damage by flood also cased fruther increment in it.Poorer Mithila had higher fertility rate which further increased the problem.

Till 1960s exodus of Maithilabour was to eastern India, more so to Kolkata as it had a base of jute industry but with the surge of time western India got economic uplift and that with the green revolution Haryana and Punjab became centre of gravitation with the better irrigation facilities due to Bhangra Nangal project.

In Mithila Koshi was devastating perinneally which till 2008 Kushsha breach had already damaged to the tune of Rs. 50000 cr to the infrastructure of Mithila.The namesake HEC, Ranchi, Bokaro Steel plant and the coal fields of undivided Bihar could attract some labour from Mithila but by and large the gradual decline in the agriculture as well as education in Bihar since 1970s made Maithil brain and labour vulnerable for brain drain and labour supply to the developed parts.

The overall decline made an average Maithil fit for menial work only and having been agricultursllabourer it was easy to migrate to Argo developed center like Haryana and Punjab than some other industrialized parts like Mumbai which needed technical expertise. Not that they did not go to Maharashtra ad Gujarat or lately to South India but in miniscule number as compared to the Sutlej -Vyas basin of Punjab and Haryana. Though green revolution in both these states was by Maithi sweats, Haryana was preferred because there was no Sikh insurgergency in 1980s as that of Punjab. Further being nearer to Delhi and hence, to their home in Mithila though this comparison need further study.

However, Delhi and around is also now flooded with semi- skilled Maithili migrants from Mithila and this whole northern zone may be compared to western India , Mumbai as well Gujarat with the economic surge of Gujarat, it is also embedded with Maithili migrants.Even south is not immune not to talk of skill migration in IT sectors but also for labor even to the distant Keral.

The study of in- country migration is the sad saga with which Maithili community is shivering with a socio- cultural and linguistic hybridization so much so that the change it has in past half century is much more comparable to in past 5000 years of the history known since the days of RajarshiJanak in Mithila.

In the history of last 5000 yearss surely Mithila had lost its soverginty in 1326 to Muslim annexation and even statehood in 1774 under the British paramountacy but economic decline had no parallel and today Mithila is the least developed part of India which need resurrection by all possible ways which will need a thorough water resource management as well as human resource management and it’s destiny can be changed by the agro-industrialization as well as revamping educational services.

Unless indices of Mithila are improved India will not be developed country.

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पंजी प्रबंध : एक अध्ययन

मिथिला में पंजीकरण पर तो कई विद्वानों ने प्रकाश दिए हैं और यहाँ के शैक्षणिक इतिहास आलेखन में पंजी प्रबंधों से प्रभूत सहायता भी ली है।लेकिन पंजीकरण और उसके बाद हुए ब्राह्मणों के वर्गीकरण से यहाँ की सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर पड़े प्रभाव पर सर्वांगीण विवेचन करता हुआ कोई कार्य नहीं हुआ है।ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों की पंजी पर कुछेक आलेखों एवं पुस्तकों में प्रकाश दिए गए हैं उनमें अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति और आलोचनातमक विश्लेषण का अभाव दृष्टिगोचर होता है।

सामान्यतः यह धारणा है कि पंजी के कारण पिछले लगभग एक हजार वर्षों के मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों के पूर्वजों की नामावली पंजी पुस्तकों में संगृहीत और सुरक्षित हैं।किन्तु पंजी आलेखन की मुख्य धारा से संपर्क कट जाने के कारण वास्तव में बहुत सारे बल्कि अधिकांश वंशों के कोई उपयोगी विवरण उपलब्ध नहीं हैं।जहाँ तक ब्राह्मणों का प्रश्न है जो लोग पंजी आलेखन की मुख्य धारा से जुड़े भी रहे उनमें भी बहुत सी त्रुटियाँ पाई जाती हैं।श्रोत्रिय एवं योग्य भलमानुसों को छोड़ शेष ब्राह्मण समुदाय का संग्रह उत्तर बिहार में भी अद्यतन नहीं है।अनेकमूलों का प्रारंभिक विवरण लुप्तप्राय है और जिन मूलों का विवरण उपलब्ध भी है उनमें भी अधिकांश की विभिन्न शाखाओं के विवरण अप्राप्य हैं।यद्यपि उन मूलों और उन शाखाओं के मैथिल ब्राह्मण पाए जाते हैं।

श्रोत्रिय एवं योग्य/भलमानुसों में बहुत सारे परिवार पश्चिमी चंपारण, पूर्णिया के कतिपय क्षेत्र, समस्तीपुर, सहरसा, कटिहार, दुर्गागंज, पलामू और भागलपुर में पाए जाते हैं।लेकिन इन वर्गों के बहुसंख्य वंश मधुबनी और दरभंगा जिलों में वास करते हैं जो सीमित पंजीकार परिवारों पर वैवाहिक कार्यों के लिए आश्रित रहे।जो लोग मधुबनीदरभंगा जिलों से इतर उपर्युक्त क्षेत्रों के निवासी रहे हैं वे भी वैवाहिक संबंध मधुबनीदरभंगा जिलों में ही करते आ रहे हैं।अतः उनकी वंशावलियाँ सीमित पंजीकार परिवारों में सुरक्षित हैं और अद्यतन होती रहती हैं।इस क्षेत्र के शेष पंजीकार लोग भी आपस में संपर्क कर अथवा इन वंशों के सदस्यों से संपर्क कर उसे अद्यतन करते रहे हैं।लेकिन शेष ब्राह्मण समुदाय की वंशावलियाँ पूर्णतः सुरक्षित नहीं हैं।

ये बातें मुख्यतः उत्तर बिहार और भागलपुर के मैथिल ब्राह्मणों को ध्यान में रख कर कही गई है।लेकिन बंगाल विशेषतः मालदह जिला और नेपाल के मैथिल ब्राह्मणों में पंजी किस अवस्था में है उसकी जानकारी लेखक को नहीं है।यद्यपि इन क्षेत्रों के मैथिल ब्राह्मणों के वैवाहिक संबंध उत्तरी और पूर्वी बिहार के मैथिल ब्राह्मणों से होते रहे हैं।

पंजी प्रबंधोत्तर काल में बहुत संख्या में मैथिल ब्राह्मणों का परिव्रजन उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश (विशेषतः पश्चिमी क्षेत्र)और छत्तीसगढ़ (विशेषतः रायपुर क्षेत्र) में होता रहा।उनमें पंजी प्रथा का लोप पाया जाता है।यद्यपि वे लोग मैथिल ब्राह्मण कह कर अपनी पहचान बनाए हुए हैं।लेकिन उनके अधिकांश वैवाहिक संबंध मैथिलेतर ब्राह्मणों से होते रहे हैं।ऐसे में जो पुरुष मैथिलेतर से विवाह करते हैं वे तो मैथिल ब्राह्मण संबोधित होते हैं लेकिन जो कन्याएँ अन्य समुदाय में ब्याही जाती हैं वे मैथिल ब्राह्मण समुदाय से पृथक हो जाती हैं।यद्यपि सैकड़ों वर्ष के प्रवास के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मैथिल ब्राह्मणों ने पंजी को पुनर्जीवित किया है किन्तु उसका मिथिलांचल की पंजी प्रथा से कोई संपर्क नहीं है और उसका आलेखन भी मिथिला की पंजी से साम्य नहीं रखता है।वह मात्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रवासी मैथिल ब्राह्मणों जो व्रजस्थ या व्रजवासीमैथिल ब्राह्मण संबोधित होते हैं उनके मिथिला से आव्रजन की स्मृति को सुरक्षित रखता है।लेखक के मत से राजस्थान और पश्चिमी मध्यप्रदेश के जो प्राचीन प्रवासी मैथिल ब्राह्मण परिवार हैं वे व्रजवासी प्रवासी मैथिल ब्राह्मणों के ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश से परिव्रजन के कारण हों।

मैथिल ब्राह्मणों में बहुत से लोग कालांतर में भूमिहार ब्राह्मणों में परिवर्तित हो गए।यद्यपि ऐसे लोगों में मैथिल ब्राह्मणों सदृश “मूल” और गोत्र पाए जाते हैं और वे मिथिला के विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाते हैं।भूमिहार ब्राह्मणों की बहुत बड़ी संख्या मुंगेर और बेगूसराय जिलों में पाई जाती हैं।इन जिलों या इसके आस पास के जिलों के भूमिहारों में मैथिल ब्राह्मणों से परिवर्तित भूमिहारों के अतिरिक्त बिहार के शेष क्षेत्रों या उत्तर प्रदेश के विभिन्न उत्पत्ति के ब्राह्मणों के वंशज भी पाए जाते हैं।यद्यपिमैथिल ब्राह्मण से भूमिहार बने लोगों के मूल और गोत्र उन्हें पृथकता प्रदान करती है तथापि सभी उत्पत्ति के भूमिहारों का एक अलग अस्तित्व और पहचान है।इन क्षेत्रों से सटे हुए जो मैथिल ब्राह्मण हैं (विशेषतः समस्तीपुर और वैशाली जिला) उनका इन भूमिहारों से वैवाहिक संबंध होता है।ऐसेमैथिल ब्राह्मण “दोगमिया” कहलाते हैं।

सामान्यतः कहा जाता है कि उन्नीस गोत्रों के मैथिल ब्राह्मण पंजीकरण काल में पाए जाते थे।लेकिन इन उन्नीस गोत्रों के अतिरिक्त भी मैथिल ब्राह्मणों के अस्तित्व पंजी काल में होने की जानकारी सीमित मात्रा में पाई जाती है।

सामान्यतः जिन उन्नीस गोत्रों के मैथिल ब्राह्मणों का वर्णन पंजी ग्रंथों में उपलब्ध है उनमें से सात गोत्रों को व्यवस्थित कहा गया है।यथाशाण्डिल्य, वत्स, सावर्ण, काश्यप, पराशर, कात्यायन और भारद्वाज।वर्तमान में अधिकांश मैथिल ब्राह्मण इन्हीं सात गोत्रों के बहुतायत में पाए जाते हैं।शेष गोत्रों में बहुत स्वल्प मात्रा में पाए जाते हैं।उनमें भी कौशिक गोत्र में मात्र एक मूल पंजीकृत है निकुतवारनिकुती जिस वंश के लोग दरभंगा के भालपट्टी गाँव में बड़ी संख्या में हैं।शेष गोत्रों के मैथिल ब्राह्मण को लेखक “दुर्लभ गोत्रों” में परिगणित करता है।ऐसे दुर्लभ गोत्र निम्नलिखित हैं — गौतम, कौण्डिल्य, गर्ग, कपिल, विष्णुवृद्धि,मुद्गल, तण्डिल, अलम्बुकाक्ष, वशिष्ठ, उपमन्यु और कृष्णात्रेय।वैसे इन दुर्लभ गोत्रों के कई मैथिल ब्राह्मणों से लेखक का संपर्क हुआ है जिनमें कुछ भूमिहार में भी परिवर्तित हो गए हैं।

कर्ण कायस्थों की पंजी में बहुत सी बातें अस्पष्ट हैं।विभिन्न पंजीकारों के पास मूलों की सूची एक समान नहीं है।विभिन्नमूलों की शाखाओं का पता लगाना और कठिन है।सामान्यतः आज उपशाखाएँ या उपशाखाओं की उपशाखाएँ प्रचलित हैं जो “डेरा” एवं “वास” के नाम से प्रसिद्ध हैं।कुछमूलों के नाम भी भ्राँति उत्पन्न करते हैं।

एक ही स्थान के नाम के कभी कभी दो मूल पाए जाते हैं जिसमें एक को तो सामान्य रूप से लिखा जाता है दूसरे में “वासी” लिखा जाता है, यथा तियाल और तियालवासी, पिपरौनी और पिपरौनीवासी।इस प्रकार के मूलों में क्या भिन्नता है ज्ञात नहीं।इसी प्रकार कुछ मूलों में संख्यावाचक शब्द जुड़े हुए हैं, यथा कोठीपाल, द्विकोठीपाल, त्रिकोठीपाल, चतुष्कोठीपाल, पंचकोठीपाल,षट्कोठीपाल और सप्तकोठीपाल।यहाँ ये संख्या क्यों हैं कहा नहीं जा सकता है।क्याकोठीपाल नामक एक से अधिक स्थान थे?या कोठीपाल नामक एक स्थान पर एक से अधिक सात विभिन्न कायस्थ परिवारों के बीजीपुरुष थे? अतः उन्हें संख्यावाचक भिन्नता प्रदान की गई जिस प्रकार ब्राह्मणों में एक स्थान पर एक से अधिक बीजीपुरुषों वाले गाँव के नाम पर बने मूलों को गोत्र के आधार पर भिन्नता प्रदान की गई।इसी प्रकार कुछ मूलों के नाम के साथ “अर्ध लगा हुआ है, यथा अर्धधाय, अर्धनिधाय और अर्धघासीपाल।इन सब बातों की व्याख्या हेतु कोई दन्तकथा भी प्रचलित नहीं है।

पंजीकरण से संबंधित एक जटिल प्रश्न है कि क्या जो उस काल (1309-24 ई) में मिथिला से बाहर थे उनका पंजीकरण हुआ होगा? कुछ शाखाएँ दूरस्थ क्षेत्र से भी नामांकित हैं ।परन्तु वह पंजी पूर्व के प्रवास को दर्शाता है और वे हरिसिंहदेव काल में मिथिला में थे ऐसा कहा जा सकता है।एक मूल है “ओरिया” (गौतम गोत्र) एवं अन्य है “औड़िये” (गर्ग गोत्र)।इनका संबंध ओड़िशा से जोड़ा जा सकता है।इन दोनों की किसी भी शाखा का उल्लेख नहीं पाया जाता है।इनमूलों की उत्पत्ति यदि ओड़िशा से है तो यह हरिसिंहदेव के समय से सात पीढ़ी ऊपर के प्ररवास का द्योतक है।अतः इनके वंशज चौदहवीं शताब्दी में मिथिला में थे तभी इनका पंजीकरण हुआ होगा। यहाँ लेखक का तात्पर्य वैसे लोगों से है जो पंजीकरण के ठीक पहले बाहर चले गए हों और हरिसिंहदेव के पराजय के बाद आए हों।क्या वे पुनः मैथिल ब्राह्मण समुदाय में सम्मिलित हो पाए होंगे?

पंजीकरण के समय जिन क्षेत्रों में हरिसिंहदेव का शासन नहीं था उन क्षेत्रों के मैथिल ब्राह्मण और कर्ण कायस्थों का पंजीकरण हुआ होगा?

मिथिला का एक प्राचीन गाँव है “महिषी” (सहरसा जिला)।सकरी के बाद सबसे अधिक हरिसिंहदेवकालीन शाखाएँ इस गाँव के नाम पर पंजीकृत हैं।यह गाँव प्रसिद्ध मीमांसक मंडन मिश्र के गाँव माहिष्मती के रूप में मान्य है।परन्तु इस गाँव के नाम पर एक भी मूल नहीं है।इस गाँव में एक उग्रतारा की प्रतिमा भी है जो दसवीं शताब्दी से पूर्व की है।क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जाए कि दसवीं से बारहवीं शताब्दी तक यह गाँव ब्राह्मणों और कायस्थों से रहित था?

विनयानन्द झा
मंगरौनी, मधुबनी

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मैथिलकायस्थ: एक अध्ययन

मिथिला में सामान्यतः ऐसी मान्यता है कि यहाँ पाए जानेवाले कर्ण/करण कायस्थ कर्णाटक से आए। इस मत के अनुसार मिथिला में कर्णाट वंश के संस्थापक नान्यदेव (1097 ई.) के साथ आनेवालों में मंत्री श्रीधर और उनके अन्य बारह सगे संबंधी थे।इन तेरह को कालान्तर में कर्ण कायस्थों की पंजी में प्रथम स्थान पर रखा गया। कर्णकायस्थों की पंजी संबंधी जनश्रुतियों के अनुसार मिथिला में कर्णाट शासनकाल में हरिसिंहदेव से पूर्व ऐसे चार आव्रजन कायस्थों के दक्षिण भारत से हुए। दूसरी बार कहा जाता है कि बीस परिवार आए जिसे पंजी में द्वितीय श्रेणी में रखा गया। इसी प्रकार तीसरे आव्रजन में तीस और चौथे में अस्सी परिवारों का आगमन हुआ जो पंजी में क्रमशः तीसरी और चौथी श्रेणी में वर्गीकृत हैं  ( रास बिहारी लाल दास कृत मिथिला दर्पण, पृ.225-26,कल्याणी फाउंडेशन, दरभंगा, प्रकाशन )

कालान्तर में इन्हीं परिवारों का जो विस्तार हुआ अथवा कुछ अन्य आव्रजन भी हुए हों जिस कारण कायस्थों की पंजी में 312 से लेकर 573 वंशों (मूलों) के उल्लेख कर्ण कायस्थों की पंजी पर लिखनेवालों ने किए हैं।

सामान्यतः कहा जाता है कि जो कायस्थ कर्णाटक(एवं/या दक्षिण भारत) से आए वे कर्ण या करण कायस्थ कहलाए। गोविंद झा ने कर्ण कायस्थों की उत्पत्ति को इससे भिन्न माना है।उन्होंने कर्ण शब्द को करण माना है जिसका अर्थ होता है “कचहरी”।अर्थात कचहरी में कार्य करने वाले कायस्थगण करण/कर्ण कायस्थ कहलाए (गोविंद झा, अतीतालोक, पृ.28)।कचहरी शब्द एक व्यापक संदर्भ में प्रयुक्त होता है।राजकीय उच्चतम न्यायालय से लेकर जमीन्दारों और छोटे बड़े भूपतियों की जो भूसम्पदा विभिन्न गाँवों में होती थीं उसकी देख रेख हेतु उन गाँवों में उनके घरों को कचहरी कहा जाता था।प्रत्येक ऐसे स्थान पर अथवा अधिकांश ऐसे स्थानों पर आय व्यय आदि का हिसाब रखने के लिए कायस्थगण नियुक्त होते थे।

मिथिला दर्पण के अनुसार जो कायस्थ कर्णाटक के जिस गाँव से आए वही उनका मूल हुआ (पृ.226-28)। लेकिन प्रस्तुत लेखक इस मत से सहमत नहीं है क्योंकि उनके मूलों में कई ऐसे नाम हैं जिस नाम के गाँव मिथिला में भी पाए जाते हैं। यथा, बलाइन, केउटी, बनौली, पोखराम, सीबा, अहपुर, खड़का, गंगौली, छतवन, झंझारपुर, तेघरा, दीप, नवहथ, परसा, पिपरा, पिपरौनी, बड़ियाम (बढ़ियाम?),बिहनगर, बेता, भिट्ठी, मझौरा, महिसी, राघोपुर, लवानी, लोआम, सिमरी, सुपौल, सोनबेहट, सोहराय, हाटी, हावी  इत्यादि।

मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों के समान मूलों का उल्लेख करते हुए विनोद बिहारी वर्मा ने ऐसे 23 मूलों का वर्णन किया है ( मैथिल करण कायस्थक पाँजिक सर्वेक्षण, पृ.49 )।

लेकिन इस आधार पर करण कायस्थों की कर्णाट उत्पत्ति संबंधी मान्यता को सर्वथा अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है। कर्ण कायस्थों के अधिकांश मूल मैथिल या मिथिला उत्पत्ति के नहीं कहे जा सकते हैं। उन गैर मैथिल उत्पत्ति वाले मूलों में सभी को कर्णाट या दक्षिण भारतीय उत्पत्ति पर संदेह व्यक्त किया जा सकता है।

जहाँ तक कर्णाट उत्पत्ति का प्रश्न है उस पर आपत्ति की जा सकती है। मिथिला दर्पण के अनुसार नान्यदेव के मंत्री श्रीधर का दूसरा नाम लक्ष्मीकर था जो बलाइन मूल के संस्थापक भी थे। असमिया जनश्रुति के अनुसार बलाइन मूल के लक्ष्मीकर ठक्कुर प्रसिद्ध श्रीधर के अति अति वृद्ध प्रपितामह टंकपाणिपाल वंशी राजा धर्मपाल के आश्रित थे। टंकपाणि के पिता का नाम मंग्यदास था। धर्मपाल ने टंकपाणि को तीरभुक्ति का “प्रधान लेख्य”नियुक्त किया। तिब्बती स्रोत के अनुसार टंकपाणि के पुत्र चक्रपाणि एक साधक थे। श्रीधर के पिता राज्यधर असमिया जनश्रुति के अनुसार पालवंश की शक्ति क्षीण होने पर कूच बिहार के स्वतंत्र शासक बन गए। राज्यधर के बाद उनके पुत्र श्रीधर को कामरूप के के राजा ब्रह्मपाल ने “सामन्त राजा” की उपाधि दी।

मिथिला दर्पण ने इसी श्रीधर (लक्ष्मीकर) के नान्यदेव के साथ कर्णाटक से आगमन, उनका मंत्री और उनके कर्णाट गाँव बलाइन के नाम पर बलाइन मूल का संस्थापक कहा है। कुछ अन्य के अनुसार बलाइन मूल के संस्थापक श्रीधर प्रसिद्ध लक्ष्मीकर नान्यदेव से तीन पीढ़ी ऊपर हुए। उनके प्रपौत्र देवधर भी श्रीधर नाम से ज्ञात थे अतः वही नान्यदेव के मंत्री रहे होंगे। इस आलोक मेबलाइन को कर्णाटक से जोड़ना उपयुक्त नहीं होगा जबकि श्रीधर (लक्ष्मीकर)से सात पीढ़ी ऊपर के मंग्यदास असमिया जनश्रुति में मैथिल माने जाते हैं और उनके वंशज असम, बंगाल और मिथिला में कहे जाते हैं।

ऐसा कहा जा सकता है कि नान्यदेव के पूर्व कर्ण/करण कायस्थ मिथिला में थे । कुछ उनके साथ और कुछ उनके बाद दक्षिण और मध्य भारत, असम और बंगाल आदि से भी यहाँ आते रहे। जिनके पूर्वज हरिसिंह देव काल नान्यदेव से प्राचीन थे उनके मूल यहाँ के गाँवों के नाम पर बने,जैसा कि ऊपर दर्शाया जा चुका है। हरिसिंहदेवक काल में जिनके पूर्वज अपेक्षाकृत नवीन थे उनके मूल मैथिलेतर क्षेत्र के पाए जाते हैं। लेकिन सभी मैथिलेतर नामों पर बने मूलों को कर्णाटक से जोड़ना उचित नहीं होगा । करण और कर्ण दोनों शब्द प्रचलित होने के कारण तथा मिथिला में कर्णाट वंश के पंजी काल में शासन होने से भ्रमवश कालान्तर में यह प्रसिद्ध हो गया होगा कि कर्ण कायस्थ कर्णाट उत्पत्ति के हैं।

(विनयानन्द झा लिखित अप्रकाशित पुस्तक “मिथिला के सामाजिक इतिहास में पंजीकरण का प्रभाव” के आठवें अध्याय के अंश।)

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श्री मिथिला परिक्रमा: श्री जानकी मंदिर, एक पड़ाव!!

पुराणों के अनुसार इस मिथिला-परिक्रमा का बहुत महत्व है। जिस मिथिला धाम के नाम लेने मात्र से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती हो उस मिथिला की परिक्रमा और प्रदक्षिणा का फल कितना दिव्य होगा यह कहने की आवश्यकता नहीं है।श्री पराशर जी ने इसी सन्दर्भ में श्री मैत्रेय जी से कहा कि परिक्रमा करने वाले की तो बात ही छोड़िए जो व्यक्ति इस मिथिला-परिक्रमा को करने का संकल्प भी लेता है या विचार भी करता है उसके सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। ऐसे में इस परिक्रमा को पूर्ण करने वाले के तो स्वयं के साथ कुल और पितृगण का भी उद्धार हो जाता है। त्रेताकाल से चलती आ रही इस परिक्रमा की शुरुआत, इस युग में श्री सूरकिशोर बाबा के आगमन से पूर्व ही हो गई थी और उनके आगमन तथा जनकपुर आदि के प्रादुर्भाव के बाद यह वृहत और व्यापक रूप में की जाने लगी।

अट्ठारहवीं शताब्दी में रचे गए मिथिला माहात्म्य ग्रन्थ में इस परिक्रमा का विशेष वर्णन मिलता है जिसमें भारत और नेपाल के बीच 128 किलोमीटर की दूरी तक की जाने वाली विशाल परिक्रमा का विवरण दिया गया है। मिथिला की सम्पूर्ण भूमि चौरासी कोस की मान कर इस परिक्रमा को आम भाषा में चौरासी कोस परिक्रमा भी कहते हैं। यह परिक्रमा जनकपुर से की जाती है और यही इसकी परंपरा रही है। मिथिला माहात्म्य के अध्याय तीन के अंतर्गत इस परिक्रमा को करने के लिए तीन समय बताए गए हैं- कार्तिक (अक्टूबर-नवम्बर), फागुन (फरवरी-मार्च) और वैशाख(अप्रैल-मई) महीना।लेकिन अभी की जाने वाली परिक्रमा में फागुन माह की परिक्रमा ही विशेष चर्चा में होती है।
पुस्तक के अनुसार यहाँ तीन प्रकार की परिक्रमा का विवरण आता है:

1.वृहत -परिक्रमा 2. मध्य-परिक्रमा और 3. लघु -परिक्रमा

इस परिक्रमा के अंतर्गत श्री मिथिला बिहारी जी और श्री किशोरी जी का डोला सजाया जाता है और उसमें दोनों युगल सरकार को स्थापित कर उनकी झाँकियों को भ्रमण में संग लेकर चलते हैं। साथ में संत, सन्यासी, गृहस्त, भजन-कीर्तन की टोली आदि चलती है और ईश्वर का गुणगान करते हुए पैदल ही यह परिक्रमा पूर्ण करनी होती है। रात भर जहाँ भी यह टोली विश्राम करती है वहाँ भजन-कीर्तन आदि अनवरत चलते रहते हैं।इस परिक्रमा के अंतर्गत जिस-जिस स्थान से यह डोला गुजरता है उस स्थान के निवासी और ग्रामवासी सेवा-सत्कार का कोई भी अवसर नहीं गंवाते अपितु सभी गाँवों में इस डोला-भ्रमण की प्रतीक्षा होती रहती है और जहाँ यह डोला विश्राम लेता है उस ग्राम के लोग और भक्त इसकी पूर्ण व्यवस्था करते हैं। इस डोला-परिक्रमा में सम्पूर्ण मिथिला उत्साहित होकर भाग लेती है।

वृहत-परिक्रमा:
वास्तव में वृहद परिक्रमा गृहस्तों के लिए नहीं है क्योंकि इसे करने में मिथिला के चारों ओर चौरासी कोस की परिक्रमा होती है जिसके अंतर्गत लगभग 268 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है जिसे करने के लिए एक वर्ष लग जाता है।शुरू में यह परिक्रमा बस सन्यासियों के द्वारा ही की जाती थी किन्तु समय के साथ यह गौण होती गई और अब यह परिक्रमा नहीं की जाती है। वैसे इस परिक्रमा का प्रारम्भ कौशिकी नदी के तट से किया जाता था जो फिर बाबा सिंघेश्वर स्थान(सहरसा)से होते हुए गुजरती थी। फिर सिंघेश्वर स्थान से यह परिक्रमा पश्चिम की ओर बढाती थी और गंगा नदी के सिमरिया घाट तक जाती थी जहाँ से पुनः यह परिक्रमा मुड़ती थी और हिमालय के तराई क्षेत्रों (नेपाल आदि) से होते हुए वापस कौशिकी नदी तट पर आती थी। वहाँ से पुनः यह परिक्रमा सिंघेश्वर मंदिर में आकर समाप्त होती थी। कालक्रम में होने वाले व्यवधानों और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण कम होते होते अब यह वृहत परिक्रमा विलुप्त प्राय हो गई है।

मध्य- परिक्रमा(आधुनिक वृहत परिक्रमा):
आधुनिक काल में यही परिक्रमा वृहत परिक्रमा मानी जाती है जिसके अंदर लगभग मिथिला के चारों ओर चालीस-बयालीस कोस की परिक्रमा होती है जो लगभग 128 किलोमीटर तक की जाती है। किन्तु अब इसे ही चौरासी कोस परिक्रमा के नाम से जाना जाता है।

ग्रन्थ के हिसाब से इस परिक्रमा को पाँच दिन में पूर्ण कर लेना चाहिए लेकिन मिथिला के पंडितों ने समय और व्यवस्था को देखते हुए इस परिक्रमा के लिए पंद्रह (15) दिन का समय निर्धारित किया है जिससे बड़े- बूढ़े और अस्वस्थ व्यक्ति भी इस परिक्रमा को पूर्ण कर अपना जीवन कृतार्थ कर सकें।

वर्तमान समय में यह परिक्रमा फागुन (फरवरी-मार्च) माह की अमावश्या तिथि को प्रारम्भ होती है और इसी दिन श्री मिथिला बिहारी और श्री किशोरी जी का डोला परिक्रमा के लिए उठाया जाता है। लगातार पंद्रह दिनों तक चलने वाली यह परिक्रम फागुन शुक्ल-पक्ष पूर्णिमा (होली) से एक दिन पहले चतुर्दशी को समाप्त होती है। इन पंद्रह दिनों में प्रत्येक रात्रि को एक विश्राम स्थल बनाया गया है जहाँ डोला-यात्रा रोकी जाती है।

अमावश्या के दिन यह यात्रा नेपाल अधिकृत मिथिला के धनुषा जिले के पास कचुरी गांव से शुरू होती है जो जनकपुर से लगभग12किमी दूर है और वहाँ से उठाकर प्रथम रात्रि को जनकपुर के हनुमान नगर में विश्राम लेती है। जनकपुर स्थित हनुमान-नगर का हनुमान मंदिर इस यात्रा का पहल पड़ाव है।

दूसरे दिन (प्रतिपदा) को यह यात्रा हनुमान नगर से निकल कर कल्याणेश्वर महादेव (कलना) के मंदिर के पास विश्राम लेता है। तीसरे दिन (द्वितिया) को यह डोला कल्याणेश्वर महादेव को प्रणाम कर गिरिजा-स्थान (फुलहर) में जाकर विश्राम लेता है। चौथे दिन(तृतीया) को माँ गिरिजा के आशीर्वाद से यह डोला उठता है और मटिहानी के विष्णु-मंदिर में जाकर विश्राम लेता है। फिर पाँचवें दिन (चौठ) को यह डोला सारे दिन भ्रमण करते हुए मार्ग में जलेश्वर महादेव की शरण में विश्राम लेता है।

छठे दिन ( पंचमी ) को यह डोला जलेश्वर से उठ आकर मार्ग में कीर्तन भजन आदि करते हुए मड़ई पहुँचता है जहाँ माण्डव्य ऋषि का आश्रम है। सातवें दिन (षष्ठी) को यह डोला उठ कर अपनी अगली यात्रा पर विदा होता है और रात्रि में ध्रुव-कुंड के निकट ध्रुव मंदिर के पास विश्राम लेता है। तत्पश्चात आठवें दिन (सप्तमी) को यह डोला उठ कर जनकपुर के निकट के कंचन-वन में विश्राम लेता है जहाँ श्री किशोरी जी की रास स्थली मानी जाती है। यहाँ रात्रि भर बहुत सुन्दर उत्सव आदि होते रहते हैं और भजन-कीर्तन अनवरत चलता रहता है। नौमे दिन (अष्ट्मी ) को यह डोला कंचन वन से विदा लेते हुए पर्वत में विश्राम करता है जहाँ पाँच पवित्र पहाड़ों का दर्शन होता है। तत्पश्चात दसवें दिन (नवमी) को यह डोला पवित्र धनुषा-धाम को पहुँचता है जहाँ शिव जी के टूटे हुए पिनाक धनुष का मध्य भाग रखा हुआ है।

पुनः ग्यारहवें दिन(दशमी), यह डोला सतोखरि में विश्राम लेता है जहाँ सात कुंड एक साथ हैं। फिर बारहवें दिन(एकादशी), सतोखरि से चलकर यह डोला औराही फिर तेरहवें दिन वहाँ से करुणा और चौदहवें दिन (त्रियोदशी ) को बिसौल में जाकर विश्राम लेता है जहाँ श्री विश्वामित्र जी का मंदिर है। अंत में बिसौल से होते हुए पन्द्रहवें दिन (चतुर्दशी ), ये डोला जनकपुर पहुँचता है और वहाँ श्री किशोरी जी के दर्शन के पश्चात यह परिक्रमा समाप्त मानी जाती है ।

इस पूरे यात्रा के दौरान श्री मिथिला बिहारी और जनक दुलारी जी के डोले को बहुत खूबसूरती से सजाया जाता है और एक बड़े ध्वज के साथ एक मजबूत मंच पर रखा जाता है, जिसके चारों ओर भजन और कीर्तन करते हुए यात्रा और विश्राम किया जाता है। भारत और नेपाल से आये हुए सन्यासियों और श्रद्धालुओं के भजन-कीर्तन आदि से पूरे पंद्रह दिनों तक दिवारात्रौ बस ईश्वर अनुराग की ध्वजा लहराती रहती है। श्री किशोरी जी और श्री दुल्हा जी के नाम का जय जय घोष, सम्पूर्ण मिथिला को पावन कर देता है।तत्पश्चात जब यह डोला जनकपुर पहुँचता है तो वहाँ यह जनकपुर की अंतर्गृही परिक्रमा के साथ जुड़ जाते हैं।

लघु (अंतर्गृही) परिक्रमा :
यह परिक्रमा फागुन पूर्णिमा के दिन की जाती है जिसके अंतर्गत जनकपुर नगर के चारों ओर लगभग आठ किलोमीटर तक भ्रमण किया जाता है और जनकपुर नगरी की प्रदक्षिणा की जाती है। इस परिक्रमा में डोला को घूमने के लिए एक पथ बना हुआ है।

इस परिक्रमा के अंतर्गत कदम्ब चौक हनुमान मंदिर से गंगा सागर में स्नान कर भ्रमण प्रारम्भ करते हैं और इस सर में स्नान करने के बाद सभी भक्त अपने मिथिला बिहारी के डोले के साथ कदम्ब चौक जाते हैं। फिर वहाँ से परिक्रमा पथ के सहारे मुरली चौक होते हुए, ज्ञानकूप, विहार कुंड, पापमोचनी सर आदि की परिक्रमा करते हुए पुनः उसी स्थान पर गंगा सागर के निकट पहुँच जाते हैं।

जहाँ बात नेपाल स्थित मूल श्री जानकी मंदिर की आती है तो, इस स्थल का इस परिक्रमा में बहुत बड़ा स्थान है।अतः आइए इस परिक्रमा के क्रम में मिथिला की इस प्राचीन और प्राकट्य मूल धरोहर की चर्चा भी कर लेते हैं।
श्री जानकी-मंदिर (जनकपुरधाम,नेपाल) श्री जानकी-मंदिर के विस्तार और महल-विन्यास की अलग ही कथा है।

आज के युग में प्रसिद्द ये जानकी मंदिर, जनकपुर ही नहीं सम्पूर्ण मिथिला और नेपाल राष्ट्र के लिए एक गौरव स्तम्भ बन कर उभरा है। इस मंदिर को श्री किशोरीजी का साक्षात् निवास-स्थल माना जाता है। मान्यता के अनुसार इस मंदिर का प्रधान गर्भ-गृह श्री किशोरी जी का कोहबर है और वहाँ नित्य श्री दूल्हा-दुल्हन सरकार विराजते हैं। इस धारणा के पीछे मंदिर के संस्थापक और प्रथम महंत श्री बाबा सूरकिशोर दास जी की एक अद्भुत लीला का विवरण मिलता है।

जैसा कि कथाओं में वर्णित है, एक बार बाबा ने सोचा कि बेटी की ससुराल जा कर उससे मिल आऊँ। ऐसा सोच कर बाबा अयोध्या की ओर प्रस्थान कर गए।भक्त का भाव देख कर श्री किशोरी जी, श्री दुलहा जी के साथ बाबा के दर्शन को गईं और उनसे नगर प्रवेश का निवेदन भी किया।किन्तु बाबा ने करुणा-पूरित शब्दों में मना करते हुए समझाया कि बेटीकी ससुराल में जा कर रहना मर्यादोचित नहीं है।उनके निर्मल वचनों से रीझे हुए श्री दुलहा सरकार ने उनसे कोई वरदान माँगने का निवेदन किया। तब बाबा जी ने हाथ जोड़ कर श्री दुलहा जी से कहा कि हमारे यहाँ बेटी और जमाता को देने की परंपरा है और जमाता से कुछ लिया नहीं जाता। मैं इतना ही चाहता हूँ कि आप मेरी पुत्री के साथ नित्य मुझे दर्शन देते रहें।बाबा के ऐसे सहज और प्रेम अनुरक्त वचन सुन कर श्री किशोरी जी ने उन्हें वचन दिया कि वो नित्य श्री दुलहा के साथ जनकपुर स्थित कोहबर में स्थापित मूर्ति में ही विराजमान रहेंगी।

इस कथा को सुन कर केवल मिथिला ही नहीं विश्व के कोने-कोने से भक्त और श्रद्धालु दर्शन औरकामना पूर्ति हेतु मंदिर पधारने लगे। इसी क्रम में वर्तमान वृहत महल की स्थापना का श्रेय टीकमगढ़ (भारत) की तत्कालीन महारानी वृषभानकुअँरि जी को जाता है। कथा के अनुसार महारानी ने पुत्र प्राप्ति की कामना हेतु “श्री कनक-भवन” (अयोध्या, भारत) का पुनर्निर्माण करवाया था। किन्तु तब भी उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति नहीं हुई।तब श्री गुरु महाराज की आज्ञा पर उन्होंने 1895 ईस्वी के आस-पास श्री जानकी मंदिर के निर्माण की नींव ली जिसके लिए नौ लाख रुपयों का संकल्प लिया गया। इसलिए इस मंदिर को नौलखा मंदिर भी कहते हैं। हालाँकि इसके विन्यास और विस्तार को सिद्ध करने हेतु निर्माण में संकल्प से कहीं अधिक प्रयास किया गया और लगभग बारह वर्षों के कठिन श्रम के बाद मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। संकल्प के एक वर्ष के पश्चात ही महारानी जी को पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई किन्तु उनके जीवन काल में ये मंदिर संपन्न नहीं हो पाया और इसको पूर्ण करने का दायित्व उनकी छोटी बहन श्री नरेंद्र कुमारी ने पूर्ण किया। गर्भगृह के निर्माण के पश्चात मूर्ति की स्थापना लगभग 1911 ईस्वीमें कर दी गई थी।

श्री किशोरी जी को समर्पित यह मंदिर जनकपुरमुख्य बाजार के उत्तर-पश्चिम में अवस्थित है। यह मंदिर हिन्दू-राजपूत नेपाली शिल्पकला का एक अच्छा मिश्रण है और इसमें प्रयुक्त स्थापत्य-कला मुग़ल शैली की है। जैसा की विवरण है यह मंदिर एक व्यापक महल और राज-दरबार की भांति विशाल और विराट स्वरूप में निर्मित किया गया है।मंदिर का निर्माण बड़ा रोचक है जिसमें बीच में मंदिर के गर्भगृह का भवन है और उसके चारों और विशाल दीवारों से घिरे भवनों की एक श्रृंखला है जिसके दो मुख्य द्वार हैं।

मंदिर के चारों कोनों पर बने स्तम्भ एकदम एक जैसे हैं जो स्थापत्य कला का एक अलग ही नमूना है।यह एक तीन-मंजिले महल के रूप में विक्सित किया गया है जिसमें सफेद पत्थर और संगमरमर का प्रयोग किया गया है और मंदिर का यथा संभव बाह्य रंग भी सफेद ही रखा गया है जिसमें जो शांति और समृद्धि को दर्शाता है। पुनः साज सज्जा और भव्यता बनाए रखने के लिए केसरिया, पीला , हरा और नीला रंग भी प्रयुक्त हुआ है जो मुंडेरों और मेहराबों को भव्य और आकर्षक बनाता है। साथ ही भांति-भांति की चित्रकला और नक्काशी भी दिखाई देती है जो श्री किशोरी जी के ऐश्वर्या का प्रतीक है। मंदिर की ऊंचाई लगभग 70-75 मीटर की है और इसका क्षेत्रफल लगभग 4860 वर्गफीट का है।

मंदिर में गर्भगृह के अतिरिक्त लगभग साठ कमरे हैं जिन्हें बहुत सुन्दर और कलात्मक ढंग से सुसज्जित किया गया है। इनमें रंग-बिरंगे काँच, भव्य स्थायी जालीदार पर्दे और जालीदार खिड़कियों का प्रयोग किया गया है।जानकी मंदिर प्रांगण में प्रवेश के लिए तीन विशाल द्वार हैं जो क्रमशः पूरब, दक्षिण और उत्तर दिशा से हैं। प्रांगण में घुसाने के पश्चात मंदिर के वाम भाग या पिछले भाग में विवाह मंडप आदि है और मंडप के सन्मुख प्रांगण में एक विशाल फव्वारा भी है जो इसकी सुंदरता को और भी निखरता है। मुख्य मंदिर में प्रवेश हेतु पाँच द्वार हैं जिनमें दो प्रमुख द्वार हैं और तीन छोटे–छोटे द्वार हैं। दोनों प्रमुख द्वार लगभग ३०-३० फीट की ऊंचाई के हैं और द्वार की संरचना और नक्काशी बहुत उत्तम कोटि की है। पहला द्वार जो मंदिर के गर्भगृह के ठीक सामने है वो बहुत विशाल और भव्य है और वही मुख्य प्रवेश द्वार भी है जहाँ से हर दिन हजारों की संख्याँ में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं।

किन्तु श्री किशोरी जी का दरबार है ऐसा मानकर उनके निजी सेवक और भक्त गर्भगृह के बाएँ और लगे सिंहद्वार से प्रवेश करना ज्यादा उचित मानते हैं। उस द्वार के ऊपर सिंह की मूर्तियाँ बनी हैं जो द्वार की सुंदरता और भव्यता को चार चाँद लगा देते हैं। ये द्वार पीछे वाला द्वार मना जाता है और यही विवाह मंडप आदि से मंदिर के गर्भगृह को जोड़ता है। इसके अतिरिक्त तीन छोटे -छोटे द्वार हैं जिनमें एक मुख्य गर्भगृह के पीछे अवस्थित जनक-मंदिर के पीछे से है, दूसरा द्वार मंदिर के रसोई-घर के दक्षिण से है और तीसरा द्वार श्री संकीर्तन कुञ्ज के पीछे उत्तर दिशा से है।

श्री कोहबर:(गर्भगृह):
मंदिर में प्रवेश करने के बाद सर्वप्रथम श्री कोहबर (मंदिर के गर्भगृह ) के दर्शन होते हैं जहाँ श्री किशोरी जी, श्री दुलहा जी, श्री लखन लाल और चारों दुल्हा-दुल्हिन सरकार की प्रतिमाएं स्थापित हैं।यह गर्भगृह पूरब दिशा की ओर है।श्री सूरकिशोर बाबा को प्राप्त हुए विग्रह भी यहीं स्थापित हैं। इस झांकी के अन्तः भाग में श्री युगल सरकार के विशेष कोहबर की सेवा की जाती है जो गोपनीय है। ऐसा मना जाता है कि भक्तों को दर्शन देने के बाद प्रभु इसी अन्तः गृह में विश्राम करते हैं। गर्भगृह को कोहबर कहने का एक विशेष कारण है मैथिल संस्कृति, जिसके अंतर्गत किसी नव-विवाहित जोड़े के शयन कक्ष को “कोहबर” कहा जाता है।

मान्यताओं के अनुसार श्री किशोरी जी और श्री रघुनाथजी आज भी नव दुल्हा-दुल्हन के स्वरूप में ही विराजते हैं अतः उनका मंदिर कोहबर नाम से प्रसिद्द है। इस कोहबर में प्रतिष्ठित दरबार की झाँकी को एक निश्चित ऊंचाई पर व्यवस्थित किया गया है जिससे सूर्योदय की किरणें सर्वप्रथम श्री दुल्हा सरकार की सेवा में ही उपस्थित होती हैं।

यहाँ मिथिलावासियों के लिए मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह कोई भगवान् नहीं अपितु उनके बहन-बहनोई हैं। इस मंदिर में प्रार्थना, याचना या मनोकामना नहीं की जाती अपितु अपनी किशोरी जी से विमर्श किये जाते हैं, उनके आदेश लिए जाते हैं, उनका मान किया जाता है।

श्री पाकशाला:
मंदिर में दर्शन के पश्चात ७ बार या चार बार परिक्रमा का विधान है और उसी परिक्रमा के क्रम में बाएं और (मंदिर के दक्षिण में ) श्री किशोरी जी की रसोई है जहाँ नित्य भोग आदि पकाया जाता है और भंडारे हेतु सम्पूर्ण व्यवस्था होती है। किन्तु इस भाग में सामान्य प्रवेश वर्जित है।

श्री जानकी विद्युतीयचलचित्र संग्रहालय :
पाकशाला के बाद दक्षिणी कोण में हाल ही में 2012 ईस्वी में श्री जानकी संग्रहालय बनाया गया है जिसके अंतर्गत मंदिर के प्रारम्भ से लेकर अब तक के इतिहास से सम्बंधितवस्तुएं, चित्र, वस्त्र-आभूषण, श्रृंगार आदि की सामग्रियों और मंदिर के महंत परंपरा के संतों और महंतों से सम्बंधित अभिलेख, चित्रपट और चित्र संकलन आदि लगाए गए हैं। इसके अतिरिक्त रामायण काल की हुई कुछ घटनाओं और संस्कृतियों को दर्शाने के लिए हाईड्रोलिकसिस्टम, ध्वनि और विद्युत् के माध्यम से कई झांकियों का निर्माण किया गया है जो श्री किशोरी जी के जन्म से ले कर विवाह आदि के समस्त घटना-क्रमों का वर्णन करता है। ये भाग भी दर्शनीय और ज्ञान वर्धक है। मंदिर में अंदर ही अंदर सभी भाग आपस में जुड़े हुए हैं और महल की अट्टालिकाएं दर्शनार्थियों का मन अपनी और खींचती हैं।

अन्य -मंदिर :
मंदिर के गर्भगृह के ठीक पीछे जनक महाराजऔर अम्बासुनैनाका मंदिर है जिसमें श्री सूरकिशोर बाबा को प्राप्त हुई शिलाएं, अभिलेख आदि भी स्थापित हैं।जनक मंदिर से पूर्व श्री बाल-हनुमाना जी का मंदिर भी है जहाँ नित्य प्रति उनकी सेवा होती है।ये छोटे-छोटे मंदिर मिथिला की संस्कृति में परिवार परम्परा को भलीभांति दर्शाते हैं।यहाँ मात्र भगवान्ही नहीं अपितु उनका समस्त परिवारनिवास करता है ।

कोठार-गृह:
परिक्रमा के क्रम में आगे कोठार-गृह मिलता है जिसमें मंदिर से सम्बंधित अभिलेख,धर्म-ग्रन्थ से जुड़े अभिलेख, विभिन्न प्रकार के ग्रन्थ आदि की व्यवस्था की गई है।

शालिग्राम-मंदिर :
परिक्रमा के क्रम में मंदिर के उत्तरी भाग में श्री शालिग्राम भगवान का मंदिर भी है जिसमे लगभग सवा लाख (१२५०००) शालिग्राम स्थापित हैं और उनकी नित्य पूजा-अर्चना की जाती है।

अखंड नाम-संकीर्तन स्थली :
पाठ्यक्रम करते हुए मुख मंदिर के उत्तरी भाग में श्री सीताराम नाम का अखंड संकीर्तन स्थल है जहाँ लगभग 1961 ईस्वी से अखंड श्री सीताराम नाम संकीर्तन चल रहा है। ये स्थल भी दर्शनीय है।

इस प्रकार परिक्रमा के पश्चात मंदिर से नीचे उतरते ही उत्तर की और पीछे वाले द्वार से सटे हुए भाग में श्री जनक-परंपरा के तत्कालीन विदेह महाराज का निवास स्थल है जहाँ से वह मंदिर और उसकी व्यवस्था का संचालन करते हैं।

विवाह मंडप -फुलवारी :
जानकी मंदिर के पिछले हिस्से मेंपश्चिमोत्तर कोण में एक बहुत ही सुन्दर उद्यान है जिसे फुलवारी कहते हैं। इस फुलवारी के मध्य में एक विशाल मंडप है जो नवीन विवाह मंडप के नाम से प्रसिद्द है। मान्यता के अनुसार इस स्थल पर श्री किशोरी जी और श्री दुल्हा जी का विवाह संपन्न हुआ था। इस मंडप के मध्य में श्री किशोरी जी -दुल्हा जी की प्रतिमा हैं जो गणपति-स्थापना के संग विवाह-वेदी पर बैठी हैं और उनके दोनों और चारुशीला और चन्द्रकला सखियों की प्रतिमाएं हैं।

श्री किशोरी जी की तरफ वेदी के एक ओर श्री जनक जी, अम्बासुनैना, महाराज श्रुतिकीरत और गुरुदेव शतानन्द आदि हैं तो वहीँ दुल्हा जी की तरफ वेदी के दूसरे ओर श्री दशरथ जी , वशिष्ठ जी, विश्वामित्र जी आदि विराजमान हैं। पीछे श्री किशोरी जी के भाई-भावज श्री लक्ष्मीनिधि जी और श्री निधि जी खड़े हैं।इसमंडप का निर्माण नेपाल की पैगोडा शैली में किया गया है और इसके अंदर सभी स्तम्भों पर विवाह में उपस्थित देवताओं आदि की मूर्तियां बनाई गई हैं ।

इस मंडप में स्थापित सभी मूर्तियों की संख्याँलगभग108 हैं। इसे चारों ओर से काँच की दीवार से घेर दिया गया है जिसके कारण इसे शीश-महल भी कहते हैं। इस मंडप के चारों कोनों पर चारों दुल्हा-दुल्हिन सरकार की युगल मूर्तियां स्थापित हैं जिनमें बायीं ओर से श्री राम-जानकी कोहबर, फिर अगले कोने पर श्री भरत-मांडवीकोहबर, तीसरे कोने पर श्री लक्ष्मण-उर्मिलाकोहबर और चौथे कोने पर श्री शत्रुघ्न-श्रुतिकीर्तिकोहबर विराजमान हैं।

मंडप से उतारकर फुलवारी के दूसरे भाग में जनक -परंपरा के कुछ प्रसिद्द महंतों की मूर्तियां स्थापित हैं जो उद्द्यान की शोभा को और भी बढ़ा देती हैं।

श्री लक्ष्मण-मंदिर:
मंदिर के बाह्य परिसर में श्री लखन-लाल जी का मंदिर है जो नेपाल महाराज द्वारा बनवाया गया है। मान्यता अनुसार ये श्री जानकी मंदिर से भी पुरानाहै।

इन सबके अतिरिक्त श्री जानकी मंदिर के कण-कण में विराजने वाली सौम्यता और दिव्यता को वर्णन करने से नहीं समझा जा सकता इसके लिए तो दर्शन करना ही उत्तम मार्ग है।

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