मैथिलकायस्थ: एक अध्ययन

November 15, 2022 इतिहास विनयानन्द झा
मैथिलकायस्थ: एक अध्ययन

मिथिला में सामान्यतः ऐसी मान्यता है कि यहाँ पाए जानेवाले कर्ण/करण कायस्थ कर्णाटक से आए। इस मत के अनुसार मिथिला में कर्णाट वंश के संस्थापक नान्यदेव (1097 ई.) के साथ आनेवालों में मंत्री श्रीधर और उनके अन्य बारह सगे संबंधी थे।इन तेरह को कालान्तर में कर्ण कायस्थों की पंजी में प्रथम स्थान पर रखा गया। कर्णकायस्थों की पंजी संबंधी जनश्रुतियों के अनुसार मिथिला में कर्णाट शासनकाल में हरिसिंहदेव से पूर्व ऐसे चार आव्रजन कायस्थों के दक्षिण भारत से हुए। दूसरी बार कहा जाता है कि बीस परिवार आए जिसे पंजी में द्वितीय श्रेणी में रखा गया। इसी प्रकार तीसरे आव्रजन में तीस और चौथे में अस्सी परिवारों का आगमन हुआ जो पंजी में क्रमशः तीसरी और चौथी श्रेणी में वर्गीकृत हैं  ( रास बिहारी लाल दास कृत मिथिला दर्पण, पृ.225-26,कल्याणी फाउंडेशन, दरभंगा, प्रकाशन )

कालान्तर में इन्हीं परिवारों का जो विस्तार हुआ अथवा कुछ अन्य आव्रजन भी हुए हों जिस कारण कायस्थों की पंजी में 312 से लेकर 573 वंशों (मूलों) के उल्लेख कर्ण कायस्थों की पंजी पर लिखनेवालों ने किए हैं।

सामान्यतः कहा जाता है कि जो कायस्थ कर्णाटक(एवं/या दक्षिण भारत) से आए वे कर्ण या करण कायस्थ कहलाए। गोविंद झा ने कर्ण कायस्थों की उत्पत्ति को इससे भिन्न माना है।उन्होंने कर्ण शब्द को करण माना है जिसका अर्थ होता है “कचहरी”।अर्थात कचहरी में कार्य करने वाले कायस्थगण करण/कर्ण कायस्थ कहलाए (गोविंद झा, अतीतालोक, पृ.28)।कचहरी शब्द एक व्यापक संदर्भ में प्रयुक्त होता है।राजकीय उच्चतम न्यायालय से लेकर जमीन्दारों और छोटे बड़े भूपतियों की जो भूसम्पदा विभिन्न गाँवों में होती थीं उसकी देख रेख हेतु उन गाँवों में उनके घरों को कचहरी कहा जाता था।प्रत्येक ऐसे स्थान पर अथवा अधिकांश ऐसे स्थानों पर आय व्यय आदि का हिसाब रखने के लिए कायस्थगण नियुक्त होते थे।

मिथिला दर्पण के अनुसार जो कायस्थ कर्णाटक के जिस गाँव से आए वही उनका मूल हुआ (पृ.226-28)। लेकिन प्रस्तुत लेखक इस मत से सहमत नहीं है क्योंकि उनके मूलों में कई ऐसे नाम हैं जिस नाम के गाँव मिथिला में भी पाए जाते हैं। यथा, बलाइन, केउटी, बनौली, पोखराम, सीबा, अहपुर, खड़का, गंगौली, छतवन, झंझारपुर, तेघरा, दीप, नवहथ, परसा, पिपरा, पिपरौनी, बड़ियाम (बढ़ियाम?),बिहनगर, बेता, भिट्ठी, मझौरा, महिसी, राघोपुर, लवानी, लोआम, सिमरी, सुपौल, सोनबेहट, सोहराय, हाटी, हावी  इत्यादि।

मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों के समान मूलों का उल्लेख करते हुए विनोद बिहारी वर्मा ने ऐसे 23 मूलों का वर्णन किया है ( मैथिल करण कायस्थक पाँजिक सर्वेक्षण, पृ.49 )।

लेकिन इस आधार पर करण कायस्थों की कर्णाट उत्पत्ति संबंधी मान्यता को सर्वथा अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है। कर्ण कायस्थों के अधिकांश मूल मैथिल या मिथिला उत्पत्ति के नहीं कहे जा सकते हैं। उन गैर मैथिल उत्पत्ति वाले मूलों में सभी को कर्णाट या दक्षिण भारतीय उत्पत्ति पर संदेह व्यक्त किया जा सकता है।

जहाँ तक कर्णाट उत्पत्ति का प्रश्न है उस पर आपत्ति की जा सकती है। मिथिला दर्पण के अनुसार नान्यदेव के मंत्री श्रीधर का दूसरा नाम लक्ष्मीकर था जो बलाइन मूल के संस्थापक भी थे। असमिया जनश्रुति के अनुसार बलाइन मूल के लक्ष्मीकर ठक्कुर प्रसिद्ध श्रीधर के अति अति वृद्ध प्रपितामह टंकपाणिपाल वंशी राजा धर्मपाल के आश्रित थे। टंकपाणि के पिता का नाम मंग्यदास था। धर्मपाल ने टंकपाणि को तीरभुक्ति का “प्रधान लेख्य”नियुक्त किया। तिब्बती स्रोत के अनुसार टंकपाणि के पुत्र चक्रपाणि एक साधक थे। श्रीधर के पिता राज्यधर असमिया जनश्रुति के अनुसार पालवंश की शक्ति क्षीण होने पर कूच बिहार के स्वतंत्र शासक बन गए। राज्यधर के बाद उनके पुत्र श्रीधर को कामरूप के के राजा ब्रह्मपाल ने “सामन्त राजा” की उपाधि दी।

मिथिला दर्पण ने इसी श्रीधर (लक्ष्मीकर) के नान्यदेव के साथ कर्णाटक से आगमन, उनका मंत्री और उनके कर्णाट गाँव बलाइन के नाम पर बलाइन मूल का संस्थापक कहा है। कुछ अन्य के अनुसार बलाइन मूल के संस्थापक श्रीधर प्रसिद्ध लक्ष्मीकर नान्यदेव से तीन पीढ़ी ऊपर हुए। उनके प्रपौत्र देवधर भी श्रीधर नाम से ज्ञात थे अतः वही नान्यदेव के मंत्री रहे होंगे। इस आलोक मेबलाइन को कर्णाटक से जोड़ना उपयुक्त नहीं होगा जबकि श्रीधर (लक्ष्मीकर)से सात पीढ़ी ऊपर के मंग्यदास असमिया जनश्रुति में मैथिल माने जाते हैं और उनके वंशज असम, बंगाल और मिथिला में कहे जाते हैं।

ऐसा कहा जा सकता है कि नान्यदेव के पूर्व कर्ण/करण कायस्थ मिथिला में थे । कुछ उनके साथ और कुछ उनके बाद दक्षिण और मध्य भारत, असम और बंगाल आदि से भी यहाँ आते रहे। जिनके पूर्वज हरिसिंह देव काल नान्यदेव से प्राचीन थे उनके मूल यहाँ के गाँवों के नाम पर बने,जैसा कि ऊपर दर्शाया जा चुका है। हरिसिंहदेवक काल में जिनके पूर्वज अपेक्षाकृत नवीन थे उनके मूल मैथिलेतर क्षेत्र के पाए जाते हैं। लेकिन सभी मैथिलेतर नामों पर बने मूलों को कर्णाटक से जोड़ना उचित नहीं होगा । करण और कर्ण दोनों शब्द प्रचलित होने के कारण तथा मिथिला में कर्णाट वंश के पंजी काल में शासन होने से भ्रमवश कालान्तर में यह प्रसिद्ध हो गया होगा कि कर्ण कायस्थ कर्णाट उत्पत्ति के हैं।

(विनयानन्द झा लिखित अप्रकाशित पुस्तक “मिथिला के सामाजिक इतिहास में पंजीकरण का प्रभाव” के आठवें अध्याय के अंश।)

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