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जानकी नवमी विशिष्ट व्याख्यान 2021 : श्री राम माधव

नमस्कार!
मेरा परिचय करते समय मेरे नाम के दो शब्दों का उपयोग किया गया| तो मैं मेरे व्याख्यान में प्रयास करूंगा जहाँ मैं जनक राजकुमारी की बात करूँ, वहां मैं पांचाल राजकुमारी का भी जिक्र करूँ| सबसे पहले जानकी नवमी के शुभ अवसर पर मैं आप सभी को ह्रदय से शुभकामनाएं देना चाहता हूँ|

आज इस जानकी नवमी के शुभ अवसर पर मां जानकी के व्यक्तित्व पर चर्चा-विमर्श करने के लिए इस कार्यक्रम का आयोजन हुआ है| आज मिथिला की बेटी भारत के स्त्रीत्व के प्रतीक के रूप में विद्यमान है| मां सीता को इतिहास में अनेक लोगों ने,अनेक विद्वानों ने उन्हें अनेक ढंग से देखने का प्रयास किया| किसी ने उन्हें व्यक्तित्व के आधार पर राम की अच्छी पत्नी और पतिव्रता के रूप में देखा| किसी उनको अबला कहा| किसी के लिए वह एक सुदृढ़ व्यक्तित्व थीं तो किसी के लिए फेमिनिस्ट| किसी ने उनके शक्ति के लिए उनकी माता पृथ्वी के समतुल्य रखा| जानकी के निमित्त अनेक व्याख्यान हमें देखने और सुनने को मिलते हैं| आज इस चर्च में हम ये जानने का प्रयास करेंगे की सीता कौन है?इसे किस दृष्टिकोण से देखना चाहिए?मैं एक दृष्टिकोण रखने का प्रयास करता हूँ! माँ जानकी भारतीय इतिहास के हजारों वर्षों में स्त्रीत्व के मूल्य के प्रतीक के रूप में आज भी हमारे सामने विद्यमान हैं| इस मूल्य को मैं सीतत्व कहता हूँ| “It is Sitahood that we should understand! It is Jankihood that we should understand!”

जब हम womanhood की बात करते हैं तो यह Sitahood है| यह Panchalihood है| यह Draupdihood है| इस जानकीत्व, सीतत्व,द्रोपदीत्व को समझने का प्रयास वर्तमान समाज को करना चाहिए| क्योंकि इतिहास के कालक्रम में मूल्य बदलते गए, और सामाजिक institutions के हाथों सामाजिक अनुशंसा के आधार पर morals बनते गए, नीतियाँ बनती गयी| इस तरह हम मूल्य के अपनी समझ और श्रद्धा को खोते गए| जानकीत्व, सीतत्व का महत्व उस बात में है| स्त्रियों के लिए जो सनातन मूल्य की दृष्टि है उस पर आज हम विचार करेंगे| त्रेतायुग की जब बात आती है तो कहा जाता है कि तब सब कुछ धर्म के आधार पर चलता था| यानी ना कोइ दंड देने को राजा था ना कोई गलत करने वाला प्रजा| सब का रास्ता धर्म का था| ना तो कोई धर्म का implemention करने वाला था ना कोई तोड़ने वाला| लेकिन उस समय स्त्री का महत्व पुरुष के समान था| पुरुष और महिला मिलकर एक पूर्णता होती है| जैसे प्राचीन चीन में जिन-यांग की परिकल्पना होती है, वैसे ही यहाँ पुरुष और महिला के साथ समग्रता की मान्यता रही है|हमारे वेद में 30 से अधिक महिलाओं का नाम आया है जिन्होंने अपना सहयोग दिया| वैदिक काल की एक स्त्री वाक् ने तो यहाँ तक कहा है कि-“ मैं ही इस राष्ट्र की सेवा करती हूँ| कोई भी वैदिक देवता यथा ब्रम्हा,विष्णु महेश को स्त्री शक्ति के बिना नहीं दिखाया गया है| वैदिक काल में कोई भी रिचुअल बिना स्त्री के पूरा नहीं होता था| सांख्य दर्शन में तो स्त्री और पुरुष को ही अंतिम सत्य माना गया है|

जब सीता का युग आता है जिसे त्रेतायुग माना गया है| त्रेता युग में पूर्व के धर्म के व्यवहार का तरीका बदल गया| स्त्री के सामाजिक स्थिति में ह्रास हो गया| यहाँ तो राम हमेशा सीता से जान छुडाते दिखते हैं| लेकिन सीता ने महलों में नहीं रही, पुरुष के साथ रहना ही सनातन धर्म है इसिलिए सीता महलों में ना रही। फिर जब रावण को जीत लिया राम ने फिर सीता को साथ रखने से मना कर दिया। उन्होंने बोला कि मैंने रावण को तुम्हारे लिए नहीं धर्म के लिए मारा। तो सीता ने राम से कहा कि जिसे तुम धर्म कहते हो वो ये काल धर्म है, युग धर्म है शाश्वत नहीं है। इस धर्म का निर्धारण कुछ सोसिअल institution ने निर्धारित किया है इस मोरल्स का निर्धारण किया है समाज के institution ने। लेकिन शाश्वत धर्म morals पर, सामाजिक नैतिकता पर नहीं चलते।

मित्रों हमारे सनातन संस्कृति में हमने मूल्यों को morals के ऊपर का दर्ज़ा दिया। morals चाहिये क्योंकि सामान्य व्यक्ति मूल्य को नहीं समझ सकते, लेकिन सीता राम से कहती हैं तुम तो सामान्य नहीं। सीता को राम ने दुबारा कहा कि तब जब मैंने तुम्हारा परीक्षा लंका युद्ध के बाद लिया था तब मुझे नैतिक मूल्य का पालन करना था अब मुझे राजधर्म का पालन करना है इसीलिए तुम चले जाओ। तब सीता का राम से प्रत्यक्ष बात नहीं हो पाती, क्योँकि राम ख़ुद सीता को ये कहने की हिम्म्त नहीं कर पाते और लक्ष्मण के साथ रथ से सरयु के किनारे भेज देते हैं। वहाँ जा लक्ष्मण कहते हैं कि ये मेरे भाई का आदेश है कि राजधर्म के पालन को आपका परित्याग करना है। लेकिन सीता मौन रहती है कि लक्ष्मण को क्या समझाना, उससे क्या विवाद करना।

लेकिन सीता जब दूसरी बार प्रवास में जाती है तो सीतत्व क्या होता है, वो value, महिला की dignity का value क्या होता है? महिला की शक्ति का value क्या होता है इसका परिचय लव-कुश के रूप में देती है सीता। इसीलिए जब राम को पता चलता है कि लव-कुश इतने पराक्रमी और इतने संपूर्ण समपन्न, इतने पढ़ें लिखे, इतने योग्य उन्हें आश्चर्य लगता है कि बनाया किसने इसे? इसे सीता ने बनाया। संत महात्मा ॠषि सब लगे थे एक छोटे से बालक राम को, राम विग्रहवान धर्म: और मर्यादपुरुषोत्तम राम बनाने में और लव-कुश को राम की तरह योग्य पुरुष बनाने का कार्य अकेली सीता ने किया था। अनादि काल में जिस रूप को हमारे वेद्कारों ,संत, ॠषि, महात्माओं ने समझा था उसका जीता-जागता परिचय दिया सीता ने।
इसलिए मित्रों मैं कहता हूँ कि रामो विग्रह्वान धर्म: का जो परिचय है राम का, इसे राम के दूसरे परिचय मर्यादा पुरुषोत्तम के साथ जोड़ कर समझना चाहिये। राम का जो धर्म की बात है इसे विग्रहवान धर्म कहते हैं ये धर्म युग धर्म था। युग धर्म जो त्रेतायुग का धर्म था उसके विग्रहवान धर्म थे। वे मर्यादपुरुषोत्तम थे। लेकिन ये मर्यादा तय किसने किया था? ये मर्यादाएं जिसे हम नीति कहते हैं हमारा समाज तय करता है| जहाँ तक सीता की बात हैं वे विग्रहवान मूल्य हैं| मैं कहता हूँ जहाँ राम विग्रहवान धर्म हैं वहीँ सीता को विग्रहवान मूल्य माना जाना चाहिए| मित्रों! जब सीता को समझते हैं ना इस बात का ध्यान रखना, अनैतिक तो नहीं बनना लेकिन नैतिकता के परे भी कुछ मूल्य होते हैं| समाज में नैतिकता के परे जो मूल्य होते हैं ना उन मूल्यों का निर्वाह विद्वान लोगों को करना चाहिए| सीता उन सनातन मूल्यों की प्रतिक थीं| जहाँ महिलाओं की सम्मान का प्रश्न होता था, महिला जैसे त्रेतायुग आते-आते शोषक वर्ग बन गयी| तब कोई राजधर्म, नैतिक धर्म के नाम पर भी छोड़ सकता था| सतयुग में तो स्त्री के बिना पुरुष की पूर्णता थी ही नहीं| सीता उस पूर्णता का परिचय राम को भी दे रही थी और राम के रूप में अन्य को भी दे रही थी| त्रेता के बाद जैसे ही द्वापरयुग आया इस मूल्य का और क्षरण हुआ| द्वापर में तो स्त्री commodity बन गयी जो आज भी चल रहा है| द्रोपदी को शर्त में लगा दिया गया कि मैं पत्नी को बेच भी सकता हूँ| फिर कृष्ण को उतरना पड़ा महिला के dignity की रक्षा के लिए|

इसीलिए कृष्ण का अवतार राम से भिन्न है, राम सामान्य नैतिक मूल्य के पालन करने वाले के रूप में हैं वहीँ कृष्ण द्वापरयुग में वैदिक सनातन मूल्यों की रक्षा करने वाले एक भगवान के रूप में अपने कर्तव्य का पालन करते हैं| वे द्रोपदी के साथ खड़े होते हैं| कृष्ण की जो दृष्टि विशिष्ट थी वो महिला के व्यक्तित्व को दुनिया के सामने लाना चाहते थे| जब युद्ध टलने का वक्त आता है, जब दुर्योधन पांच ग्राम देने की बात कृष्ण के सामने रखते हैं कि ये गाँव ले कर पांडव रहे| अगर ये बात कृष्ण धर्मराज के सामने रखते तो वो तैयार हो जाते क्योंकि वे तो युद्ध के पक्ष में थे ही नहीं| इसलिए ये बात कृष्ण ने द्रोपदी से कही तो इस पर द्रोपदी ने कहा कि मेरे निर्लज्ज पति ये लेना चाहते हो तो ले लें लेकिन मुझे जब तक दुर्योधन का खून लाकर नहीं दिया जाता तब तक मैं अपना केश नहीं बांधुंगी| द्रोपदी की उस आग्रह के चलते बाद में युद्ध होता है| कृष्ण उस व्यक्तित्व को दुनिया के सामने लाना चाहते थे|

युद्ध विराम के बाद जब शांति पर्व हो रहा था तो युधिष्ठिर के साथ द्रोपदी भीष्म पितामह से मिलने जाती है, भीष्म पितामह बाण शैया पर थे| वे पितामह से धर्म की शिक्षा सीखने जाते हैं| जब द्रोपदी वहां से गुजरती है तो उनकी बात सुनकर हँस देती हैं| किसी वृद्ध के सामने महिलाओं का हँसना वो भी तब, जब वो मृत्यु शैया पर हों हमारे समाज में बुरा माना जाता है| इस पर युधिष्ठिर उन्हें डांटते हुए कहते हैं ये क्या कर रही हो? यहाँ क्यों हँस रही हो? इस पर भीष्म पितामह युधिष्ठिर को रोकते हैं कि द्रोपदी की हँसी जायज है| क्योंकि जब द्रोपदी की साड़ी भरी सभा में खिंची जाती थी उस समय मैं कुछ नहीं कर सका क्योकि मेरा दास धर्म महिला के सम्मान से बड़ा बन गया था| द्रोपदी उस बात पर हँस रही है कि क्या मैं राजधर्म बता सकता हूँ? राजधर्म जो कि इस वर्तमान धर्म से परे है जिसमें महिला सम्मान की बात है उसको सिखाने की योग्यता मेरे में है क्या? इस बात पर वो हँस रही है उसकी हँसी जायज है|

मित्रों सीता और द्रोपदी को हमें इस दृष्टि से देखना चाहिये, जिनके लिए सम्मान और स्वाभिमान सभी नीतियों और कालधर्म से परे है| मैंने पहले भी कहा कि इसका मतलब ये नहीं की अनैतिक हो जाना है| महिला का जो सम्मान है, स्त्रीत्व है उसकी तरफ उपेक्षा नहीं करनी चाहिए| और जब कलयुग में हमने प्रवेश किया है तो उन मूल्यों के क्षरण में हम पराकाष्ठा देखते हैं, जिसमें महिला विलासिता की वस्तु है, एक commodity है|दो extreme परिकल्पनाओं में आज महिलाओं को हमने छोड़ा है| जब जानकी द्रोपदी की याद करते हैं| हमारे लिए दोनों प्रकार के extreme से परे महिलाओं के सम्मान का प्रश्न है| जिसके लिए जानकी और द्रोपदी ने संघर्ष किया था| जिसके लिए उन्हें इतिहास में उच्च स्थान दिया है|इसका मैं एक दो उदाहरण मैं आपको देता हूँ-राजा जनक के दरबार में याज्ञवल्क्य और गार्गी का ब्रम्ह पर संवाद होता है|दोनों मिथिला के हैं| एक समय ऐसा आता है जब याज्ञवल्क्य गार्गी को याद दिलाते हैं कि गार्गी तुम अब प्रश्न पूछने के उस सीमा तक पहुँच गयी हो हो जिसके उपर कोई प्रश्न ही नहीं है, सिर्फ ब्रम्ह है,जिसे महसूस किया जा सकता है|क्या आज हमारे घर में महिलाओं को प्रश्न पूछने का अधिकार है? शंकराचार्य मंडन मिश्र के घर गए| मंडन जानते थे कि शंकराचार्य अद्वैत के प्रकांड विद्वान हैं| मंडन अद्वैत को नहीं मानते थे| शंकराचार्य को पता होता है कि वो शास्त्रार्थ के लिए नहीं तैयार होंगे तो भिक्षा में शास्त्रार्थ मांगते हैं| न्यायमूर्ति के रूप में मंडन की पत्नी भारती बैठती है| मंडन मिश्र हार जाते हैं भारती मानती है कि मंडन मिश्र हार गए| लेकिन भारती शंकराचार्य से कहती हैं कि सिर्फ मेरे पति को हराने से नहीं होगा| इतिहास में लिखा गया है कि काम विद्या पर शास्त्रार्थ होता है| शंकराचार्य तो ब्रम्हचारी थे तो वे कश्मीर के मरे हुए एक राजा के शरीर में प्रवेश करते हैं और उस शरीर से शिक्षा प्राप्त कर भारती देवी से जीतते हैं| हमने ये दर्जा इतिहास में स्त्रियों को दिया है|चर्चा कभी नहीं हुआ कि पति हारा, पत्नी जीती| क्योंकि बात महिलाओं के सम्मान की थी|हमारी संस्कृति में उनको ऊँचा दर्जा दिया गया है|आज इस बात को समझ हमें महिला वर्ग से व्यवहार करना होगा|

पाश्चात्य की बात मैं नहीं कर रहा, उसका मूल्य ही गलत था| होमर का जब इलियड पढ़ते हैं तो वहां हेलेन का जो वर्णन है, वहां वो सच में अबला थी| वो कहती हैं- I’m helpless. मुझे पेरिस राजा के पास जाकर सोना ही पड़ेगा|सेमिटिक साइट्स में इव की जो वर्णन हुई है वो एकदम वर्तमान काल तक आज एक सेमिटिक रिलिजन का व्यक्ति विषम प्राणी ही मानता है जिसने दुनिया को खराब किया| क्या किया इव ने? आदम को एक forbidden फ्रूट खाने के लिए प्रेरित किया| आज तक 2000 वर्ष बाद भी पाप माना जाता है| मूल्य ही गलत था लेकिन हमें इस व्याख्या में नहीं जाना| उस समाज के लिए वो मूल्य थे इसीलिए वहां बहुत बड़ा फेमिनिस्ट आन्दोलन चलाना पड़ा,मूल्य बदलने के लिए आदोलन चलाना पड़ा| जीन एंडरसन,ऑस्ट्रेलियाई फेमिनिस्ट कहती हैं कि-‘ हमारे लिए समस्या यह नहीं है कि महिला सशक्त है कि नहीं है बल्कि पुरुषों को इस बात को मानने के लिए प्रेरित करना यही फेमिनिजम का चैलेंज है|’
पर हमारे यहाँ मूल्य सही है हमने यह माना है की स्त्रीत्व जो है वो ऊँचें दर्जे का है पर समय के साथ हमारे morals और पाश्चात्य morals ने मिलकर जो व्यवस्था का जो निर्माण किया वो morals तो बन गए लेकिन dignifiy नहीं रहे महिला के लिए| मित्रों आज संघर्ष उन dignity का है| कानून अनेक बन सकते हैं बनना भी चाहिए महिलाओं की सुरक्षा कानुन को करना ही है| कानून बनना है पर कानून से परे व्यक्ति को महिलाओं के प्रति सम्मान का अभ्यस्त करवाना पड़ेगा| एक मानसिक दृष्टि देना पडेगा| देखिये! एक शब्द हम बहुत rudely प्रयोग कर लेते हैं हम देखते हैं कि जब कोई पुरुष गलत रास्ते पर होता है तो उसके लिए बोलते हैं कि वो भुवनेंद्र है| भुवनेंद्र क्या होता है? यानि हर महिला के लिए हमारा दृष्टि यही है कि वो पतित है और केवल पुरुष उस पतित महिला को use कर रहा है| सोच में ही ये है कि woman एक infidel प्राणी है और उनके साथ व्यबहार करने वाला भुवनेंद्र है| यह सोच को बदलना होगा, इस शब्दावली को बदलना होगा| तभी जाकर स्त्री को सम्मान का दर्जा मिलेगा| आज हो जाता है पूजा करने की बात| बालिका पूजन होता है| अच्छा है| लेकिन क्या ये rituals है? मैं यहाँ मंच से पूछना चाहता हूँ कि कितनी महिलाएं सोचती हैं कि उनके पति या अन्य पुरुष आ कर उनको पुष्प चढ़कर पूजा करें!

वो वे नहीं चाहते,वे चाहते हैं कि भाई जीवन में सम्मान तो दो, एक तो मुझे विलास की वस्तु के रूप में मत देखो और दूसरा कि मुझे किचन के लिए बंधित व्यक्ति मत बना दो| मुझे एक महिला के रूप में अस्तित्व और उसका सम्मान दो| जानकी पांचाली का जीवन ये कहता है | उस जानकीत्व को उस सीतत्व को हमें हमारे समाज में वापस लाना है| इस जानकी नवमी के अवसर पर उस पर गहरी चर्चा हो ऐसी मैं अपेक्षा करता हूँ| मेरे विचारों में कुछ विचार यहाँ के विद्वानों को नहीं जंचता हो तो वो मेरे अज्ञान का ही रूप समझें | इसी के साथ मैं अपनी वाणी को विश्राम देता हूँ, नमस्कार|

नोट: यह आलेख MLF–2021 में जानकी नवमी के अवसर पर श्रीमान राम माधव जी के दिए गए दिनांक 21.05.2021 के वक्तव्य का शब्द रूपांतरण है| CSTS टीम के सदस्य कुमार अम्बिकेश ने इसे यथासंभव वैसे ही लिखने का प्रयास किया है जैसा कि श्रीमान राम माधव जी ने अपने व्याख्यान में बोला था, लेकिन फिर भी नि:संदेह त्रुटि की संभावना है|कृपया अशुद्धियों को नजरअंदाज करें|

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श्री राम माधव एक राजनीतिज्ञ, लेखक और विचारक हैं| वे वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(RSS) के राष्ट्रीय कार्यकारिणी शक्ति के सदस्य हैं| पूर्व में बीजेपी के नेशनल जनरल सेक्रेटरी रह चुके हैं| श्रीमान माधव जी ने कई अंग्रेजी और तेलुगु भाषा में पुस्तकों का सृजन भी किया है| जिसमें उनकी हालिया प्रकाशित किताब है ‘Because India Comes First: Reflections on Nationalism, Identity and Culture.’ The Indian Express और Open Magazine सहित कई प्रकाशनों के लिए लिख चुके हैं|वह अंग्रेजी की मासिक “भारतीय प्रांगन” के संपादक है और साप्ताहिक तेलुगु पत्रिका “जागृति” के सहायक संपादक हैं| श्री राम माधव जी ने 30 से अधिक देशों की यात्रा की है और कई अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है|

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Two Snippets of Mithila Painting

S. C. Suman: Continuity and Change in Mithila Painting

Just as it was a firingi none other than Sir George Abraham Grierson who first used the label ‘Maithili’ for the cross–border language of that name spoken in Nepal and India, so it was a firingi named William Archer who discovered Mithila painting and immortalized it in his 1942 article titled ‘Maithil Painting’ in Marg: A Magazine of the Arts wherein he published a number of photographs of Mithila wall paintings taken in 1940. Sadly, none of the wall paintings that Archer photographed exist today – the sole exception being a black and white photograph of a 1919 wall painting commissioned by Maharajadhiraja Rameshwar Singh of Darbhanga to decorate the kobarghar ‘nuptial chamber’ of the Rajnagar Palace for the marriage of his only daughter at the age of 9. The 1919 wall painting, photographed much later, happens to be the single oldest extant sample of Mithila painting, to date.

Soon after the introduction and availability of white paper and paint for painting during the late 1960s, the Mithila paintings tended to receive universal acclaim and Maithil women’s paintings fetched enviably higher and yet higher prices.

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A cursory perusal of the literature of art–writing on Mithila paintings reveals a total of three broad strands: a) paintings done by mahapatr brahman women, b) paintings done by kayasth women, and c) paintings done by dusadh women. Sita Devi, a mahapatr brahman, epitomized the brahman women’s style of wall paintings that is now dubbed the bharni ‘filled’ style: her paintings were “generally of large, elegant, often elongated figures in bright colours, using a straw or bamboo stick, either frayed at the end, or with a rag or wad of cotton at the tip, to serve as a reservoir for the paint” (David L. Szanton, 2007). Ganga Devi, who is immortalized by Jyotindra Jain’s 1997 book titled Ganga Devi: Tradition and Expression in Mithila Painting, on the other hand, shot to fame with her “extremely detailed kachani or “line” paintings using fine nib pens and only black and red ink” (David L. Szanton, 2007). In sharp contradistinction as it were to the brahman and kayasth women, the dusadh women drew heavily upon auspicious godana ‘tatoo’ images that their arms and legs were densely filled with; instead of painting the traditional Hindu gods and goddesses, they focused on painting their own deities such as Raja Salhes and his coterie. Dusadh women painters such as Chano Devi, Lalita Devi are eminently famous today, and currently the “tattoo” paintings pass as distinctively and uniquely dusadh painting. Presently, gobar paintings and geru paintings have been appended as two additional newer facets to the dusadh painting. In spite of the marked stylistic variations, the paintings done by brahman, kayasth, and dusadh women continue to remain quintessentially Mithila painting.

My knowledge of Mithila painting is minimal: I have consented to pen these words at a very short notice upon a fervent, nay, persistent request from S. C. Suman. I was also emboldened in this act by virtue of having visited an exhibition of his paintings “Mithila Cosmos: Circumambulating the Tree of Life” held during December 10, 2013 – January 6, 2014. Needless to say, I was awe–struck and very favorably impressed with his paintings.

S. C. Suman is one of the few but famous male painters of Mithila painting. We have come to learn that he was a precocious child painter and that he was initiated into the trade by his grandmother – a constant source of encouragement and inspiration. No wonder, he bagged a number of awards in school and college competitions.

S. C. Suman, himself a kayasth by birth, tends to inherit all the traits of the kachani style, but he does not stop there. Not only did he excel in the “line” painting with an insatiable appetite and a penchant for very minute and miniscule details of line, but he also succeeded in creating an exemplary amalgamation of and a synthesis between the bharni and kachani styles of Mithila painting. On top of it, he has a singular distinction of adding a new dimension to Mithila painting by espousing textile design thereby incorporating amazingly intricate textural details of lines – surpassed perhaps only by the Thanka painting.

S. C. Suman has got a real knack for using natural pigment in his paintings: singarhar flowers for orange, gena flowers for tamarind yellow, poro seeds for purple/deep red dye, gobar ‘cow dung’ for greenish texture, bougainvillea flowers of many hues for crimson red and/or magenta reddish purple color – to name only the famous few. Suman’s discrete use of vegetable dye, no doubt, lends credence, authenticity, and naturalness to the paintings.
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S. C. Suman also distinguishes himself with a flair for incorporating issues of contemporaneous political conflict and social disharmony prevalent in Nepal after the April 25, 2015 earthquake in his recent paintings. This affords an extended range, an elaboration, and an international appeal as it were to the contemporary paintings of S. C. Suman.

I may wish to close my remarks by describing S. C. Suman as a rather seasoned and iconic painter of Mithila paintings.

Ranju Yadav: Tradition and Individual Talent in Mithila Painting

The genre of ‘Mithila Painting’, surreptitiously labeled and famed across the globe as the umbrella term ‘Madhubani Painting’, is notoriously beleaguered with stridently stark sexism: barring an infinitesimally small number of ‘male’ artists, most painters worth their salt persist to be ‘females’ of all hues and from all communities, and a considerable corpus of this ritual art is indeed painted by women.

Mithila Painting is by now susceptible to unique commoditization; it is also shrouded in a subdued controversy in that the young apprentice women painters are systematically subject to financial exploitation. It’s no wonder therefore that most, if not all, visitors to the Janakpur Nari Vikasa Kendra situated in a small village near the town of Janakpur happen to be the firinghees.

The odyssey of the Mithila Painting from a modest rural village to the sophisticated Amazon.com in New York (fetching inordinately exorbitant prices in US dollars) has drastically altered its local character into global, as a subterfuge as it were. The arrival of Western art–scholars into the rural arenas of India and Nepal and the subsequent international travel of the local Indian and Nepalese women artists to countries such as Japan, Germany, France, and the United States of America have also tended to reconfigure the quintessential ritualistic, ceremonial and/or decorative moorings of the Mithila Painting into crude commercialization and, one might add, deterritorialization.

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The standard discourse of the poetics of the Mithila Painting is characterized by “line drawings filled in by bright colors and contrasts or patterns” (Jyotindra Jain 1997) as well as a complex cluster of a plethora of tribal and/or archetypal motifs i.e. fish, parrot, elephant, turtle, snake, sun, moon, bamboo tree, lotus, etc. Ever since William G. Archer – an Honorable East India Company Servant – published his famous 1949 paper titled the “Maithil Painting” in Marg (Bombay), a host of scholars from across the globe have followed suit – all assiduously endeavoring to critique and explicate the “meanings” inherent in the rather innocent–looking but intricately structured art–works of the Mithila Painting. One such study stands out prominently and deserves special mention: Carolyn Henning Brown’s (1996) paper published in the American Anthropological Association journal American Ethnologist has ably succeeded in both contesting and deconstructing the preponderant colonial academic interpretation of the overbearing nuances of tantra and eroticism in the repertoire of the Mithila Painting trope.

Ranju Yadav – coming as she does from a “differently positioned” community – stands apart as a distinctly superior painter owing to her masterly handling of the contemporary societal issues and the unique craft of the Mithila Painting. In sharp contradistinction to women painters of the brahman and kayasth communities, Ranju Yadav discretely selects themes for her paintings from around her familiar locale. Displaying a rather Feminist bias, she harps on such themes as the women’s emancipation (embodied in a caged woman being set free by a woman), the women’s empowerment (enshrined in a woman engaged in a fierce fight with a vicious bull), the age–old custom of dowry (showcasing in a baradhatta ‘cattle market’ depicting rather made–up bridegrooms as oxen on sale) – to list only the famous few. A number of her paintings also elaborate on the themes of State’s acute apathy to the flood–stricken victims, child marriage, girl child–embryo killing, caste–based discrimination, dowry–related bridal burning, and so on. Not all of her paintings are permeated with the overt motive of social reforms though: aesthetically highly pleasing and cheerfully decorative chauk paintings (done on ground in the courtyard with rice flour paste on the festive occasion of bhardutiya, Skt. bhratridvitiya) and the purain pat ‘water–lily leaf–like’ mokh paintings done on both sides of the front door of the main house appear to be RanjuYadav’s special preserve.

In an earlier Catalogue–Essay written in 2016 for a by–now famous ‘male’ painter, S. C. Suman, I had listed a total of three broad strands of the Mithila Painting, to date: (i) paintings done by the mahapatr brahman women, (ii) paintings done by the kayasth women, and (iii) paintings done by the dusadh women. Prima facie, that pervasive picture may appear to continue to hold until today; nonetheless, with the emergence of a young but brilliantly consummate artist, RanjuYadav, – endowed as she is with a remarkable individual talent – a new vibrant dimension might, just might, actually be suitably added to the abovementioned list as the fourth strand consisting of admirable paintings done by the yadav women.

I wish RanjuYadav luck on her first solo exhibition to be held in the Kathmandu Nepal Art Council Gallery during 30 March through 3 April 2019.

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प्राचीनकाल मे जलप्राप्तिक साधन

प्राणरक्षक तत्वमे जलक बड़ महत्त्व अछि | तें जलक पर्यावाची शब्द सभमे जीवन
शब्द सेहो अछि – “पय: कीलालम् अमृतं जीवन भुवनम् वनंम|” 1 एहि लेल नदीतट
पर वास कएल जाइत रहल अछि| जलक प्राप्तिक दुइ स्रोत रहल अछि – (1)
प्राकृतिक ओ (2) कृत्रिम| प्राकृतिक मे वर्षा, नदी, झरना, झील ओ देवखांत
(आदिकालक अथाह गर्त) अबैत अछि जे सृष्टिक आदिकाल सँ एखन धरि उपयोग
मे अछि| जलक प्राप्तिक दृष्टि सँ विश्वमें देश दू तरहक होइत अछि 2 – (1)
देवमातृक – देव (मेघ) माता जकाँ पालन करैत जतए से देश भेल देवमातृक,
केवल मेघक जल सँ सिंचाइवला देश| (2) नदीमातृक – नदी वा पोखरि सँ सिंचित
देश| एतए केवल मेघेक भरोसें लोक नहि रहैछ| जेना मिथिलाक वर्णन मेँ लिखल
अछि –

“नदीमातृक देश सुन्दर सस्य सौ सम्पन्न|
समय सिर पर होय बरखा बहुत संचित अन्न||
दयायुत नर सकल सुन्दर स्वच्छ सब वेवहार|
सकल विद्या उदधि मिथिला विदित भरि संसार||” 3

एहि दुनू प्रकारक देशमे प्राकृतिक के संग – संग कृत्रिम जलाश्य स्थान – स्थान
पर भेटैत अछि| कृत्रिम अर्थात मनुष्य द्वारा निर्मित जलाशयक मुख्य आठ
भेद कहल गेल अछि –

“सद्भिर्जलाशय : कार्यों यत्नाद् याम्योत्तरात्मक:|
कूप – वापी – पुष्पकरिण्यो दीर्घका द्रोण एव च|
तडाग: सरसी चैव सागस्चाष्टम: स्मृत:||” 4

जलक आशय = आधार भेल जलाशय, संयत्नपूर्वक बनावी आ से दक्षिण सँ उत्तर
दिस नाम हो| अर्थात पूबे – पछिमे अधिक विस्तार नहि हो| ते गोलाकार कूप ओ
समचतुष्क (लम्बाई – चौड़ाई बराबर) पुष्करिणी (छोट पोखरि) के छोड़ि सभटा
जलाशय आयताकार होइछ जकर लम्बाई उत्तरें दछिनें अधिक रहैछ| जलाशय अपन
परिसरक वा घरक पूर्वदक्षिण ,पश्चिम दक्षिण ओ पश्चिमउत्तर कोण मे उत्तम नहि
थिक-

“वापीं कूपं टाडगं वा प्रसादं वा निकेतनम |
न कुर्यादवृद्धिकामस्तु अनलानिलनैऋते|” 5

शास्त्रानुसार धनवान् के चाही कि इष्ट आ पूर्त एहि दुई प्रकारक धर्मक पालन
निष्ठा एवं उदारता सँ करथि जाहि सँ अपना संग लोकेक उपकार होइत छैक| इष्ट
धर्म भेल – अग्निहोत्र(हवन ), तपस्या, सत्यव्रत, वेदक अध्ययन ओ तदनुसार,
आचरण, अतिथिसत्कार आ बलिवैश्वदेव (नैवेधक उत्सर्ग)| पूर्त भेल लोकपालन
संबन्धी काज – कूप , वापी , तडाक ,देवमंदिर मार्ग अन्नदान , गाछी, फुलवाड़ी
आदिक निर्माण| एहि सभ काज मे महान धर्म ओ उन्नति होइत छैक| 6 सबसँ छोट
जलाशय कूप गोलाकार होइछ जकर व्यास न्यूनतम अढ़ाइ हाथ ओ अधिकत्तम
छओ हाथ होइछ| ई सामान्यतः 60 हाथ गहीर वा जतेक तर मे स्वच्छ जल भेटि
जाए से होएबाक चाही| ई कच्चा (विन ईंटाक ) वा पक्का लहरा सहित दू प्रकारक
होइछ|विस्तारक भेद सँ सेहो दू प्रकारक होइछ_ छोट कुइयाँ आ इनार| शास्त्र मे
लिखल अछि –

“भूमौ खातोSल्पविस्तरो गम्भीरो मण्डलाकृति:|
बद्धो s बद्ध : स कूप : स्यात् तदम्भ : कौपमुच्यते||” 7

अर्थात थोड़ विस्तारवाला गहींर गोलाकार खाधि कूप थिक् जे ईंटासँ बान्हल अथवा
विन बन्हलो होइछ तकर जल कौप कहबैछ जे पीबाकयोग्य होइछ| डोल – डोरी सँ
घीचि कए पानि ऊपर कएल जाइछ| जल बाहर करबाक लेल तेकठी यंत्र लगाओल
जाइछ अर्थात तीन दिस सँ तीन टा व दुइ टा बाँस ठाढ़ कएल ऊपर मे एकठाम
सबकेँ मिलाए डोरी सँ बान्हि गोल चक्राकार मोट लकड़ी ओहि पर दए एकटा पैघ
मोट बाँस चौड़ा कए ताहि पर राखि, छीप पर डोरी बान्हि नीचाँ डोल लटकाए
छिपवाला बाँसक जड़ी में ईंटा – मॉटिक लदाना बान्हि आसानी सँ पानि भरल जा
सकैछ|

ई जल जाड़ मे गरम आ गरमी मे शीतल होइछ |कतहु -कतहु इनार लग पैघ गढ़ा
खुनि देल जाइछ जाहि मे पशु -पक्षी जल पिबैछ, एकरा संस्कृतिमे निपान वा
आहव 8 आ मैथिली मे आइर कहैत छैक| सुखाएल नदी वा नदीक सुदूर बालू पर
चारि पाँच हाथ तर मे जल भेटाइ ,ततए छोट कच्चा कुआँ खुनल जा सकैछ जकरा
संस्कृतमे कूपक कहल जाइछ|कूपकें मुण्डा (विना घेराक ) सेहो राखल जाइ छल
जाहिमे लोक वा पशुक खसबाक डर रहैत छैक| एहि घेरा के जगत वा लहए कहैत
छैक| इनारक तर मे चारु भरI निमुठ हाथक जौमति (जामुक लकड़ीक आधार )
देल जाइछ जाहि पर सँ देवाल जोड़ल जाइछ| देवालमे प्रत्येक दू हाथ पर मोट
लोहाक कड़ी चढ़बा लेल देल जाइछ| जौमठि कसैला स्वादक रहने पानिकेँ सुद्ध
करैछ, मुदा एहि जलमे रान्हल भात लाल (जामुक रंगक ) आ दालि असिद्ध भए

जाइछ| समय-समय पर एकर सफ़ाइ ओ चून सँ शुद्धिकरण होइछ| कूप सँ पानि
बहारकए घैला मे ढारि घैलकें माँथ वा डॉर पर राखि घर आबि घैलची (घैलक ऊँच
स्थान ) पर झाँपि कए राखल जाइत छल|

वापी– एकरा बाउली कहल जाइछ जे आब मिथिले मे नहि, पश्चिम भर
काशी आदिमे देखल जाइछ | ई आयताकार होइछ, जकर पूब पश्चिम ओ
उत्तर दिस सोझ देवाल रहैछ, केवल दच्छिन दिस उतरबाक सीढ़ी चौड़ा रहैछ
| कूपमे उपर सँ पानि भरए पड़ैछ मुदा वापी मे सीढ़ी सँ नीचा उतरि पानि
लेल जा सकैछ –

“कूप: अद्वारको गर्त:, वापी तु बद्धसोपानका|” 9

अर्थात कूपमे प्रवेश करबाक द्वारि नहि होइछ ,किन्तु वापी मे सीढ़ी
बनाओल रहैछ | चारु दिस सीढ़ीवला चौखुट छोट जलाशय कें कुण्ड कहैत
छैक |

पल्वल – छोटकी पोखरि जकरा चभच्चा वा डाबर कहैत छियैक| डीह
भरबाक लेल आगू वा पाछू वा उत्तर वा दच्छिन डाबर खुनाओल जाइ छल
जाहि मे माँछ सेहो पोसल जाइ छल |

पोखरि – पुष्पकरिणीक पनिझाओ (पानि बसबाक जगह ) 20 हाथ × 20
हाथ चौखुट होइछ, एहिसँ अतिरिक्त चारुभर दस हाथक अउनै आ ताहि सँ
बाहर महार होइ छै| घाट बनबा दियैक त उत्तम नहि त काठक व पाथरक
दारू पर कपड़ा खींचल जाइछ| स्नान , वस्त्र- वासन, पशुक पीबाक तथा
पटौनीक लेल एकर उपयोग होइछ| मनुष्यक पीबाक लेल इनार , बाउली,
नदी आ झरनाक जले उपयुक्त होइछ|

चारि हाथक एक धनुष वा धन्वन्तर होइछ| एक सए धनवन्तरक पुष्करिणी
होइछ| एकर पाँच गुना पैघ तडाग (पैघ पोखरि होइछ)| 10 तदनुसार 20 × 20
हाथ= 400 वर्गहाथ ÷ 4 =100 धनुष पुष्करिणी, 300 धनुष दीर्घिका (बेसी
नाम कम चौड़ा), 400 धनुष द्रोण आ 500 धनुष तडाग = 50×40 हाथ
=2000 वर्ग हाथ ÷ 4 = 500 धनुष| ई नाप केवल पानि रहबाक स्थान
भेल, अडंनै आ भीड़ एहि सँ अतिरिक्त भेलै| 11 एहिसँ पैघ पोखरि के सागर
कहैत छैक, जेना दरभंगामे – गंगासागर ,लक्ष्मीसागर , मधुबनी मे-
गंगासागर, सरिसव मे रतनसायर, अदलपुर मे सुन्दरसायर, बेहटमे
सुनरसाअर, सतनसाअर इत्यादि|

यद्धपि दिर्घिका (दिग्धी ) 300 धनुषक होइछ तथापि मत्स्यपुराणक अनुसार
अतिबृहत जलाशाय जकर लम्बाइ चौड़ाइ सँ दुन्ना-तेगुन्ना हो से दिग्धी भेल,
जेना दरभंगा मे म्यूजियम लगक दिग्धी, संस्कृत विश्वविद्यालय पछुआरक
सुखल दिग्धी आदि| एहि सँ अतिरिक्त राजभवनक चारु भरक परिखा भरक
(गडखइ) घर लगक खत्ता, डबरा, डबरी, कियारी आदि सेहो जलक आश्रय
थिक| खत्तो खुनएबामे पुण्य कहल गेल छैक| धर्मक नाम पर कतेक लोकक
कल्याण होइत छलैक से एहि सँ स्पष्ट होइछ| कहल गेल अछि –

“यो वापीभथवा कूपं देशे तोयविवर्जिते |
खानयेत स दिवं याति बिन्दौ- बिन्दौ शतं समा: ||” 12

जे व्यक्ति निर्जल प्रदेश मे जलाशय खुनाबथि से तकर एक- एक बिन्दु जलक सए
वर्ष धरि स्वर्गमे वास करथि| इयेह फल एकर जीर्णोद्धार मे सेहो कहल गेल
अछि|13

दस टा कूप खुनएबाक फल एक टा वापीमे, दस वापीक फल एक हृद (दह वा
महातडाग) मे, दस हृदक तुल्य एक पुत्र मे ओ दस पुत्रक तुल्य एक गाछ रोपि
बढ़एबा मे होइछ –

“दशकूपसमा वापी , दशवापीसामो हृद:|
हशहृदसम: पुत्रो, दशपुत्रसमस्तरु:|” 14

एहि सबहि कृत्रिम जलाशयक उत्सर्ग (सार्वजनिक उपयोग हेतु विधिपूर्वक त्याग)
आवश्यक कहल गेल अछि | ताहि लेल जलाशयक संस्कार (यज्ञ द्वारा) आवश्यक
अछि –

“सदाजंल पवित्रं स्यादपवित्रमसंस्कृतम्|
कुशाग्रेणापि राजेंद्र! न स्पृष्टव्यमसंस्कृतम्||” 15

पूजन- हवन- पञ्चगव्यादि प्रक्षेप सँ जलाशयक संस्कार विधि-पूर्वक कए सकल
जन्तुक लेल उन्मुक्त छोड़ि देल जाए| एहि सँ जलमे दिव्यतत्त्वक वास भए जाइछ
ओ सब बेरोक- टोक व्यवहार कए सकत| 16 कुपयागविधि एवं महामहोपाध्याय
रघुपति कृत – तडागयागपद्धति वर्षकृत्यद्वितीय भागमे उपलब्ध अछि| 17 पोखरिक
याग मे जाठि गाड़ल जाइछ बीचोबीचमे| ई अठारह सँ 24 हाथ धरिक होइछ जे
महार सँ बेसी ऊँच नहि हो | विन यागक पोखरि कुमारि रहैछ| यागक बाद
बियाहलि मानल जाइछ|

नदी – प्राकृतिक जलाशयमे गर्त, नदी, नद, हृद, सरसी, सरोवर, झील आ समुद्र
अबैत अछि| आठ हजार धनुष सँ कम दूर बहए योग्य धार गर्त कहबैछ, नदी नहि|
एहिसँ वेसी प्रवाहवाली नदी कहबैछ –

“धनुः सहस्रान्यष्टौच च गतिर्यासान विदधते|
न ता नदीशब्दवाच्या, गर्तास्ता: परिकीर्तिता:||” 18

तदनुसार 32 हजार हाथ सँ अधिक लम्बाइ नदीमे रहब आवश्यक| एक हजार
धनुषक एक कोस होइत छैक, तदनुसार आठ कोष सं पैघ नदी होइछ- कमला,
कोशी, बागमती, गण्डकी सब नदी थिक| एहन जलप्रवाहक नाम पुंलिंग यदि हो तो
से नद कहबैत अछि – ब्रह्मपुत्र, सोन, सिंधु, दामोदर| समुद्रमे मिलएवाला ब्रह्मपुत्र
ओ सिंधु महानद ओ गंगा, गोदावरी आदि महानदी कहबैछ| नदीक प्रवाह मे वा
कातमे दलदल भरल महागर्त मोनि (ह्रद) कहबैछ, जकरा मैथिलीमे दह कहैत छैक
– कालीदह, नागदह, हथिदह| प्राकृतिक पोखरि जे अनादिकाल सँ देवमंदिर लग
रहल अछि से देवखात कहबैत अछि जेना कपिलेश्वर पोखरि|

नदीक बाढ़िमे परसल पानि नदीक बनाओल गर्तमे जँ रहि गेल आ नदी सँ ओकर
सम्पर्क छूटि गेल त से गर्त नदी सन पवित्र नहि मानल जैइछ, मुदा स्नान कए
सकैत छी, किन्तु गंगा नदीक एहन गर्त अपवित्र भए जाइछ, तें ओहिमे स्नानो
नहि करी| मृत नदी (मरेनधार ) मे बरसात मे पानि भरि जाइछ आ फगुनहटि मे
सुखा जाइछ, तकरा नदीखेत व डोंरा कहल जाइछ| उत्थर झील जाहिमे धान
उपजैछ आ फगुनहटिमे खेत सुखा जाइछ तकरा चर – चाँचर कहैत छैक|

एहि सब जलस्रोत सँ सिंचाई, मत्स्यपालन, मखान उत्पादन, कमलक फूलक खेती,
भेटँक बीच (चाउर) करहर, सारूक आदि कन्दक उपलब्धि कएल जाइत अछि|
एहिमे क्रैंच (कंचुआ ), बगुला, हंस, सारस, चकवा, सिल्ली, कुररी, शरारि, नकटा,
दीघोंच आदि जलचर पक्षी निवास करैत अछि| खुरचना, डोका, काछु आदि जलजीव
रहैत अछि| सिचाइक साधन – एक खेत सँ दोसर मे थारी सँ उपछल जाइछ| कूप
सँ रहट द्वारा, पोखरि आदि सँ काठक करीन, हुचुक, दोइस (टीन) आदि द्वारा
पटौनी नाली बनाए कएल जाइत छल|

एहि प्रकारेँ गाम – गाम जल संसाधन सँ संपन्न मिथिला वर्तमान समयमे केवल
यंत्राधीनताक दिस तेजी सँ आगू बढ़ि रहल अछि जे नीक लक्षण नहि थिक| अपन
प्राचीन साइंटिफिक जल संसाधनक रक्षा आवश्यक ओ उपयोगी थिक|


सन्दर्भ :
1 अमरकोष –1.10.3

2 वाचस्पत्यम(शब्दकोष)- देवमातृकशब्द
3 चंदा झा, मिथिलाभाषा रामायण, बालकाण्ड, अध्याय 6.
4 वायुपुराण, जलाशय प्रकरण|
5 देवीपुराणम|
6 जतुकणयस्मृति:|
7 आदित्यपुरण|
8 अमरकोष, धारिवर्ग, पण्डित मुकुंद झा कृत मैथिली व्याख्या, सम्पादक- डॉ. शशिनाथ झा|
9 द्वैतनिर्णय, वाचस्पति मिश्र|
10 आदित्यपुराण|
11 वसिष्ठसंहिता|
12 विष्णुधर्मोत्तरपुराण|
13 नन्दिपुराण|
14 उपवनविनोद, (सम्पा.) कृष्णानन्द झा|
15 नन्दिपुराण|
16 मत्स्य पुराण मे जलाशय सम्बन्धी सब बात विस्तार सं वर्णित अछि|
17 वर्षकृत्य, द्वितीय भाग,पण्डित रामचंद्र झा|
18 तिथितत्त्व्म, रघुनन्दन भट्टाचार्य|


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मिथिला में धर्मराज और उनके सहायक देवान

प्राचीन काल में ही संस्कृति की दो धारा विकसित हुई, लोक और शिष्ट | मैथिली दोनों के मध्य की संस्कृति है यानी लोक-वेद की| जमीन से जुड़े लोगों की संस्कृति| यहाँ की संस्कृति भारत की समृद्धतम सांस्कृतिक इकाइयों में से एक है| मिथिला ने जो अपने ज्ञान और वैभव का परचम लहराया, सब इसी लोक की देन है| चाहे न्याय हो या मीमांसा सभी के प्रतिपादक इसी लोकसंस्कृति में उपजे|

यहाँ की लोक-संस्कृति में लोक आस्थाओं तथा विश्वासों का विशिष्ट स्थान है| जादू –टोना ,मृतकों की पूजा, लोकदेवता,ग्रामदेवता आदिम संस्कृति की विरासत है| लोकआस्थाओ में पूज्य देवताओं को पूजने का अपना विधान और पूजा स्थान/गह्वर है|
यहाँ पौराणिक और वैदिक देवताओं के अलावा ग्रामदेवता,या लोकदेवता(पूजित लोकनायक) का अपना क्षेत्रीय इतिहास है, जिसका सम्बन्ध उस पुरे क्षेत्र विशेष से होता है जहाँ लोकदेवता पूजे जाते हैं |

मिथिला में कुलदेवता/लोकदेवता/ग्रामदेवता का पूजन विधान शास्त्रसम्मत तथा लोकमत दोनों की परिधि में आता है| लोकसम्मत धारणाओ में जहाँ तक प्रकृति पूजा या सामाजिक नायकों के पूजने का विधान है वो काल खंडो में किसी आस्था या डर के कारण प्रारंभ हुआ और आज भी प्रचलन में है| जिसका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं दिखता है|

मिथिला में देवता:-

मिथिला में लोक आस्था में अनेक वैदिक-अवैदिक देवता स्थापित हैं| जो अलग–अलग गुण, बोध, शक्ति और स्वभाव वाले हैं| कोई सौम्य तो कोई रौद्र! यहाँ तक कि एक ही देवता को कोई समाज रौद्र स्वभाव वाला स्वरुप स्थापित कर पूजते हैं तो दूसरा उसी देवता को सौम्य स्वाभाव वाला मान कर| देवताओं के गुण,शक्ति और स्वभाव के हिसाब से ही उनका पूजा विधान है | किसी को बलि प्रिय है तो किसी को मिष्ठान | कोई बकरा/खस्सी का बलि स्वीकारते हैं, कोई मुर्गा/कबूतर का तो कोई सूअर का|
देवताओं का विभाजन अगर किया जाय तो उन्हें कुलदेवता, ग्रामदेवता, जातिदेवता,व्यवसाय देवता, नदी देवता के रूप में रखा जा सकता है| मृतात्माओं के रूप में लोकनायकों के पूजे जाने का भी विधान है जो जातिदेवता,ग्राम देवता और कुलदेवता के रूप में समुच्चे मिथिला में पूजे जाते हैं | मिथिला में पूजित कुलदेवता के उद्भव, किसी विशेष कुल के द्वारा किसी विशेष कुलदेवताओं के पूजे जाने के कारण को समझना दुरूह कार्य है | यहाँ पूजित कुछ देवता वैदिक हैं तो कुछ का उल्लेख ना तो पुराण में मिलता है ना लोक साहित्य में| कुछ का उल्लेख लोगाथाओं में हैं जहाँ वे नायक के रूप में देखे जा सकते हैं| मिथिला में धर्मराज जो कि अधिसंख्य मैथिल घरों के कुलदेवता के रूप में पूजित हैं वैदिक माने जाते हैं/हैं| वैसे मिथिला में धर्मराज नाम से सिर्फ वैदिक धर्मराज नहीं पूजे जाते अपितु कुछ लोकनायकों को भी धर्मराज की उपाधि मिली है| लोकगाथाओं में धर्म के प्रति इनके त्याग ही वो वजह दिखती है, जिसके कारण ये सभी लोकनायक धर्मराज के रूप में पूजे जाते रहे हैं और रहेंगे| बहुत से ऐसे देवता भी हैं जिनके सन्दर्भ में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिल पाती| जिनमे कुछ है –अमीक माय,बालापीर आदि|

मिथिला में प्रत्येक गांवों में ग्राम देवताओ को पूजे जाने का विधान है | इनकी पूजा दैनिक होती है और विशिष्ट वार्षिक पूजा भी होती है | पूजित देवताओं का अपना गह्वर होता है जहाँ निर्धारित तिथि को भाव का आयोजन देखा जा सकता है |भाव में देवता भगत के उपर आते हैं और लोगों का उपचार करते हैं|लोकआस्थाओं में गजब की ताकत का प्रमाण भगत के द्वारा बताये उपचारों के सफल परिणामों के रूप में देखा जा सकता है| ग्रामदेवता के रूप में ब्रम्ह की पूजा की जाती है जिनका सम्बन्ध ब्रम्हा से नहीं होता बल्कि वे ग्राम से ही होते हैं| जहाँ ब्रम्ह की पूजा होती है उसे मैथिली में डीहबार या डीह कहा जाता है| सभी देवताओं को पूजे जाने के लिए एक विशिष्ट पूर्वनिर्धारित स्थान होता है जहाँ देवताओ को दैनिक या तय दिन के आधार पर पूजा जाता है| जैसे ग्रामदेवताओं की पूजा गह्वरों, मंदिरों या किसी खुले स्थान पर पाकरी,आँवला,पीपल, बरगद,अशोक आदि के पेड़ों के नीचे होता है| कुलदेवता या गृहदेवता की पूजा रसोई घर में या पूजा घर में पीड़ी /सीरा बना कर किया जाता है| सीरा बनाने के लिए पवित्र नदियों के मिटटी का प्रयोग शास्त्रों में निर्दिष्ट है| मिथिला के बहुत समाज में गोसाउनी घर रसोई घर केसाथ ही होता है| सतघरा के अधिसंख्य काश्यप ब्राम्हण के घर में कुलदेवी का सीरा रसोई घर में हीं है| वैसे तो कुल देवताओं की पूजा दैनिक होती है,लेकिन कुछ की पूजा तय दिनों के हिसाब से| जैसे ननौर गॉंव के देवेंद्र झा ‘दीन’ के हिसाब से उनके कुल देवता धर्मराज हैं जिनकी पूजा सप्ताह के चार दिन सोमवार,बुद्धवार, वृहस्पतिवार और शुक्रवार को होती है| यहाँ हिन्दू परिवारों या मंदिरों में कुलदेवता के सांग देवताओं में ना सिर्फ हिन्दू बल्कि मुस्लिम संतों/नायकों को भी पूजा जाता है| जिसमें बालापीर/सैयद,मीरा साहब, मीरा सुल्तान आदि को पूजा जाता है | ये कब हुए और कब से पूजे जाने लगे इसका कोई ठोस सबूत नहीं पेश किया जा सकता | सतघरा(बाबूबरही) के दुर्गा मंदिर में नग्रकोटी जालपा के साथ बालापीर को भी पूजा जाता है | यहाँ मंदिर के बाहर मुर्गा की बलि बालापीर के निम्मित चढ़ाई जाती है| दुर्गा का बकरा मंदिर के बाहर तो बिषहारा का मंदिर में भीतर कटता है |

कुल देवता की अवधारणा:-

मिथिला के सभी जाति-वर्गों के अपने कुल देवता और जाति देवता हैं |यहाँ कुलदेवता/देवी के रूप में ज्वालामुखी ,दक्षिनेश्वरीकाली,शीतला, काली ,त्रिपुरसुन्दरी,अन्नपूर्णा,सोखा,उमा,चामुंडा,तारा,ललिता,नारायणी ,भद्रकाली, धर्मराज,नृसिंह,कारिख आदि देवताओं को पूजा जाता है| कुलदेवताओं को पूजे जाने का कारण अपने कुल को संगठित करना और जोड़ना है | प्राचीन समय में जब लोग पलायन करते थे तो आपसी सम्बन्ध एवं पहचान के लिए अपने लिए अपने परिवार के लोगों में एक देवता का निर्धारण करते थे,जो बिछड़ने के बाद भी पहचान में सहायक होता था| पूजे जाने वाले देवताओं को आधार बना लोग अपने वंश की पहचान कर सकते थे, ऐसा विद्वानों का मानना है| मिथिला लोक के अध्ययन में ये आसानी से दिखती है कि यहाँ के लोग शिव के उपर शक्ति को प्राथमिकता देते हैं | और यही कारण है कि यहाँ सभी लोगों के कुलदेवता नहीं होते, लेकिन कुलदेवियाँ सबों की होती है| मिथिला में शक्ति की प्रधानता ही वह कारण है कि यहाँ के लोग अपने देवताओं के पूजने के निर्धारित गृह को गोसाउनिघर/मैया घर कहते हैं| बच्चे के जन्म से ही शक्ति की उपासना का पाठ पढाया जाता है- ‘सा ते भवतु सुप्रीता देवी शिखर-वासिनी। उग्रेण तपसा लब्धो यया पशुपति: पति:॥ श्लोक का अर्थ है- (हिमालय के) शिखर पर रहनेवाली वह देवी तुझ पर प्रसन्न हों, जिन्होंने कठिन तपस्या कर भगवान शिव को वर के रूप में प्राप्त किया|)

यहाँ अवैदिक देवताओं के पूजने के पीछे सिर्फ आस्था नहीं अपितु एक डर भी कारण है| शीतला को लोग बीमारी से बचाने वाली देवी के रूप में पूजते हैं तथा नदियों को शायद बाढ़ की आक्रमकता के डर से पूजे जाने का विधान हो! नायकों में सलहेस,कारिख ,लोरिक,मीराआदि पूजनीय हैं| जाति देवताओं के रूप में वीर-लोरिक(अहीर),दीना-भद्री(मुसहर),छेछन महराज(डोम),मोतीदाई (धोबी) गांगो देवी (मल्लाह),दुलरा दयाल(मल्लाह) कृष्णा और हाथी सुबरन(यादव),अमर बाबा (मल्लाह),गरीबन बाबा(धोबी), लालवन बाबा(चमार), बंठा चमार(चमार), ससिया महराज(खतबे)अन्यान्य देवताओं की पूजा जाति विशेष के साथ अन्य असम्बद्ध जातियों में भी होती है| यहाँ सभी देवता सिर्फ इसीलिए पूजनीय हैं क्योकि वे देवता हैं| आरक्षित वर्गों के देवता भी अनारक्षित वर्ग में पूजे जाते हैं |

मिथिला में धर्मराज :-

इस आलेख को लिखने का उद्देश्य ही धर्मराज से सम्बन्धित प्राप्त लोक प्रचलित विधियों और जानकारियों को संगृहीत करने का है| मिथिला में पूजित धर्मराज के सम्बन्ध में सूचनाओं को एकत्रित करने के क्रम में धर्मराज खुद एक उलझे हुए देवता बनकर उभरते हैं जिनका सम्बन्ध लोक और वेद दोनों से है| जहाँ कई विद्वान इन्हें वैदिक यम मानते हैं तो कई लोक देवता के रूप में देखते हैं| यह कह पाना दुरूह है कि धर्मराज के रूप पूजित देवता वैदिक यम ही हैं| वैसे मिथिला लोकसाहित्य के अध्येता महेंद्र नारायण राम की माने तो मिथिला में कारिख पंजियार को भी धर्मराज के रूप में पूजा जाता है तथा इनके गह्वर को धर्म का गह्वर कहा जाता है| लेखक का यह मत लोक अध्ययन के आधार पर हीं है| इस तरह मिथिला में लोक देवता के रूप में कारिख भी पूजनीय हैं इसमें कोई संशय नहीं| इसकी पुष्टि को लोक प्रचलित मंतव्य भी एक बल प्रदान करता है वो है बलि प्रथा | कहीं-कहीं धर्मराज को बलि दी जाति है कहीं –कहीं मिठाई| भोग के स्वाद का अंतर कारिख और धर्मराज का अंतर हो सकता है| शंकरदेव झा ने अपने लोक अध्ययन के आधार पर कहा कि अपने यहाँ धर्मराज के रूप में वैदिक यम के अलावा हनुमान,कारिख,ज्योति के साथ-साथ अन्य लोकदेवताओं को भी पूजे जाते का विधान आदिम से है| महेंद्र नारायण राम कि माने तो मिथिला में धर्मराज कोई एक देवता मात्र नहीं बल्कि एक सम्प्रदाय अभिहित है जिसमे लोक नायकों और देवताओं को भी धर्मराज उपमान के साथ पूजा जाता रहा है | मिथिला शोध संस्थान के एक शोध में डॉ. अवनींद्र कुमार झा ने मिथिला में पूजित धर्मराज को वैदिक माना है |

मेरा व्यक्तिगत ये मानना है कि अगर वैदिक धर्मराज के अलावा भी वैसे लोकदेवता या पौराणिक देवता जिन्हें धर्मराज के रूप में पूजा जाता है वे वैदिक धर्मराज में ही निहित है| या उन्ही के मानकों को आधार बना धर्म पर चलने के कारण उन्हें धर्मराज के रूप में पूजा जाने लगा| जैसे सभी नदियाँ समुद्र में मिलती है, वैसे ही सभी धर्मराज वैदिक यम से जुड़े हुए है और यम हीं सबके प्रतिनिधि हैं|

यमराज मिथिला के अलावा भी सम्पूर्ण भारत में पूजे जाते है और इनकी लोककथाए सभी जगह सुनाई जाती है | राजस्थान में धर्मराज और पोम्पा बाई की कथा प्रचलित है | वैसे तो धर्मराज सभी जगह पूजित है लेकिन जो मान-सम्मान एक भाई को अपने बहन के यहाँ मिलती है वही सम्मान धर्मराज को यहाँ मिलती है| धर्मराज ना सिर्फ कुलदेवताओं के रूप में मान्य हैं, बल्कि ये त्योहारों में भी अपने को काबिज किये हुए हैं | यही कारण है कि यहाँ यमद्वितीया को भ्रातु द्वितीया के रूप में मनाया जाता है| इसी दिन यम अपनी बहन यमी से मिलने उसके घर गए थे और खुश होकर वरदान में उन्होंने यमुना की बात मानते हुए कहा कि-“जो व्यक्ति यम द्वितीया को यमुना में स्नान कर उसी घाट पर ‘फरे’ बना कर खाए उस के आत्मा को मृत्यु के बाद यमराज कोई तकलीफ नहीं देंगे|”इस कहानी का उल्लेख भविष्य महापुराण और पद्म पुराण में भी है |
मिथिला के क्षेत्रों में जब भ्रातु द्वितीया मनाते हैं तो बहने निम्न श्लोक पढ़ती हैं –

‘यमुना नोतलनी यम के,हम नोतै छी भाई के
जहिना यमुना जल बढ़ए तहिना भायक ओरदा बढ़ए |’

(अर्थात-यमुना ने जैसे यम को निमंत्रित किया वैसे ही मैंने अपने भाई को निमंत्रित किया है,मेरे भाई की आयु यमुना के जल के बढ़ते अनुपात में बढ़े |
यम और यमी के बहुत संदर्भ पुरानो में भरे –पड़े हैं | पुराणों की माने तो यम और यमी शनि की तरह ही सूर्य के संतान हैं| जहाँ शनि जीवित अवस्था में मनुष्यों के बुरे कर्मों का दंड देते हैं वहीँ यम मृत्यु के बाद | ‘यमो यच्छतीत सतः’ अर्थात यम को यम इसीलिए कहा जाता है क्योंकि यह प्राणियों को नियंत्रित करते हैं| आत्मा की शुद्धिकरण कर्म का सम्पादन धर्मराज के हाथों ही होता है| निरू.चंद्रमणि भाष्य (10/11) के अनुसार यम प्राण को कहते हैं| क्योंकि यह जीवन प्रदान करता है| यमराज को धर्मराज इसीलिए कहा जाता है क्योकि वो अपने सहायक लिपिक चित्रगुप्त और पत्नी धुमोरना की सहायता से धर्म का संचालन करते हैं| मधुबनी जिला के विरौल प्रखंड में धर्मराज के साथ सहायक देवियों में धुमोरना भी पूजनीय हैं|

धर्मराज को धर्मराज क्यों कहा जाता है इसके सन्दर्भ में ऋग्वेद के दसवें मंडल के यम-यमी सूक्त का रेफरेंस लेते हुए मन्मथनाथ गुप्त ने अपने पुस्तक ( स्त्री पुरुष संबंधों का रोमांचकारी इतिहास,वाणी प्रकाशन,दिल्ली,2005, पृष्ठ-52 ) में कहा है कि यम ने अपने बहन यमी का प्रणय निवेदन ठुकरा कर स्थापित लोकधर्म का पालन किया अतः वे धर्मराज हुए/कहलाए|

यम और चौदह सहायक देवता:-

जैसाकि धर्मराज के सम्बन्ध में पहले से पता है कि ये लोक से भी हैं और वेद से भी| लेकिन हम दोनों को एक साथ मिला लेते हैं ताकि समझने में कोई द्विविधा ना हो |अब हमें यहाँ उन १३ देवताओं के बारे में जानना है जो कुलदेवताओं के सांग हैं| यहाँ यह जान लेना आवश्यक कि यह सभी सांग देवता बदलते रहते हैं| कहीं कारिख धर्मराज के रूप में पूजे जाते हैं तो कहीं धर्मराज के सांग देवताओं में| मिथिला के सभी परिवारों में १४ देवान की पूजा होती है जहाँ एक मुख्य देवता/कुलदेवता होते हैं और अन्य 13 सहायक| जैसाकि पहले ही मैंने कहा कि पूजित सहायक देवता परिवर्तनीय हैं और ये परिवर्तन गाँव,समाज, जाति, कुलदेवता और कुल पर निर्भर करता है| मिथिला लोक के अध्येता शंकरदेव झा ने चौदह देवान को सूचीबद्ध किया है जिसमे उन्होंने कुलदेवता के अलावा- गहिल,वामति,देवी भगवती, फेकूराम,बालापीर/मीरा, कालिका, हनुमान, भैरव, बिषहरा, धर्मराज, साहेब खबास, गोविन्द, सोखा सम्भुनाथ, एवं जलपा(ज्वालामुखी) को रखा है|वहीं महेंद्र नारायण राम ने यह कहते हुए सहायक देवान को सूचीबद्ध किया कि यह परिवर्तित होते रहते हैं| उन्होंने सूची में सोखा,गोरिल अन्हेरबाट गोआर, गहिल,बामति, देवी दुर्गा, जालपा,दीनानाथ, मीरा,गंगा और अन्य को रखा| यहाँ एक बात बता देना आवश्यक है कि मिथिला लोकगाथाओं में सूर्य को भी धर्मराज के रूप में स्थापित किया गया है| और धर्मराज के रूप में पूजित कारिख और उनके पिता और पुत्र सभी सूर्य के अनुयायी हैं| ऐसा लोकगाथाओं दिखता है |मधुबनी जिला के ननौर निवासी देवेंद्र झा ‘दीन’ ने चौदह देवान की एक अपूर्ण सूची दी जिसमे उन्होंने कारी, मीरा, दतुला, बालापीर,लखतलाल पांडे, ज्योति पंजियार, शीतला तथा अमीक माय का नाम गिनाया| अमीक माय के सम्बन्ध में अभी तक मुझे कोई जानकारी नही मिल पाई | कारी को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ये खबास हुए हैं उनके यहाँ भाव में कारी खबास का आह्वान होता है| व्यक्तिगत मेरा मानना है कि जहाँ लखतलाल पाडे पूजे जाते हैं वहां जलपा भी पूजी जाएँगी | क्यों का उत्तर मैं आगे स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा| उन्होंने कहा कि अमीक माय और बालापीर की पूजा घर के बाहर अलग से होती है |और उनका भोग भी अलग से लगता है| कहीं-कहीं पंच भगिनी बिषहरा, त्रिपुरसुन्दरी को भी कुलदेवी के सहायक देवी के रुप में पूजा जाता है| कहीं –कहीं नृसिंह भी पूजे जाते हैं|

मिथिला में धर्मराज के पूजा की तिथि एवं विधि:-

पूजा:-मिथिला का हरेक समाज अपने पूर्वजों के मान्यतानुसार पूर्व संस्कारों का निर्वहन करते हुए कुलदेवता को पूजते हैं| कुलदेवता में धर्मराज की पूजा कहीं नित्य होती है तो कहीं सप्ताह के तय दिनों में| ननौर के देवेंद्र झा ‘दीन’ जी ने बताया कि वे धर्मराज के सेवक हैं और उनके यहाँ सप्ताह के चार दिन ही धर्मराज को पूजा जाता है तथा उन्हें पुरुष ही पूजते हैं| वैसे ज्ञात सूचनाओं के आधार पर ये लिखा जा सकता है कि मिथिला में ज्वालामुखी और धर्मराज की पूजा सिर्फ पुरुष ही करते हैं (अपवाद भी हो सकता है)| कहीं –कहीं तो अशौच में यमराज को पूजने का विधान है(घडी पावनि के उपलक्ष्य में)| उन्होंने बताया कि निम्नलिखित मन्त्रों से वे लोग धर्मराज की पूजा करते हैं- ‘कालकादि चतुर्दश देवसहित धर्मराजाय नमः’ | साथ ही उन्होंने कहा कि उपनयन और बलिप्रदान में भी इसी मंत्र का प्रयोग किया जाता है| अब ये बलि किसके निम्मित होती है नहीं कहा जा सकता| ये शायद धर्मराज के लिए हो या काली के लिए! धर्मराज की दैनिक पूजा के साथ-साथ वार्षिक पूजा का विधान है,जो यहाँ घड़ी के नाम से लोक प्रचलित है| लोकमतों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर घड़ी के संदर्भ में भी अनेक मत दृष्टिगोचर होते हैं| कहीं-कहीं यह वर्ष में दो बार मनाया जाता है तो कहीं-कहीं वार्षिक| कहीं-कहीं नहीं भी मनाया जाता है| मधुबनी के बिरौल प्रखंड के कुछ गाँव के लोग घड़ी पावनि शनिवार के दिन हीं मनाते हैं और इसे शनियाही घड़ी के नाम से जाना जाता है| मैथिली मचान के माध्यम से जयचंद्र झा ने बताया कि बिरौल प्रखंड के सहरसा ग्राम के नब्बे प्रतिशत लोग धर्मराज के सेवक हैं| किसी-किसी गाँव में घड़ी माघ के वसंत पंचमी के बाद बुद्धवार को और सावन के नागपंचमी के बाद बुद्धवार को मनाया जाता है| दुलारपुर ग्राम निवासी अम्बुज कुमार चौधरी ने बताया कि उनके यहाँ कुल जनसंख्या का 90% धर्मराज के सेवक है और वे लोग प्रत्येक वर्ष चार बार धर्मराज को भोग (पातरि देते हैं| उनके यहाँ घड़ी सावन पंचमी के दिन मनाया जाता है जिसे वे लोग सोनघड़ी से संबोधित करते हैं|

भोग:-जहाँ तक नैवेद्य की बात है धर्मराज को लड्डू,खाजा और अन्य मिठाई के साथ-साथ कटहल,दलिपुड़ी,रोट ,खीर आदि का भोग लगाया जाता है| मैथिली मचान के माध्यम से शैलेन्द्र मोहन झा ने बताया कि धर्मराज को लगाया भोग गह्वर के बाहर नहीं निकाले जाते हैं| परिवारों और दियादों के खा लेने के बाद बचे हुए प्रसाद को उसी घर के किसी कोने में मिट्टी के नीचे दबा दिया जाता है| धर्मराज की पूजा कहीं–कहीं सामूहिक होती है तो कहीं-कहीं लोग व्यक्तिगत खीड़ा बनाकर उन्हें पूजते हैं| कहीं–कहीं धर्मराज के साथ उसी खीड़ा पर अन्य देवताओं की खीड़ा भी बना दी जाती है,तो कहीं सिर्फ धर्मराज का हीं| प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अधिसंख्य लोगों का मानना है कि धर्मराज को छागर बलि नहीं चढाई जाती तो कुछ अल्पमत ये भी है कि उन्हें बलि चढ़ाई जाती| मेरा मानना है कि वे लोग जिनके धर्मराज वैदिक यम हैं वे बलि नहीं चढ़ाते,जो कारिख को धर्मराज रूप में पूजते हैं वे बलि चढ़ाते हैं| इसका संदर्भ कारिख लोकगाथा में दिखता है| देवघर के करौ में धर्मराज की पूजा में लोग काँटों पर चलते हैं तथा अन्य माध्यमों से खुद को शारीरिक दंड देते हैं |धर्मराज की पूजा का ये विधान पूजित धर्मराज को गरूड पुराण के यमराज के साथ जोड़ता है |

भित्ति चित्रों में धर्मराज :-

मिथिला में धर्मराज के गह्वरों में भित्ति पर धर्मराज को चित्रित किया जाता है कहीं वे सफेद रंगों से बनाये जाते हैं तो कहीं लाल या अन्य रंगों से| चित्र में उन्हें हाथ में दंड और भैंसा के साथ दिखाया जाता है|जो कहीं ना कहीं यम से इन्हें जोड़ता है |धर्मराज के पूजा के दौरान उनके निम्मित वस्त्रों से कहीं-कहीं उनके प्रतीकात्मक भित्ति चित्रों को ढक दिया जाता है, जिसका अर्थ वस्त्र को धर्मराज के उपर चढ़ाने से है|

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मैथिली लोकगीतों में धर्मराज:-

अन्य प्रान्तों की तरह मिथिला के लोकगीतों में धर्मराज को गाया जाता है और क्यों ना गाया जाय वे कुलदेवता भी तो हैं| जैसाकि सबों को ज्ञात होगा कि लोकगीत के अध्ययन से बहुत सी बाते सामने निकलकर आती है और यह एक तरह का सामाजिक इतिहास ही होता है क्योंकि यह वर्षों से एक दुसरे के कंठों में सफर करते हुए आते रहते हैं|
मैथिली में धर्मराज का एक गीत है-

जाहि दिन धर्म जनम भेल गोसा ,
सोने ठोपे बरिसल मेघ ।
साहेब एक जग जनमल ।। १
दीप जोहइते बातीयो ने पाओल गोसा ,

मोती मानिक भए गेल इजोत ।
साहेब एक जग जनमल ।। २
हसुंआ जोहइते पासिने ने पाओल गोसा ,
सोने छूड़ी छीलहनार ।
साहेब एक जग जनमल ।। ३
मुनहर धर्म जनम लेल गोसा ,
बसहर छीलह नार ।
साहेब एक जग जनमल ।। ४
तोहे आमा बैसल सोइरि साठि ,
आमा हमें धर्म टेकब संसार ।
साहेब एक जग जनमल ।। ५
दूरे रहू , दूरे रहू रे दगरीन ,
दगरीन मोहि जुनि हे छीलहनार ।
साहेब एक जग जनमल ।।६
अढ़ाइ हे दिन केर बाबू धर्मराज गोसा ,
मीरा मांगए सबुज कमान ।
साहेब एक जग जनमल।।७
नार छीलिये छीलि गोसा ,
पाग बान्हू गोसा पुरइन छत्र धराय
साहेब एक जग जनमल ।।८

इस गीत में धर्मराज के जन्म को संदर्भित किया गया है कि कैसे उनके जन्म से सभी कुछ सही होने लगा | इसमें धर्मराज के सहायक मीरा का भी प्रसंग आया है जहाँ कहा गया है कि अढाई दिन के गोसाई धर्मराज से उनके सहायक चौदह देव में से एक मीरा उनसे तीर-कमान मांग रहे हैं| अगर ये मीरा सुलतान हैं तो यह गीत कारिख से भी जुड़ सकता है |

एक दुसरा गीत है :-
तोहरे भरोसे धर्मा इहो पथ चढलहूँ
सेहो पंथ भेल कुपंथ हो
हो धर्मा सेहो पंथ भेल कुपंथ
कोने नैया उगे हो धर्मा?
कोने नैया डूबत?
हो धर्मा कोने नैया उतरब पार हो?
धर्मक नैया उगे हो धर्मा
पापक नैया डूबे|
हौ साचक नैया उतरब पार हो
हौ धर्मा साचक नैया उतरब पार हो|
कथिक नैया हो धर्मा?
कथि के खबकरुआरि?
कोने विधि उतरब पार हो धर्मा?
हौ धर्मा कोने विधि उतरब पार हो?
चानन के चेबी-चेबी नैया बनाएब
हौ धर्मा सांचे के खबकरुआरि|
ताहि नैया चढींएता मोर धर्मबाबू
हौ धर्मा आबि जेतए चौदहो देवान हो|
भनहि विद्यापति सुनु बाबू धर्मा
हौ धर्मा सदए राखब रक्ष्यापाल हौं-2||

इस गीत के गायन में लेखन का श्रेय विद्यापति को दिया गया है| ये विद्यापति ने लिखा है या किसी और ने नहीं कहा जाता लेकिन महिलाएं इसे उन्ही के नाम से गाती हैं| उपर्युक्त गीत में कहा गया है धर्म के मार्ग पर चलते हुए कितने भी बाधा आए लेकिन हमें सदा वही मार्ग चुनना चाहिए|

एक गीत है –
धर्मराज बाबू यौ
कनिए –कनिए होइयौ ने सहाय
पहिने मंगे छी धर्मराज
सीथ के सिन्दुरबा
धर्मराज बाबू यौ
कनिए –कनिए होइयौ ने सहाय
तखन मंगे छी धर्मराज
गोदी के बलकबा
धर्मराज बाबू यौ
कनिए-कनिए होइयो ने सहाय
तखन मंगे छी धर्मराज
भाई-भतीजबा धर्मराज बाबू यौ
कनिए-कनिए होइयो ने सहाय ||

उपर्युक्त गीत में धर्मराज से पति की रक्षा, संतान की प्राप्ति, और भाई-भतीजे के रक्षा की विनती की जा रही है|
एक गीत हैं जिसका सम्बन्ध कारिख से मालूम पड़ता है| कारिख पंजियार की कथा में उनके पिता ज्योति को सूर्य बारह वर्षों के वनवास का श्राप दे दिया| जिसके निर्वहन के लिए वे १२ वर्षों तक केदली वन में रहे और पीछे उनके पुत्र कारिख ने उनका उद्धार किया |

‘बारह बरख धर्म सेवा हम केलहुं
यौ अहाँ धर्मराज
तैयो नहि छुटलहि बांझी पद
यौ अहाँ धर्मराज|
सासु मारे ठुनका धर्मा
ननदि परहै गारि
यौ अहाँ धर्मराज
गोतनी के उलहन सहलो नहि जाय
यौ अहाँ धर्मराज|
सासू के ठुनका अबला
गंगा बहि जेतौ गे तों अबला नारी
ननदो के गारि दिन दू चारि
गे तों अबला नारी
गोतनो के उलहन अबला
पैंच सधबिहए गे तों अबला नारी|
मांगु-मांगु- मांगु अबला
दुनू कर जोरि गे
तों अबला नारी
जेहो किछु मांगब से हम देब
गे तों अबला नारी|
पहिने जे मांगब धर्मा सिर के सिन्दूर
यौ अहाँ धर्मराज
तखन मांगे छी धर्म
गोदी भरि पुत्र यौ अहाँ धर्मराज
तखन मांगे छी धर्मा सहोदर नीक
यौ अहाँ धर्मराज|
तीनू फल देबौ अबला
छिनही लेबौ गे तों अबला नारी
छिनही ज’ लेबै अहाँ
जुनि अहाँ दियौ हे धर्मराज
बाझहि पद छुटत मरौसी नाम
यौ अहाँ धर्मराज|

उपर्युक्त गीत में एक नारी धर्मराज से अपनी समस्या सूना रही है और वो चाहती है कि धर्मराज उसका निवारण करें |

चौदह देवान:-

जैसाकि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि मिथिला में मुख्य कुलदेवता के अलावा अन्य तेरह देवताओं की पूजा चौदह देवान के रूप में की जाती है |चौदह देवान को सभी लोग पूजते हैं या नहीं यह भी एक वृहद् शोध का विषय है| चौदह देवान गाँव समाज के आधार पर बदलते रहते हैं कुछ विद्वानों की सूची में निम्नलिखित देवताओं को चौदह देवान के रूप में पूजनीय दिखाया गया है|इसमें कुछ वैदिक हैं,पौराणिक हैं और कुछ लोकगाथाओं से सबंधित है तो कुछ का कोई श्रोत नहीं दिखता-1.फेकूराम 2.कालिका 3.गहिल 4.विषहरा 5.ज्वालामुखी(जलपा) 6.देवी धुमोरना(धर्मराज की पत्नी) 7.देवी दुर्गा 8.ब्रम्ह 9.मीरा साहब 10.बालापीर 11.अमीक माय 12. हनुमान 13.धर्मराज 14.कारिख पंजियार (लोक धर्मराज) 15. ज्योति पंजियार 16.सोखा शम्भुनाथ 17. भवानी 18. भैरव 19.गोविन्द 20. वामती 21.साहेब खबास 22.कारी 23.अन्हेरबाट गोआर 24.गोरिल 25.दीनानाथ 26.नरसिंह और अन्य |

जैसाकि आप सभी जानते हैं चौदह देवान में कारिख पंजियार की लोकगाथा सुनने को मिलती है और ये धर्मराज के रूप में भी पूजे जाते हैं |इनके गह्वर को धर्म का गह्वर कहा जाता है| लोकगाथा में कारिख सूर्योपासक हैं, ना सिर्फ कारिख बल्कि उनके पिता ज्योति पंजियार और पुत्र कामदास भी सूर्योपासक हीं हैं| महेद्र नारायण राम ने अपनी पुस्तक (मैथिली लोकमहागाथा कारिख पंजियार) में इन्हें परोल चौर का माना है| यह स्थान जनकपुर से प्रायः 10-15 किलोमीटर दूर है|जहाँ अभी भी ज्योति और कारिख का मूल गह्वर है| यह स्थल सुरजाहा सम्प्रदाय को मानने वाले लोगों के लिए धर्म स्थल के रूप में मान्य है| नेपाल का ही उसराडीह परोल क्षेत्र का दूसरा प्रमुख स्थान है जहाँ ब्राम्हण वेशी इंद्र ने ज्योति का घमंड तोड़ा था और श्राप भी दिया था| ज्योति 12 वर्ष तक के लिए दीब्रा भीड़ बन गए थे| पीछे तेजस्वी पुत्र कारिख ने केदली वन जा श्रापित पिता का उद्धार किया था| प्रफुल्ल कुमार सिंह ‘मौन’ “मैथिली लोकगाथाक नेपलीय सन्दर्भ:स्थिति ओ संरक्षण” में लिखा है कि केदली वन प्रयाण करते समय माँ लिकमावती से इस बनवास की पुष्टि की है-“ हमरा लिखल जे आम्मा केदली बनवास”|

सैराधार जो वर्तमान में नेपाल में पड़ता है,वहीं स्नान कर इसी नदी के किनारे कारिख ने सूर्य का गह्वर बनाया था,जिसे वली मोहम्मद के पुत्र मीरा सुल्तान ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया| लेकिन कारिख ने अपने पौरुष के प्रभाव से इसे पुनः स्थापित कर दिया| फलतः मीरा सुलतान कारिख के अनुयायी बन गए| यह धार्मिक सदभावना का विलक्षण उदाहरण है| मीरा सुलतान को दिकपाल भी कहा जाता है| इस सुमिरन में भी कुछ ऐसा ही आया है-

सुमिरन सुमिरन सुमिरन करेछी
छप्पन कोटि देव के ह्रदय में जपैछी ए|

पूरब:-

पुरबे सुमिरनबा हे माता उगिला सुरुज के ए,
पुरबे राजा लगेअ उगला सुरुज ने ए|
उनको के चढ़इअ माता दूध के ढार ने ए,
उनको चरणमे हे माता, सिरमा नवाबइ छी ए |

पश्चिम:-

पश्चिममे सुमिरनमा करैछी मीरा सुल्तान के,
पश्चिमके राजा लगेअ मीरा सुल्तान ने ए,
उनको के चढ़इअ हे माता मृगा बलिदान ने ए
उनको चरणमे हे माता सिरमा नवाबइ छी|

उत्तर:-

उत्तरे सुमिरनमा करैछी पांचो पांडव भीम के ए,
उत्तरे के राजा लगेअ पांचो पा

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Jewellery, Body and Adornment: Exploring Maithili Literature

“The adornment of the body is a human need.”

(David LaChapelle- American photographer, music video director and film director)

Love for beauty and adornment is an integral part of human life and has existed for over centuries. The spiritual concepts of beauty are intimately connected with the physical and formal concepts in history and aesthetic symbols find their origin in the beauty of actuality and substance alike. The human body is constantly in need of some love which is showered upon it in the form of adornments. To cite an example, Rabindranath Tagore’s heroine, Mani in The last jewels would constantly pine for jewellery and could not give up on this excessive love even in a crucial hour when her husband needed them. The narrator describes,

“From what she knew of humanity she thought that this was not only possible but likely. Her anxiety became keener than ever. She had no children to love, and though she had a husband she was almost unable to realize his very existence…So her blood froze at the very thought that her only object of love, the wealth which like a child had grown from year to year, was to be in a moment thrown into the bottomless abyss of trade?” …. Mani had spent the whole night covering every part of her body with ornaments….”

Mani’s excessive love for jewellery illustrates the immense love that humans inherently nurtures for a thing that one desires the most, which here is represented as jewellery. This love is nothing new to mankind and there is enough evidence to substantiate the argument, in both History and literature. Another story that echoes the same idea can be found in the French writer Guy De Maupassant’s short story titled as The Diamond Necklace. Mathilde’s yearning to possess extraordinary jewellery finally results in her financial devastation with her living a life duller than before: “She had no gowns, no jewels, nothing. And she loved nothing but that.”
A human body longs to be adorned, as already stated and a thing of glitter and color catches its attention like nothing else. Jewellery is an aid that allows beauty to grow and thrive and it exists everywhere around us. If one looks around, nature comes across as a heavily decorated space that has adorned its creations so skillfully. The beautiful birds are adorned with wings that let them fly while flowers are adorned with vibrant petals blooming. All things in the world including the Gods and Goddesses are carefully adorned with precious jewels and gems. Primitive man found jewellery in whatever that was present in front of him, which meant his surroundings. Grass twigs and plants were utilized as jewellery items in the beginning. Even today, Tribal jewellery is mainly inspired by the natural products that nature has to offer. After the initial stage, people started with copper and iron and as they progressed, they went on to turn to ivory and agate for adornment. With advancements taking place, gold and silver along with other precious gems and stones started being used for the purpose of adornment. In the current scenario, all kinds of modern ornaments have evolved with newer designs coming into being.

Jewellery is something that is an inherent and urgent need of humans. Rebecca Ross Russell explains, “Jewellery responds to our most primitive urges, for control, for honor and sex. It is at once the most ancient and most immediate of art forms, one that is defined by its connection and interaction with the body it lies on.” In the Indian context, studying jewellery leads to fascinating explorations. The people of India and jewellery share a deeply engaging relationship right from the ancient times and all important religious texts make mention of it. In the Vedic age, the term ratna was accepted as the meaning of jewel. In the first two hymns of the Rig-Veda, Agni and Rudra are portrayed as two important figures because they were the possessors of seven treasures. The mythical fire priest, Atri remarks,

“Bestow the seven treasures in every house,
Be a blessing to one two Footed
And a blessing to one four footed.”iv

From the ancient Harappa women to Mughal and Rajput princesses and majestic Kings with beautiful crowns to the common Indian folk of the present day, jewellery has worked as a common space shared by all. In simpler words, jewellery and the desire to adorn the body are as old as human life itself.

The Folk Jewellery of Mithila

The land of Mithila as a culturally rich realm has given to the world some very wise minds remembered and celebrated till date. These were the people who not only garnered an ardent love for their culture but also celebrated them through their work. Jewellery being an inseparable aspect of Maithili culture secures a place in excellent works produced by some great Maithili scholars such as Chandeshwar Thakur who dedicated some part of his work to the description of jewellery.

The Vedic sage, Yajnavalkya in his Yajnavalkya Smriti gives a description of jewellery traditions of Mithila. He, it is said to have lived in the 8th BCE or 7th BCE penned his remarkable work titled as Yajnavalakyasmriti in which he mentions the various materials such as chaani (silver), sona (gold), stones and metals used in making jewellery. Through his work, he is able to recreate a picture of Ancient Maithili society that wore jewellery made of different materials.

In Ancient Maithili literature, Charyageet, Buddhist songs sung by Buddhist monks were popular among people who could preach their teachings through the songs. One of the lines from one of the songs is: “hath re kanganma leu dapan” (When you have bangles to adorn your hand, why would you need a mirror). The authority of bangle over the mirror is highly suggestive of the relevant space that as the poetry articulates jewellery acquires. This means that one need not be afraid of facing the mirror because jewellery enhances beauty. Different types of jewellery items have also been introduced through the songs, one of which is kanaet, a word that was previously used for karnphool but is no longer in use. The line says, “Kanaetchaureleladhrati” (The karnphool got stolen by a thief at night).

Jyotishwar Thakur is yet another important name in the history of Maithili literature who in his play DhurtaSamagama, Varnaratnakara and many other scholarly works comment upon jewellery and its uses. Jyotishwara in his work Pancasayaka mentions the ornaments for various parts of the body like nupur (payal, foot ornament), khuti(ear ornament) and suta (neck ornament, also called hansuli). His Dhurtasamagam describes the hermit as Kankan bah, gararudraksh, chaandanbinda lay sullat. (The hermit is wearing an armlet on his arm, a rudrakash in his neck and applied chandan on his forehead).

Vidyapati who is known as one of the most significant promoters of Maithili literature cites the types of jewellery in his writings. Through his writings, he explains the role and importance of jewellery in the life of the Maithili folk. For the married women, use of ornaments all over her body is essential while the widows are expected to throw away all her ornaments and jewellery along with rubbing off the sindoor(vermillion). Radhakrishna Chaudhary mentions in his book Mithila in the age of Vidyapati that flowers were used as an ornament for decorating hair. Sankha (shells) and moti (pearl), he identifies as two important materials used in making jewellery items in this region.

Jewellery items of Mithila


1. Nose ornaments nathiya, nath, nathuni, chak, laung, thop, butta, mareech, bulki
2. Ear ornaments karnphul, lori, maakri, kanausi, paasha, veer jhummak, top, Jhumka (2
Mahla& 3 mahla)
3. Neck ornaments hansuli, kaant, dholna, guamala, mangalsutra, kanthi, matar mala, asarfi
4. Arm ornaments baankh, jaisan, baaju, lapet, pahunchi, thek, keyur
5. Waist ornaments darkas, kochban
6. Foot ornaments kara, chara, pajeb, payal, bicchua ,nupur
7. Hand ornaments lahthi, kangan, shanka-pola,haathshankar, katri, kada,aaunthi (ring)
8. Other ornaments godna (traditional tattoo art form)

Many of the names of ornaments given in the table above are no longer in use which suggests that there have been changes made in the existing jewellery traditions which can also be found in the kind of language and vocabulary used by Modern Maithili writers. Modern Maithili literature begins with Chanda Jha. Maithili literature witnessed an all-round development during the period of his writing. Looking at the structure of vocabulary, it gets clear that while in traditional learning, Sankritized vocabulary prevailed; in the developing modern knowledge; easily understandable vocabulary has been getting increasingly important. Chanda Jha in his Ramayana uses traditional Sanskritized vocabulary as well. Harimohan Jha’s writings offer examples of both traditional and modern vocabulary.

Chanda Jha’s Maithili version of The Ramayana makes many references to jewellery. As soon as Rama was born, his mother, Kaushalaya came to know of his supernatural qualities. His appearance has been described as:

He was dark, like the petals of blue-lotus
And had four hands, and wrappings of gold-colour.
His eyes were red like lotus and he was bedecked with ear-rings.

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Ram’s ears that are bedecked with earrings add glory to his beauty that enthrals his mother who has realised that her son is extraordinary. In the Baalkand (childhood) section, Rama who is an avatar of Lord Vishnu is depicted with jewellery such as keyur (ornament for the arm) and gemstones. Chanda Jha has deliberately chosen to describe Rama wearing jewellery in order to comment upon his beauty by decorating his character.

Jha has also taken care while describing the character of Sita, the daughter of Mithila with providing details focusing on her beauty through the mention of adornments. The writer writes, “Ang alankritshobhitbhal.” (Her body is adorned with ornaments, adding charm to her beauty). Sunaina, Sita’s mother is so fascinated with her daughter’s beauty that she buys her ornaments and decorates her with them with her hands. Jha writes, “Sita kebujhidharmakbeti, hunakhetusringarkpeti.” (Considering her as an ideal daughter, Sunaina decides to buy Sita a jewellery box). Sunaina lavishly spends on her daughter and buys her expensive presents, one of which is jewellery. She would enjoy admiring the beauty of her daughter and would continue looking at her, unable to believe what she saw before her. Adorned with all her ornaments, she looked as though she were made of gold.

While describing the duraguwan ceremony, Chanda Jha writes that while Sita is about to depart from Mithila to settle down in Ayodhya with her husband, an arrangement is made to send along with her a huge box filled with smaller boxes. Inside these smaller boxes can be found jewellery items such as ratna (gems),lahthi and choori of many kinds. Even the palanquin that she is traveling in is made of gold and adorned with expensive clothes and decorations. When Sita reaches Ayodhya, Dasrath felt overjoyed to see his beautiful daughter-in-law whom he gifted expensive gems and jewels as presents.

The tradition of making Gods and Goddesses wear jewellery is an essential part of the Maithili culture. Moreover, through the mention of jewellery items; Jha is also able to comment upon the folklife of Mithila that holds high regard for jewellery items. One extremely important jewellery item that Jha has mentioned is lahthi which was significant as he suggests in Sita’s time and continues to remain the same till the present day. Lahthi, a compulsory hand ornament for Hindu married women is one of the most popular ornaments used in Mithila. Upendra Thakur comments,

“Making lac bangles is yet another popular craft in Mithila. The bangles have numerous types such as lahthi (simple bangles), tisiphula(bangles of marriage), chagotava (having six dots), kangana (specially of Baidyanath Dham, Deoghar), sukhapuri (thin), mathapa, motiya, bijulichata, phulavari, sahana, etc.”vi

Products made of lacquer are very popular with the Maithils. During every Hindu wedding ceremony, the bride is given a sindoordani (vermilion box) made of lacquer which is filled with a nose ring (a sign of being married) as a form of a present in the box by her parents.

Hari Mohan Jha, a professor of philosopher and author of several novels depicting philosophical churning in Mithila, has played a vital role in the growth of Modern Maithili literature. Unlike Chanda Jha who depended upon Sanskritized and old Maithili vocabulary for jewellery, Hari Mohan Jha blends both traditional Sanskrit and new Maithili influenced by English and Hindi vocabulary in his writings. His intent of doing so is very deliberate as one can find that through his writings, he attempts to comment and reflect upon the various changes in jewellery traditions. In his renowned work ‘KhattarkakakTarang’, he compares the jewellery of the previous times with that of the modern. Jewellery has been popular among people in Mithila right from the initial days and he proves it by stating that earlier, they would look for flowers to adorn themselves. He explains that chandan (sandal) has been replaced with cream, ash has been replaced with powder and thread ornaments worn on the waist have been replaced with belts. He writes, “Fashion badlai chai paruntamanushyakevaasnananaibadlai chai.” (Fashion trends may change but the human yearning for ornaments remains unchanged). Through the character of Khattar Kaka, he manages to discuss the various social and cultural changes in details. He expresses his opinion that what has to come shall come which is why nail polish, snow powder, new ornaments are being used by people in the current time. Citing an example of a pundit, he describes him wearing English shoes under the influence of western culture. Then, it would be right, he argues for the pundit’s wife to give up her lahthi and start wearing plastic bangles.

Umanath Jha is yet another writer to have talked about changes in jewellery traditions through his story titled as Aadha Ghanta. The changes include the incorporation of skirts and wrist watches. Describing a young girl, he writes that she wore gold bangles and earrings of a new design in her ears. She also adorned a flower ornament in her hair. Yoganand Jha in his story Bisralnaichailaik introduces the character of a young boy with a metal locket tied to a thick black thread. An eighteen-year-old girl wears adornments all over her body, with two-layered chain in the neck, nathuni/nathni(nose ring) in the nose, anguthi (ring) made of stone in her finger.

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The Modern Maithili writers mention the newer kinds of jewellery items and comment upon the social and cultural changes that have taken place in the region. While some jewellery items are still very much in use, many others are no longer available in the markets or found in the vocabulary used by the locals and writers. It is important to connect literature with jewellery for literature through the ages has tried to be true to social reality. Great social and cultural changes are often included in literature so as to portray the real picture of society to readers. The influence of Bollywood and changing trends is immense on Maithili folklife which has greatly affected folk jewellery.

Dr Makhan Jha in his Folklore, Magic and Legends of Mithila mentions mangtikas(forehead ornaments), khutis (ear ornaments), chandrahar, haikals, sikris(three kinds of necklaces), bajus and baks (two kinds of armlets) and other ornaments. Many of the words used by him in his work along with that of the ancient words used by Jyotiswara Thakur and other writers in their works are not a part of the current social reality. It has been noticed that many of the ancient words like chuli which was earlier used for bangle, valya which was used for bala (hand ornament), saakha which was used for shankha ,meshla used for darkas (waist ornament), kakna used for kangan, trika used for teeka and mundri used for authi (ring) do not enter the vocabulary of the current day Mithila, thus highlighting the changes in folklife.

Jewellery, it must be noted has remained a constant and crucial object in Maithili literature right from Jyotiswara’s time till the current days, meaning that jewellery is one such important aspect of Maithili folklife which cannot be ignored. The people of Mithila who are very proud of their merits and culture are also extremely proud of their jewellery items, some of which that can only be found in Mithila while some are those which can be found in other Indian regions as well. The jhumkas and the bali are common in many of the other Indian states while guamala and dholna which are neck ornaments are typical to Maithili folk jewellery. Maanteeka (maangteeka) and spiritual jewellery items such as rudrakash and tulsimala are worn by people in other parts of India as well. The Folk jewellery of Mithila is like a box that Chanda Jha mentions while describing Sita’s departure from Mithila. The Folk jewellery of Mithila is like a large box filled with smaller boxes, some which are common across Indian cultures and some which are only found in Mithila. Hansuli, a neck ornament, for instance, is another jewellery item that is found in many other regions like Rajasthan and Uttrakhand while darkas (waist ornament) is a local term used for waist ornaments found in other states. Asarfi (neck ornament made of coins) is popular across India but known by different names in the particular regions where it is worn. Bholanath Bhattacharya defines folk ornaments as primitive ornaments which have not been touched by modern techniques and embedded in old beliefs. However, the folk jewellery of Mithila cannot be put under such a stringent definition and seeks to challenge the notion of what folk jewellery is made of. Folk Jewellery of Mithila is a blend of traditional and modern cultural elements, of past melting down in the present. Like the folklife of Mithila, the jewellery of Mithila too cannot be fixed at one point, for it is persistently in a state of flux.


Endnotes :

i) Tagore, Rabindranath. Selected Short Stories of Rabindranath Tagore. New Delhi:
BPI India Pvt Ltd., 2013.

ii) Maupassant, Guy De. “The Diamond Necklace”.Onlineliterature.com.

iii) Russell, Rebecca Ross. Gender and Jewelry: A Feminist Analysis. 2010. p.1.

iv) Bhushan, Jamila Brij. Indian jewellery, Ornaments and Decorative Designs. 1964. p. 1

v) Misra, Jayadeva.Makers of Indian literature, Chanda Jha.1981.p.49.

vi) Thakur, Upendra. “Madhubani Painting”. 2003. p. 109


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author of Bharat Bhashya (a.k.a. SaraswatiHridyalankara)
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A kind of practice in which blessings are given along with chanting in Sanskrit, with some rice and grass bit in hand.
Followers of Saint Kabir
Jha, Ramdeo. Maithilī Lok Geet. Maithilī Lok SāhityaSvarūp O Soundarya. Mithilā research Society. Darbhanga. 2002. First edition. p. 45-61.
Lumbinī, the birthplace of Buddha, was situated in Nepal very close to (and previously a part of) Mithilā. Besides, Magadha and Vikramshila, strongholds of Buddhism were also adjacent to Mithilā. Another popular opinion in Mithilā is that Buddha could have born in Lumbini somewhere in Orissa. See— Das, Prafulla. ‘Orissa’s treasures’. Frontline. Volume 22. Issue 4. February 12-25, 2005.
Thakur, J., translated by Chatterjee, S. Varna-Ratnakara. Royal Asiatic Society of Bengal. Calcutta. 1940. p. 1.
Similar to Christian traditions of Birth, Confirmation, Marriage and Death.
A pushtimargi tradition was popular also as Haveli Sangeet. See— Das, Alokparna. Haveli Sangeet. Goya publishing. 2019. p. 1-4.
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This Jharni is different from the Jharni sung during rainy seasons.
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Mishra, S. Vidhi Vyavahār. PadmamuktaPrakashan. SarisabPahi. 2014 is an example of compilation of ritual songs.
Heritage audio-visual archive is an initiative by the government under the supervision of Indira Gandhi National centre for performing arts.


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“भुईयाबाबा” (तिरहुत के लोक देवता)

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अनादिकाल से तिरहुत ऋषि मुनियों, तपस्वियों ,वीरों , ज्ञानियों की भूमि रही हैं, यहां सभी जातियों की अलग – अलग लोकदेवताओं की पूजा होती हैं, उन्ही में से एक हैं “भुइयां बाबा” इनकी काल 14 शताब्दी बताई गई हैं, इनकी पूजा में मुख्य रूप से तीन व्यक्ति की पूजा होती है “बाबा बसावन , बाबा बख्तौर, मां गहिल”,
बाबा बसावन वैशाली जिला के लंगा बसौली ग्राम के थे, इनका वास्तविक नाम बसावन खिरहर था और बाबा बख्तौर तिरहुत के उत्तरी भाग कोई गढ़िया रसलपुरबके थे,इनका वास्तविक नाम आंसिक बख्तौर और इनके पिताजी का नाम पुरन राउत मां कोयला थी। बाबा बसावन और बाबा बख्तौर परम मित्र थे,

उसी युग में नारी महथि डेहुरी दरबार के राजा “दलेल सिंह”था जो अत्यंत क्रूर और निर्दई था,जो राज्य के सभी नागरिकों पर बहुत अत्याचार करता था,राजा दलेल सिंह एक लाख मुशहर जाति के लोगों का नरसंहार करने का कठोर फैसला किया हुआ था, बाबा भुइयां क्रूर दलेल सिंह के प्रकोप से राज्य के सभी नागरिकों का रक्षा किए थे और राजा से युद्ध करके 52 कोश के गोरिया वन पर विजय प्राप्त किए थे और समाज को शोषण से मुक्त कराए थे।

इस पूजा में मनारिया द्वारा कहे गए कथा (गायन शैली) अनुसार माता कोईला ने अपने विवाह के समय अपनी कुलदेवी गहिल मां(शक्ति) को अपने आंचल में ले कर अपनी ससुराल आ गई थी,जिनसे उनके भाई “बदल सिंह” अत्यंत क्रोध में थे।

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गहवर,वैशाली

मामा बदल सिंह अपनी कुलदेवी को मानने के लिए अपने घर में एक बहुत बड़ी अनुष्ठान किए थे , समस्त गढ़िया ने निमंत्रण दे दिए थे लेकिन अपनी बहन को इससे वंचित रखे थे,जब बाबा बख्तौर बोरिया वन की चिकनी घाट पर अपनी भैंस चरारहे थे तभी उनकी कान में मानर (क्षेत्रीय वाद्य यंत्र) की अनुराग सुनाई पड़ गई,जो नरहर नदी उनके मामा के घर “डिह सतौरा”में बज रही थी, उन्होंने अपने तंत्र साधना से यह पता कर की यह अनुष्ठान उनके मामा के घर में हो रही है,जिससे वह अत्यंत क्रोधित हुए।

उन्होंने अपने घर आ कर अपनी मां से अनुमति मांगी अपने मामा घर पूजा देखने जाने के लिए, परंतु माता कोईला में मना कर दिया यह कहकर कि बिना निमंत्रण तुम वहां मत जाओ, तुम्हारा आदर सम्मान नहीं होगा, परंतु बाबा बख्तौर अपने जिद्द पर अड़े रहे अंतिम में उनकी मां ने उन्हें अनुमति दे दिए और उन्हें पान और कुछ खाद्य सामग्री दे कर कहा कि वह तुम दूर बैठ कर पूजा देख लेना और इसे खा कर चले आना पूजा की प्रसाद ग्रहण नहीं करना।

जब उन्होंने अपने ननिहाल पूजा देखने पहुंचे तो वहां उनके मामा द्वारा उनका अपमान किया गया,जिसके क्रोध से बाबा बख्तौर ने पूजा भंग कर के वापस बोरिया वन घूम कर चले आए ।

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तब उनके मामा बदल सिंह और नारी महथि के राजा दलेल सिंह ने तांत्रिक गुणों से उत्पन्न शेला बाघ और लुलिया बाघिन को भेज दिए बाबा बख्तौर की मार डालने केलिए
बोरिया वन में बाबा बख्तौर उनके भैसों संग दोनों बाघ और बाघिन कि युद्ध हुआ जब भैंसो ने अपने सिंह से बाघों पर प्रहार करता तो उसका प्राभाव बाघों पर नहीं बल्कि बाबा बख्तौर पर पड़ता अंत में दोनों बाघ बाघिन ने बाबा बख्तौर को मार डाला ,किसी सामान्य बाघ बाघिनों से उनकी मृत्यु असंभव थी क्योंकि बाबा बख्तौर के पास खुद 7 भैंसो की शक्ति थी,उनकी मृत्यु पश्चात उनकी स्त्री हीरा मोती को यह पता चल गया कि उनकी सुहाग अब इस भूलोक में नहीं हैं क्योंकि हीरा मोती स्वयं एक सत्यवती स्त्री थी।

इन्हें लोक देवता की ख्याति प्राप्त हुई सभी जातियों मान सम्मान प्राप्त हुआ ,बाबा भुइयां समाज सुधारक गौ रक्षक पशु पालक थे,उनकी कथा की गायन शैली जो मनरिया द्वारा गाया जाता है उसका कोई और जोर नहीं हैं।।


 

बाबा भूइया (तिरहुत केर लोक देवता)

 

तिरहुत में सब जातीके अनेक लोक देवताके पुजा होई छै , सेहे मे एक गोटे भूइया बाबाके पूजा सेहो होई छै, हिनकर काल 14 शताब्दी बताएल गेल हय, पूजा में मुख्य रूपसे तीन गोटे केँ पूजा होएत छइ बाबा बसावन , बाबा बखतौर, माँ गहिल के!
बाबा बसावन वैशाली जिलाके बसौली लंगा के रहथिन हिन्कर वास्तविक नाम बसावन खिरहर रहैन्ह आऽ बाबा बखतौर तिरहुत के उत्तर अङ्ग कोनो गढ़ीया रसलपुर के रहथिन हिनकर नाम आंसिक बखतौर रहैन्ह आ बाबुजिके नाम पूरन राउत रहैन्ह माँ कोइला रहथिन!
ताही युग में नारी महथि डेहुरी दरबार के राजा ”दलेल सिंह” रहैन्ह जे अत्यंत क्रुर आऽ निर्दय रहइ जे समाज केर लोक सब पर बड़ अत्याचार करैत रहइ,राजा दलेल सिंह एक लाख मुश्हर जातिक लोक सबके हत्या करेबाक निश्चय कएले रहइ , बाबा भुइयां राजा दलेल सिंह के प्रकोप से सगर समाज के रक्षा कएले रहथि आऽ दलेल से युद्घ करी के 52 कोस के गोरीया वन पर विजय प्राप्त कयले रहथिन एवम समाज के शोषण से मूक्त करयलन!

 

 

एही पूजा में मनरिया द्वारा कहल गेल कथा अनुसार माता कोईला विवाह समय अप्पन खोइछा में कुलदेवी””गहिल ”
के लय के अप्पन सासुराल आएल रहथिन जाहि कारणे हुंनक भाई ”बदलसिंह” क्रोध मे रहथिन!
मामा बदल सिंह अप्पन कुल देवी में मनाबे लेल अप्पन घर में अप्पन नाम सँ पूजा कएले रहथिन, सगरो गढ़िया में न्योत हकार दय देलखिन्ह मुदा न्योत अप्पन बहिन घर नहि पठओलन, जखन बाबा बखतौर अप्पन खैरा (भैस) के बोरीया वन में चिक्नी घाट पर चरबैत रहथिन तखन हुनका कान मे पड़ी गेल मानर के अनुराग जे मामा बदल सिंह नरहर नदी पार डिह सत्औरा में कराबैत रहलन!

“बाबा बखतौर माए कोइला के कहलनजे हम पूजा देखे जाएब हमरा चद्दर लाठी दे , हुनकर माय मना क देलखिन्ह जे बउआ तु बिनु न्योत & हकार के पूजा देखे नय जा तोरा मान सम्मान नय होतौ , बाबा बखतौर जिद्द् पर आ गेलखिंह जे हम पूजा देखे जय्बे करब तखनि माई कोईला हुनका चद्दर के खुट के पान आऽ किछ खाय लेल समाग्री बान्ह देलखिन्ह जे तु पूजा के कोनो प्रसाद नइ खईअह”
जखनी बाबा पूजा देखे अप्पन मानिहाल गेलखिन ओतही हुन्कर अपमान कएल गेल बाबा बखतौर पूजा भङ् करी बोरिया वन घुरी चली अलखिन्न तखने बदल सिंह & दलेल सिंह सर्यंत्र करी तांत्रिक गुण से तैयार शेला बाघ & लुलिया बाघिन से हुन्कर हत्या करवा देलखिन्ह!
किएक त सामान्य कोनो बाघ & बाघिन से हुनकर हत्या सम्भब नय रहइ हुनका असगरे 7 भैसा के शक्ति रहइ, हुन्कर मृत्यू होईते हुनकर कनिया हिरा मोती के संदेश प्राप्त भ् गेल रहैन्ह किएक त हीरा मोति अपने एक गोट सत्वर्ती स्त्री रहथिन
हुनका लोक देवताक ख्याति प्राप्त भेल आ सब जाति में मान सम्मान भेटल , भुइया बाबा समाज सुधारक सेहो रहथिन एवं पशु रक्षक सेहो रहथि हिनक कथा के रस मात्र मनारिया द्वारा गायल गेल में हि भेटत जकर कोनो परतर नहीं।


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लोकदेवताक अध्ययन विधि

मैथिली मचान पर हाले में धर्मराज बाबा के विषय में एक टा संक्षिप्त आलेख प्रकाशित भेल छल। ओहि आलेख पर किछु नींक टिप्पणी आ आग्रह सेहो पोस्ट भेल। पढ़ि कय मोन प्रसन्न भेल जे ग्रामदेवता आ कुलदेवता के विषय में अखनो बहुत लोक जिज्ञासु छथि। नव पीढ़ी यदि अहि प्रश्न में रुचि लइथ त कम समय में बहुत जानकारी संकलित भ सकैत अछि।

 

मुदा आन सब कार्य के समान अकादमिक शोध या रुचि सेहो कनी तकनीकी विधि (Methodology) के अपेक्षा राखैत छैक। अहि आलेख में हम नवतुरिया सब लेल किछु अपन अध्ययन विधि के किछु सामान्य बिन्दु प्रस्तुत क रहल छी। मुदा आरंभ करय स पहिने दू टा बातनिवेदन करब। पहिल बात,ई आलेख समाजशास्त्री या विद्वान लोकनि लेल नहि अछि, सिर्फ मूलभूत अवधारणा के प्राथमिक स्तर पर चर्चा कैल गेल अछि। दोसर कोनो प्रकारक सामाजिक अध्ययन अनेकों विधि सं भ सकैत अछि। एतय एक टा विधि प्रस्तावित अछि, एकरा स भिन्न बहुत आन तरहक अध्ययन विधि सेहो स्वागतयोग्य अछि। लोकदेवताक अध्ययन निम्नांकित किछु बिंदु में व्यवस्थित कयल जा सकैत अछि।

सब स पहिने जाहि ग्रामदेवताक अध्ययन कयल जा रहल अछि ओकर उपासना स्थलक भौगोलिक आ सामाजिक परिदृश्यक आकलन करबाक चाही। देवस्थान नदी कात में अछि,गाम के बीच में अछि, चर-सरेह में अछि, कोनो टीला पर अछि, कोनो गाछ तर अछि, गाछ अछि त कोन गाछ तर अछि, इत्यादि प्रश्न पुछबा के चाही। देवी-देवता के वर्गीकरण हुनकर आवासीय प्रवृत्ति स सेहो होइत छैन्हि। समाजशास्त्रीय अध्ययन स ज्ञात होइत अछि जे अधिक पुरातन वर्ग के देवी सबहक विषय में सामाजिक धारणा छैक जे ओ पईघ गाछक तुलना में झाड़ी आ फलदार छोट गाछ जेना बेल, नीम, बेर, इमली पर निवास करैत छथि।

 

किछु देवी एहन भेटती जिनका विषय में प्रसिद्ध अछि जे ओ खुजल स्थान में रहय चाहैत छथि। कहल जाइत छहि जे यदि कोनो व्यक्ति हुनकर स्थान पर मंदिर या ऊपर स छत बनयबाक कोशिश केलखिन त देवीस्वप्न देलखिन जे हमर स्थान पर मंदिर आ छत नहि बनाबय के चाही। एकर अर्थ भेल जे ओदेवी अखन तक वनदेवी (Goddess of Wild )छथि आ सांस्कृतिक रूप स हुनकर स्वीकृति ग्रामदेवी के रूप में नहि भेल छनि। बहुत देवी छथि जिनका चिनबार पर या पूजा घरक भीतर रहय में कोनो आपत्ति नहि होइत छैन्हि। भौगोलिक स्थिति के विश्लेषण स देवी-देवताक प्रकृति के थोड़ेक अनुमान कयल जा सकैत अछि।

जेना बघौत बाबा के स्थान अधिकतर नदी कात या चर-चांचड़ में भेटतया आदर्श रूप में बरहमथान गाम स बाहर पच्छिम दिशा में हेबाक चाही, आदि।

अहि प्रकार ग्रामदेवताक स्थानक सामाजिक पृष्ठभूमिक आकलन सेहो लाभदायक होइत छैक। गामक किछु लोकदेवताकस्थान में मुख्यतः दलित समाजक लोक पूजा लेल जाइत छथि। कतेको राजपूत बहुल गाम में बरहमथानक जगह माईस्थान अधिक प्रशस्त भेटैत अछि।इहो गौर करय के चाही जे ओहि स्थानक सेवक या सेवैत के छथि। ओहि स सेहो सामाजिक पृष्ठभूमिक किछु अंदाज भेट सकैत अछि। प्रत्येक गाम में अनेकों देवस्थान भेटत, मुदा कोन समाज केकरा कतेक महत्व दैत अछि से ज्ञात करय के एक टा तरीका अछि जे पता कयल जाय किओ समुदाय मुंडन, उपनयन, विवाह आदि के उपरांत गामक कोन देवस्थान में पहिल दर्शन करय लेल जाइत छथि। अहिना कुलदेवताक अध्ययन करैत सामाजिक पृष्ठभूमि के सब स पहिने देखय चाही। कि परिवार कोनो दोसर गाम स ऐतय आबि क बसल छथि? देशांतरण (माइग्रेशन) आ कुलदेवताक बीचक संबंधक अध्ययन बहुत उपयोगी भ सकैत अछि।

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लोकदेवताक स्थान पर कोनो मंदिर या चबूतरा, या घेराबा यदि छैक त ओकर बनय के तारीख जानय के चाही। यदि कोनो संरचना बनल छैक त फूसक छैक कि सीमेंटक बनल छैक?देवस्थानक जिम्मा कतेक जमीन छैक,कि ओ जमीन पहिल सर्वे में दर्ज छैक, खतियानी छैक कि नहि ?कि जमीन में कोनो विवाद छैक ? यदि हां त ओकर चरित्र कि छैक, आदि।
ओहि स्थान के अथवा देवी-देवता के पाबनि-तिहार कहिया होइत छैक,साओन या आसिन या माघ या चैत?इहो गौर करय के चाही जे हिनकर पाबनि कोनो फसिल चक्र अथवा ऋतु चक्र स जुड़ल अछि अथवा नहि।

गैर-खेतिहर आ गैर-पशुचारी समाज के पाबनि ऋतु-चक्र स मुक्त भ सकैत अछि। कतेको दलित समुदाय छथि जिनकर पूजा नियतकालीन नहि होइत छैन्हि, जखन पाई इकट्ठा भ जाय त ओ सब पूजा द दैत छथिन्ह। ज्यादातर ग्रामदेवी-देवताक पाबनि साओन मास में देखल जायत अछि। पाबनिक मास स सेहो देवी-देवताक चरित्र प्रकाशित होइत अछि। यदि कोनो कालीस्थान में पिंडी बनल अछि आ साओन मास में पाबनि होइत छैक त ओ बंगालक तांत्रिक प्रभाव बाली दक्षिण कालिका स भिन्न काली छथि। सप्ताह के कोन खास दिन बेरागन मानल जाइत अछि, सोम-शुक्र, मंगल-शनि अथवा आर कोनो?पूजाविधि एवं कर्मकांडक गवेषणा आवश्यक छैक,यद्यपि काल-क्रम में अलग-अलग देवी-देवता के अनुष्ठानक विशिष्टता आ विविधता समाप्त भ गेल छैक। तथापि भुईयां बाबा, सलहेस महराज, राह बाबा, शशिया महराज एवं अन्य लोकदेवता के पूजाविधि में शास्त्रीय परंपरा स जे भिन्नता छैक ओकरा ध्यानपूर्वक नोट करय के चाही।

देवी-देवता के भोग-प्रसाद के विश्लेषण अध्ययन के मुख्य विषय भ सकैत अछि। जनऊ, धोती, लंगोट, लाठी, खड़ाऊँ, गाँजा, खीर भोजन, कड़ाही प्रसाद में स कि चढ़ैत छैक?हुनका रक्तबलि पड़ैत छैक कि नहि?यदि पड़ैत छैक छागर, पाठी, सूअर, परेबा, मुर्गा आदि में स कि सब? कि बलि आब बंद भ गेल छैक?कि आब सांकेतिक बलि होइत छैक?सांकेतिक बलि जेना झिमनी या कुम्हरक बलि देबय के प्रथा सेहो देखल जाइत छैक।

कुलदेवताक पूजा में कि सब भोग चढ़ैत छैक,केरावक दलही पूरी, बिना चीनी के तस्मै, बिना नीमक के पकवान? देवता के भोग स हुनकर स्वभाव आ पृष्ठभूमि के अतिरिक्त हुनकर उद्भव के किछु अंदाज लगा सकैत छी। एक टा वस्तु पर गौर करियोक कि पूजा में जौ के उपयोग होइत छहि मुदा गहूम के नहि। जातिगत समाज में तिल के उपयोग अनुष्ठान में होइत छैक मुदा जनजातीय समुदाय में सरसों-राई के। प्रतीत होइत अछि जे जाहि समुदाय में जे प्रथम फसिल होइत छैक ओ पवित्र बनि जाइत अछि। केराव (अंकुरी) दालि के अनुष्ठानिक महत्व देख क लागैत अछि जे ई पहिल दालि रहल हैत। एकर आन व्याख्या सेहो संभव अछि, मुदा खास बात ई जे लोकदेवता के अनुष्ठान में अर्पित वस्तु के ध्यानपूर्वक अध्ययन करय के चाही।

लोकदेवता संग एक टा खास बात ई अछि जे सब के पूजा पिंडी के रूप में होइत छैक, विग्रह के कोनो रूप नहि होइत छैक। ताहि लेल हिनकर नामें पर ध्यान देबाक चाही। नामें सब स अधिक महत्वपूर्ण संकेत भ सकैत अछि।मुदा एतय किछु सावधानी के सेहो आवश्यकता होइत छैक। किछु लोक ब्रह्म नाम सुनैत देरी हुनका वैदिक-पौराणिक देवता ब्रह्मा स जोड़ के प्रयास में लागि जाइत छथि।कोनो देवी के नाम अवैत देरी दुर्गा आ पौराणिक शक्ति के अवधारणा स जोड़य लेल व्याकुल भ जाइत छथि। लोकदेवताक नाम के कोनो संस्कृत शब्द स समानता के कारण लगले कोनो वैदिक-पौराणिक देवता स तुलना नहि करय के चाही।जेना अधिकतर गाम में बरहमथान होइत अछि। बरहम बाबा के नाम अक्सर कोनो ठाकुर कहल जाइत छनि।

अक्सर एहन युवा ब्राह्मण जिनकर यज्ञोपवीत भ गेल छैन्हि लेकिन विवाह नहि भेल रहइन आ ओ अकस्मात मृत्यु के प्राप्त भेला, हुनका गाम के ब्रहम के रूप में प्रतिष्ठा देल जाइत छैन्हि। पीपड़-पाकड़ के गाछ पर निवास करय बला बरहम बाबा वृक्ष पूजा, यक्ष पूजा एवं डीह स्थापित करय के जनजातीय परंपरा के मूर्त रूप छथि पौराणिक ब्रह्मा के नहि। अहिना धर्मराज के यमराज या युधिष्ठिर स जोड़ल जाइत अछि। धरमठाकुर के संप्रदाय बंगाल स विकसित भ क पूर्वी बिहार आ मिथिला में फैलल अछि। पश्चमी बिहार आ उत्तर प्रदेश में ई संप्रदाय गौण अछि। धर्मराज संप्रदाय के गहन अध्ययन करय बला किछु यूरोपीय विद्वान सबहक आकलन में धर्मराज संप्रदाय के मूल तत्व गहन जनजातीय परंपरा आ बौद्ध धर्म स प्रभावित अछि। भारतक धार्मिक विकास में वैदिक-अवैदिक सब तरहक धाराक महत्व रहल अछि।

लोकदेवताक अध्ययन तखने सार्थक भ सकैत अछि जखन ओहि देवी-देवताक विशिष्टता उजागर कयल जा सकै। ताहि लेल आग्रह जे ग्रामदेवता आ कुलदेवताक अध्ययन में अनिवार्य रूप स पौराणिक कथा आरोपित नहि करी। बल्कि लोकदेवता के उपासना मण्डल में प्रागैतिहासिक तत्वक प्रचुरता रहैत छैक। पौराणिक तत्व के तुलना में प्रागैतिहासिक जनजातीय तत्व के पहचान कहीं अधिक लाभदायी भ सकैत अछि।

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लोकदेवता के प्रचलित कथा एवं गीत के आलोचनात्मक अध्ययनक प्रयास करय के चाही। प्रत्येक लोकदेवता के उद्भवक किछु कथा होइत छहि, जाहि में ओहि गाम-समाजक इतिहास सेहो निहित रहैत छैक। एक टा शोधार्थी के ओहि कथाक आलोचनात्मक दृष्टि स विश्लेषण करय के आवश्यकता पड़ैत छैक। जेना बहुत स्थान पर सती माईक स्थान भेटत। कालांतर में बहुत रास पौराणिक कथा ओहि में जुड़ल हैत, मुदा कनी टा खोदला स पता चलि सकैत अछि जे गामक कोनो बेटी-पुतौहु कोनो अन्याय के प्रतीकार में आत्मदाह केने हेती आ संपूर्ण गाम मिल कय ओहि अपराध के झांपन देबय लेल, ओहि स्थान के तीर्थ में रूपांतरित केने छथि। एक टा आर उदाहरण देब। कईएक गाम में मुसहर बाबा, दुसाध बाबा आदि के थान भेटत। खोज बीन स पता चलत जे कोनो जमींदार के अत्याचारक कारण कोनो हरवाह-चरवाह के जान चलि गेलैक। मरला के बाद ओ स्वप्न देलकइ जे हम फलां गाछ पर छी। हमरा पूजा दीय त आहांक अनिष्ट नहि हैत। जाहि मुसहर के जीवैत एक लोटा जल नहि भेटलई ओकरा मरय के बाद फूल पान प्रसाद भेटय लागल। कारण अपन अनिष्ट के आशंका! ग्रामदेवता के खोज अहां के ग्रामीण इतिहास के ओहि अध्याय स परिचित करा सकैत अछि। शोधार्थी के लोकदेवताक अध्ययन में सामाजिक अन्याय के परंपरा के प्रति सेहो जागरूक रहय चाही।

कुलदेवी-कुलदेवताक यदि गप्प करी त एकटा रोचक गप्प ई जे सवर्ण परिवार में कुलदेवी-देवता मात्र एक टा देखल जाइत छथि मुदा पिछड़ा परिवार में 3- 4 एवं दलित परिवार में 8-10 तक भ सकैत अछि। प्रायः ई जाति सब में कतेको तरह के पूर्वज मनुषदेवा आ कुमरदेवी के रूप में पूजित होइत छथि। एकरा अतिरिक्त ई लोकनि प्रायः बाहरी समाज स आशंकित हुअ के कारण अपन पुरातन देवी-देवता के कुलदेवता के रूप में बचेने आयल छथि। इहो भ सकैत अछि जे कुल के धारणा दलित-पिछड़ा समाज में विकसित नहि होय ताहि लेल अहि प्रश्न के उत्तर में ओ अपन जाति देवता के सेहो कुलदेवता के रूप में प्रस्तुत कय दैत छथि।

मनुषदेवा के अवधारणा एक प्रकार स विशिष्ट पूर्वजक स्मृति के बचा क राखैत छैक। कतेको बेर दुर्घटना या बीमारी स असमय मृत्यु पाबय बला परिवार के सदस्य मनुषदेवा के रूप में पुजाइत छथि। हुनका पर डायन के शिकार हुअ के अंदेशा सेहो रहैत छैक। किछु परिवार में नया मनुषदेवा आइब गेला के बाद पुरान पृष्ठभूमि में चलि जैत छथि। पूर्वी बिहार में एकरा गैयाँ पूजा सेहो कहल जैत अछि। अहिना अविवाहित कुमारि लड़की के असमय मृत्यु के बाद भगत लोकनि ओकर आत्मा के संतुष्ट करय लेल हुनको पूजा देबय के बात कहैत छथि। मुदा कुमरदेवी के चलन मानुषदेवा स कम देखय में आवैत अछि।

उपासना स्थल (Sacred space)यानी आवासन के ओ भाग जे धार्मिक कृत्य लेल उपयोग होइत अछि ओकर कई एक दृष्टि स अध्ययन कयल जा सकैत अछि। ज़्यादातर घर में भंडारकोण में कुलदेवता के पीढ़ी या पिंडी या चिनबार बनाओल जाइत अछि। मुदा एकर अपवाद सेहो देखय के भेटत। जेकरा घर में जगह के अभाव छैक, विशेषतः दलित जाति के गरीब लोक लग, ओ मनसा पूजा यानी बिना पिंडी के मानसिक संकल्प स पूजा करैत छथि। किछु ग्रामीण घरक लग एक जगह साफ कयबिना कोनो पिंडी के ओकरा पूजा-पाठ के जगह बना लईत छथि जेकरा देवकुड़ी कहल जाइत छैक।

उपासना स्थलक दृष्टि स कुलदेवता-ग्रामदेवता के पांच स्तर देखय में आवैत अछि। सब स भीतर चिनबार पर, ओकरा बाद पूजा घर के देहरी पर, फेर आंगन मे, गाम के भीतर आ तखन गाम के बाहर। ई पांचू पांच तरह के देवता छथि जे अलग-अलग स्तर पर पूजित होइत छथि। जेना कुलदेवी बन्नी या बंदी या काली-बंदी माई सब स भीतर, देहरी पर गोरैया,आंगन में महाबीर, कोयलाबीर या अन्य कोनो बीर, गाम में बरहम बाबा आ गाम के बाहर बघौत बाबा आदि के शृंखला कतेको गाम आ परिवार में देखल जा सकैत अछि। ई क्षैतिज विस्तार (Spatial spread)अध्ययनक एकटा बिंदु भ सकैत अछि।

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कुलदेवता के पूजा आ हुनकर प्रसाद में महिला सभक भागीदारी ध्यान देबय लायक विषय अछि। कतेको एहन देवता छथि जिनकर पूजा आ ओरियान महिला सब नहि करैत छथि। कतेक जगह पुतौहु के कुलमंत्र लेला के पश्चात अथवा एक टा विशेष अनुष्ठान (घीढारी) के बाद कुलदेवता पुजय के अधिकार भेटय छन्हि । किछु परिवार में कुलदेवता के प्रसाद बेटी सबके नहि देल जायत छैन्हि। प्रसाद खाय में सेहो बहुत नियम देखल जाइत छैक। ज़्यादातर कुलदेवता के प्रसाद पूजा घर में खा कय बचल ओतय गाड़ि देल जाइत छैक।अथवा घरक सीमानक बाहर नहि जाइत छैक। मूल जनजातीय पद्धति आ रक्तबलि परंपरा में प्रसाद सीमानक बाहर जाय के प्रावधान नहि छैक,ताहि लेल यदि किनको घर में प्रसाद कुल या घर स बाहर जाइत अछि त ओकरा नियमक शिथिलन रूप में देखल जा सकैत अछि। घड़ी पूजा में रोट तोड़य बला व्यक्ति पर घर स बाहर निकलय पर प्रतिबंध सेहो अहि दृष्टि स महत्वपूर्ण अछि।

पिछड़ा आ दलित परिवार में कुलदेवताक नाम विवाहक संबंध निर्धारण में जांचल जाइत छैक। प्रत्येक परिवार वास्ते किछु वर्जित देवी-देवता होइत छैक। केकरो जलपा वर्जित, केकरो अलखिया, केकरो गहिल । जाति के भीतर एक प्रकार के छोट समुदाय बनि जाइत छैक। संभवतः जातिक निर्माण समान पेशा बला विभिन्न समूह के मिश्रण स भेल अछि। समान कुलदेवता के मतलब समान उपसमूह भ सकैत अछि। जेना विभिन्न प्रकारक पशुचारी समुदाय मिल कय आई के यादव जाति बनल हैत। लेकिन एक जाति बनि गेला के बावजूद आंतरिक दरार विवाहक समय उभरि जाइत छैक। या जेना गोत्र, मूल, पांजि मैथिल ब्राह्मण आ कायस्थ जाति में विवाह लेल महत्वपूर्ण विचारबिंदु होइत छैक तहिना कुलदेवता किछु दलित-पिछड़ा जाति में होइत छैक। हालांकि आधुनिकीकरण संग एकर महत्व आब कम भ रहल अछि।

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अध्ययनक एक टा पैघ स्रोत देवी-देवताक कथा आ गीत भ सकैत छल। मुदा देखब में आबैत छैक जे करीख, सोखा, गोरैया, गणीनाथ, सलहेस, दीना-भद्री आदि सब देवताक कथा आ गीत एके रंग भ गेल छैक। सांस्कृतिक आदान-प्रदान एवं आपसी पैंच-उधारी करैत-करैत प्रत्येक के अपन विशिष्टता धूमिल भ गेल अछि। एक टा आर अफसोसक गप्प अछि जे अखन तक भगत अथवा दलित-पिछड़ा समुदाय के पुजैगरि समुदायक विधिवत अध्ययन नहि भेल अछि।

 

भगत, डलवाह, पंजियार लोकनि ग्रामदेवताक परंपराक असली वाहक होइत छथि एवं देवी-देवताक खिस्सा, गीत, पूजा विधि आदि के ज्ञान रखैत छथि। जानकार भगत संग संवाद बहुत तरहक सूचना स्रोत भ सकैत अछि। एकर अर्थ ई नहि अछि कि झाड़-फूंक संबंधी दाबा के ओहि रूप में स्वीकार कय लेल जाय। मुदा ओ लोकनि लोकदेवताक धरातल के समझय लेल सब स महत्वपूर्ण स्रोत भ सकैत छथि, ताहि में संदेह नहि। आखिरी बात,एक ग्रामदेवता-कुलदेवता के उपासना प्रत्येक गाम आ परिवार में भिन्न-भिन्न स्वरूप में भ सकैत अछि।ओकरा अनावश्यक रूप स मानिकीकृत (standardise) आ समरूप (Homogenise)बनाबय के प्रयास नहि करय के चाही। यदि सबहक अवलोकन के मैथिली मचान पर नियमित रूप स पोस्ट एवं संकलित कायल जाय त विशाल सूचना कोश एकत्र भ सकैत अछि। सब उत्साही लोकक स्वागत अछि।

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भुख और प्यास का चेहरा कैसा होता है?

बचपन में दरभंगा से बाबाधाम‌ जाने के रास्ते में सिमरिया पड़ता था। वहां गंगा स्नान करने और एक रात बिताने के बाद गंगा के उस पार हथिदह से ट्रेन पकड़ हम देवघर पहुंचा करते। वापसी भी सीधे नहीं हुआ करती। मोकामा, बरौनी‌ या समस्तीपुर में ट्रेन बदलना होता। भीड़ से लबालब भरे ट्रेन। ऊपर से भीषण गर्मी। हम बच्चों को खिड़की के माध्यम से घुसा दिया जाता। वापसी में आते वक्त जसीडीह ‌स्टेशन के बाहर से सुड़ाही खरीद पानी भर लिया जाता। लेकिन गर्मी, भीड़ और ट्रेन के देर होते जाने की नियति का मिला जुला असर भुख और प्यास में निकलता। सिग्नल‌ पर गाड़ी घंटों खड़ी हो जाया करती और खीरा, ककड़ी या ‘फिर लिट्टी खाओ पानी पियो’! यही हमारे लिये बरदान की तरह आते। मांग इतनी हुआ करती कि इन शब्दों को सिग्नल पर‌ सुन लेना और इनके मिल जाने की हकीकत के बीच निराशा से मन और आंखें कई कई बार खाली ही लौट आती।

खैर, बचपन बीता और वह‌ समय भी बीत गया। पिछले कई दशकों से भुख और प्यास को जैसे भुल ही बैठा था। पिछले दिनो, लौट रहे प्रवासी मजदूरों के चित्रों में, वायरल वीडियो ने भुला दी गयी भुख और प्यास को फिर से सामने खड़ा कर दिया है।

 

सबसे पहले ट्रेन की पटरियों पर कटकर मर गये मजदूरों की पोटलियों से निकल कर रेल की स्टील पटरियों की पहरेदारी में रोटियां दिखाई दी। फिर, कटिहार जंक्सन पर खाने के पैकेट के लिए झगड़ते प्रवासी मजदूरों का वायरल वीडियो। फिर तो जैसे सैलाव ही आ गया हो। उससे पहले भी खाने को लेकर होती झड़पों की खबरें आने लगी थी। दिल्ली में प्रवासी मजदूरों के शैल्टर हॉम के आग‌ लगने की खबर, यमुना‌किनारे निगम बोध घाट के शमशान के निकट मॄत शरीर के साथ मॄत आत्मा के लिये छोड़ दी गयी केले को चुनते प्रवासियों की तस्वीरें और राशन की लंबी कतारों में इंतजार करती पथराई आंखें।

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फोटो : गूगल

अभी कल परसों इटारसी स्टेशन पर खाने के पैकेट को लेकर मचे भगदड़ का दॄश्य। सभी कुछ सामने ही तो है।
रेणु के कथा रिपोर्ताज, ‘हड्डिया का पुल’ से टहलु मुसहर की पुतोहु भगिया का चेहरा निकल कर सामने आ जाता है। “पुल से दो मील उत्तर एक ‘चौर’ में ‘करमी’ और सारुख’ खोजनेवाले भूखों की जमात ने आंखों पर उँगलियों का ‘शेड’ डालकर देखा…

 

‘ठीक वैसा ही! विशाल! लाल! काली माई की जीभ की तरह लाल…।’ “

 

नहीं! ऐसा कतई नहीं है कि भूख और प्यास हमारे बीच‌‌ से गायब हो गया हो। यह हमेशा से साथ रहा। बस्तर और कालाहांडी की तस्वीरों और रपटों में हम मिलते रहे।‌ फिर, कभी न थमने बाला किसानों की आत्महत्या। लेकिन, यहां भूख से अघिक कर्ज‌ के बोझ से दमित किसान और उनकी लाचारी ही दिखती रही कुछ कुछ मदर इंडिया सिनेमा से निकल‌कर आती तस्वीरों की तरह।

पर इन सभी तस्वीरों में भुख आपदा‌ और गरीबी के साथ जुड़कर आती रही।

 

पहली दफा, प्रवासी मजदूरों के साथ भूख ने इस कदर तालमेल बैठाया हो, ऐसा लगता है इन वायरल वीडियो से। इससे पहले भूख भूमिहीन कॄषि मजदूरों को माईग्रेंट‌ के लेबल के साथ शहरों में ला पटकता रहा।‌ लेकिन एक दफा प्रवासी बन जाने के बाद भूख जैसे उन‌ तस्वीरों से गायब ही हो जाता था। हम श्रम की महत्ता की बात करने लग जाते।

तस्वीर आपको कई दिशाओं में ले जाते हैं, कुछ कुछ कविताओं की तरह
और मुझे याद आता है चट्टोप्रसाद भट्टाचार्य द्वारा 1943-44 के बंगाल के अकाल को‌ चित्रित करते स्केच। सत्यजीत रॉय और ख्वाजा अहमद अब्बास के सिनेमा। बूट पॉलिस…और जागते रहो का प्यास।

 

नहीं! यह हिंदुस्तान को देखने के उस साम्राज्यवादी एवं प्राच्यवादी नजरिये से बिल्कुल उलट था जिसमें हिंदुस्तान को गरीबी पिछड़ेपन और भूख से त्रस्त ही दिखाया जाता‌ या जहां महज राजा या रंक ही मिलते। जब उन्नीस सौ तीस के दशक में अमॄता शेर गिल आदिवासी औरतों का‌ चित्र बना रही थी तो वहां इनके चेहरों पर गरीबी, सादगी, सहमी ठहरी सी भावनाओं के साथ एक अजीब सा स्वाभिमान भी मिलता है जिससे पूरे कैनवास में एक अदभुत ग्रेस आ जाता है। 1936 में यूं ही तो उन्होनें मदर इंडिया के पेंटिंग हेतु आदिवासी चेहरा नहीं चुना।

 

वे बीते दशक के कैथलीन मेयो की मशहूर छवि मदर इंडिया को बड़े प्रभावशाली तरीके से सवभर्ट कर रही थी। भारत की एक नयी छवि गढ़ रही थी। सत्यजीत रॉय, चट्टो प्रसाद भट्टाचार्य, ख्वाजा अब्बास, प्रेमचंद, ताराशंकर बंदोपाध्याय, रेणु या अमॄता शेर गिल जिस भुख और गरीबी और पिछड़ेपन को सामने ला रहे थे वह न तो प्रकृति प्रदत्त था न ही सभ्यता जनित। वह मानव निर्मित था। हमारे बीच से, हमारे द्वारा निर्मित।‌ इसीलिये तो निराला का भिक्षुक कहीं ऊपर से नहीं टपकता है। वह चलकर आता है ऐर अचानक से सामने आ जाता है।

“वह आता दो टूक कलेजे को करता पछताता पथ पर आता
पेट पीठ दोनो मिलकर हैं एक चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को – भूख मिटाने को…”

मन भटकता है। कभी बंगाल का अकाल तो कभी उन्नीसवीं सदी के अंत के मिथिला की ओर जहां अकाल का छंद कवित्त अकाली रचा जा रहा है। दुर्भिक्ष! माइक डेविस की किताब याद आती है। अकाल माने हॉलोकॉस्ट। वहां तो जनसंहार साम्राज्यवादी है।

विभाजन के दौरान भी तकरीबन पंद्रह मिलियन लोग घर से बेघर हुए। विभाजन की हिंसा के लिये भी हॉलोकॉस्ट/जनसंहार की उपमा का प्रयोग कुछ लोग करते हैं लेकिन, वहां भी कुछेक उद्दरणों के (जैसे पाकिस्तान के कब्जे बाले कश्मीर यथा मीरपूर आदि) अलाबे सामुहिक हिंसा या विस्थापन के दर्द में भूख की छवियां मानो छुप सी गयी कहीं। एक कारण पंजाब और बंगाल‌ दोनो ही जगहों की खास भौगोलिकता रही हो। फिर, यात्रा कितनी ही दुरदांत और लंबी क्यों न हो, वह गुजरात और बंबई से उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और उडीसा की, हजार दो हजार किलो मीटर की नहीं थी।

और, हम रह जाते हैं इन भूख की तस्वीरों के साथ। निपट अकेले। असहाय। इतिहास ने अबकी बार इस भूख के साथ घर छोड़ते हुए नहीं बल्कि घर लौट रहे प्रवासी मजदूरों के चेहरों को जोड़ दिया हो जैसे।

 

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तैरने वाला समाज डूब रहा है

साफ माथे का समाज  उत्तर बिहार में आई भयानक बाढ़ अब आगे निकल गई है। कुछ लोग उसे भूल भी जाएंगे। लेकिन याद रखना चाहिए कि उत्तर बिहार उस बाढ़ की मंजिल नहीं था। वह एक पड़ाव भर था। बाढ़ की शुरुआत नेपाल से होती है, फिर वह उत्तर बिहार आती है। उसके बाद बंगाल जाती है। और सबसे अंत में सितम्बर के अंत या अक्टूबर के प्रारंभ में- वह बांग्लादेश में अपनी आखरी उपस्थिति जताते हुए सागर में मिलती है।

इस बार उत्तर बिहार में बाढ़ ने बहुत अधिक तबाही मचाई। कुछ दिन सभी का ध्यान इसकी तरफ गया। जैसा कि अक्सर होता है, हेलीकॉप्टर आदि से दौरे हुए। फिर अगली बाढ़ तक इसे भुला दिया जाता है। भूल नहीं पाते हैं वे लाखों लोग जो बाढ़ में अपना सब कुछ खो बैठते हैं। इन्हें अपना जीवन फिर लगभग शून्य से शुरू करना पड़ता है।

बाढ़ अतिथि नहीं है। यह कभी अचानक नहीं आती। दो-चार दिन का अंतर पड़ जाए तो बात अलग है। इसके आने की तिथियां बिल्कुल तय हैं। लेकिन जब बाढ़ आती है तो हम कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं कि यह अचानक आई विपत्ति है। इसके पहले जो तैयारियां करनी चाहिए, वे बिल्कुल नहीं हो पाती हैं। इसलिए अब बाढ़ की मारक क्षमता पहले से अधिक बढ़ चली है। पहले शायद हमारा समाज बिना इतने बड़े प्रशासन के या बिना इतने बड़े निकम्मे प्रशासन के अपना इंतजाम बखूबी करना जानता था। इसलिए बाढ़ आने पर वह इतना परेशान नहीं दिखता था।

बाढ़ अतिथि नहीं है। यह कभी अचानक नहीं आती। दो-चार दिन का अंतर पड़ जाए तो बात अलग है। इसके आने की तिथियां बिल्कुल तय हैं। लेकिन जब बाढ़ आती है तो हम कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं कि यह अचानक आई विपत्ति है। इसके पहले जो तैयारियां करनी चाहिए, वे बिल्कुल नहीं हो पाती हैं।

इस बार की बाढ़ ने उत्तर बिहार को कुछ अभिशप्त इलाके की तरह छोड़ दिया है। सभी जगह बाढ़ से निपटने में अव्यवस्था की चर्चा हुई है। अव्यवस्था के कई कारण भी गिनाए गए हैं- वहां की असहाय गरीबी आदि। लेकिन बहुत कम लोगों को इस बात का अंदाज होगा कि उत्तर बिहार एक बहुत ही संपन्न टुकड़ा रहा है इस प्रदेश का। मुजफ्फरपुर की लीचियां, पूसा ढोली की ईख, दरभंगा का शाहबसंत धान, शकरकंद, आम, चीनिया केला और बादाम और यहीं के कुछ इलाकों में पैदा होने वाली तंबाकू, जो पूरे शरीर की नसों को हिलाकर रख देती है। सिलोत क्षेत्र का पतले से पतला चूड़ा जिसके बारे में कहा जाता है कि वह नाक की हवा से उड़ जाता है, उसके स्वाद की चर्चा तो अलग ही है। वहां धान की ऐसी भी किस्में रही हैं जो बाढ़ के पानी के साथ-साथ खेलती हुई ऊपर उठती जाती थीं और फिर बाढ़ को विदा कर खलिहान में आती थीं। फिर दियारा के संपन्न खेत।

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फोटो: गूगल

सुधी पाठक इस सूची को न जाने कितना बढ़ा सकते हैं। इसमें पटसन और नील भी जोड़ लें तो आप ‘दुनिया के सबसे बड़े’ यानी लंबे प्लेटफार्म पर अपने आप को खड़ा पाएंगे। सोनपुर का प्लेटफार्म। ऐसा कहते हैं कि यह हमारे देश का सबसे बड़ा प्लेटफार्म है। यह वहां की संपन्नतम चीजों को रेल से ढोकर देश के भीतर और बाहर ले जाने के लिए बनाया गया था। एक पूरा संपन्न इलाका उत्तर बिहार आज दयनीय स्थिति में क्यों पड़ गयाहै? हमें सोचना चाहिए। आज हम इस इलाके की कोई चिंता नहीं कर रहे हैं और उसे एक तरह से लाचारी में छोड़ बैठे हैं।

बाढ़ आने पर सबसे पहला दोष तो हम नेपाल को देते हैं। नेपाल एक छोटा-सा देश है। बाढ़ के लिए हम उसे कब तक दोषी ठहराते रहेंगे? कहा जाता है कि नेपाल ने पानी छोड़ा, इसलिए उत्तर बिहार बह गया। यह देखने लायक बात होगी कि नेपाल कितना पानी छोड़ता है। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि नेपाल बाढ़ का पहला हिस्सा है। वहां हिमालय की चोटियों से जो पानी गिरता है, उसे रोकने की उसके पास कोई क्षमता और साधन नहीं है। और शायद उसे रोकने की कोई व्यवहारिक जरूरत भी नहीं है। रोकने से खतरे और भी बढ़ सकते हैं। इसलिए नेपाल पर दोष थोपना बंद करना होगा।

यदि नेपाल पानी रोकेगा तो आज नहीं तो कल, हमें अभी की बाढ़ से भी भयंकर बाढ़ झेलने की तैयारी करके रखनी पड़ेगी। हम सब जानते हैं कि हिमालय का यह हिस्सा कच्चा है और इसमें कितनी भी सावधानी और ईमानदारी से बनाए गए बांध किसी न किसी तरह से प्रकृति की किसी छोटी सी हलचल से टूट भी सकते हैं। और तब आज से कई गुना भयंकर बाढ़ हमारे सामने आ सकती है। यदि नेपाल को ही दोषी ठहराया जाए तो कम से कम बिहार के बाढ़ नियंत्रण का एक बड़ा भाग- पैसों का, इंजीनियरों का, नेताओं का अप्रैल और मई में नेपाल जाना चाहिए ताकि वहां यहां की बाढ़ से निपटने के लिए पुख्ता इंतजामों के बारे में बातचीत की जा सके। बातचीत मित्रवत हो, तकनीकी तौर पर हो और जरूरत पड़े तो फिर मई में ही प्रधानमंत्री नहीं तो प्रदेश के मुख्यमंत्री ही नेपाल जाएं और आगामी जुलाई में आने वाली बाढ़ के बारे में चर्चा करके देखें।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हम बाढ़ के रास्ते में हैं। उत्तर बिहार से पहले नेपाल में काफी लोगों को बाढ़ के कारण जान से हाथ धोना पड़ा है। पिछले साल नेपाल में भयंकर भूस्खलन हुए थे, और तब हमें पता चल जाना चाहिए था कि अगले साल हम पर भी बड़ा संकट आएगा, क्योंकि हिमालय के इस कच्चे भाग में जितने भूस्खलन हुए, उन सबका मलबा वहीं का वहीं पड़ा था और वह इस वर्ष की बरसात में नीचे उतर आने वाला था।

उत्तर बिहार की परिस्थिति भी अलग से समझने लायक है। यहां पर हिमालय से अनगिनत नदियां सीधे उतरती हैं और उनके उतरने का एक ही सरल उदाहरण दिया जा सकता हैः जैसे पाठशाला में टीन की फिसलपट्टी होती है, उसी तरह से यह नदियां हिमालय से बर्फ की फिसलपट्टी से धड़ाधड़ नीचे उतरती हैं। हिमालय के इसी क्षेत्र में नेपाल के हिस्से में सबसे ऊंची चोटियां हैं और कम दूरी तय करके ये नदियां उत्तर भारत में नीचे उतरती हैं। इसलिए इन नदियों की पानी क्षमता, उनका वेग, उनके साथ कच्चे हिमालय से, शिवालिक से आने वाली मिट्टी और गाद इतनी अधिक होती है कि उसकी तुलना पश्चिमी हिमालय और उत्तर-पूर्वी हिमालय से नहीं कर सकते।

एक तो यह सबसे ऊंचा क्षेत्र है, कच्चा भी है, फिर भ्रंश पर टिका हुआ इलाका है। यहां भौगोलिक परिस्थितियां ऐसी हैं जहां से हिमालय का जन्म हुआ है। बहुत कम लोगों को अंदाज होगा कि हमारा समाज भी भू-विज्ञान को, ‘जिओ मार्फालॉजी’ को खूब अच्छी तरह समझता है। इसी इलाके में ग्यारहवीं शताब्दी में बना वराह अवतार का मंदिर भी है। भगवान के वराह रूप के मंदिर किसी और इलाके में आसानी से मिलते नहीं है। यह हिस्सा कुछ करोड़ साल पहले किसी एक घटना के कारण हिमालय के रूप में सामने आया। यहीं से फिर नदियों का जाल बिछा। ये सरपट दौड़ती हुई आती हैं- सीधी उतरती हैं। इससे उनकी ताकत और बढ़ जाती है।

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फोटो :गूगल

जब हिमालय बना तब कहते हैं कि उसके तीन पुड़े थे। तीन तहें थीं। जैसे मध्यप्रदेश के हिस्से में सतपुड़ा है वैसे यहां तीन पुड़े थे- आंतरिक, मध्य और बाह्य। बाह्य हिस्सा शिवालिक सबसे कमजोर माना जाता है। वैसे भी भूगोल की परिभाषा में हिमालय के लिए कहा जाता है कि यह अरावली, विंध्य और सतपुड़ा के मुकाबले बच्चा है। महीनों के बारह पन्ने पलटने से हमारे सभी तरह के कैलेंडर दीवार पर से उतर आते हैं। लेकिन प्रकृति के कैलेंडर में लाखों वर्षों का एक पन्ना होता है।

उस कैलेंडर से देखें तो शायद अरावली की उम्र नब्बे वर्ष होगी और हिमालय, अभी चार-पांच बरस का शैतान बच्चा है। वह अभी उलछता-कूदता है, खेलता-डोलता है। टूट-फूट उसमें बहुत होती रहती है। अभी उसमें प्रौढ़ता या वयस्क वाला संयम नहीं है। शांत, धीरज जैसे गुण नहीं आए हैं। इसलिए हिमालय की ये नदियां सिर्फ पानी नहीं बहाती हैं वे साद, मिट्टी, पत्थर और बड़ी-बड़ी चट्टानें भी साथ लाती हैं। उत्तर बिहार का समाज अपनी स्मृति में इन बातों को दर्ज कर चुका था।

एक तो चंचल बच्चा हिमालय, फिर कच्चा और तिस पर भूकंप वाला क्षेत्र भी- क्या कसर बाकी रह गई है? हिमालय के इसी क्षेत्र से भूकंप की एक बड़ी और प्रमुख पट्टी गुजरती है। दूसरी पट्टी इस पट्टी से थोड़े ऊपर के भाग में मध्य हिमालय में आती है। सारा भाग लाखों बरस पहले के अस्थिर मलबे के ढेर से बना है और फिर भूकंप इसे जब चाहे और अस्थिर बना देते है। भू- विज्ञान बताता है कि इस उत्तर बिहार में और नेपाल के क्षेत्र में धरती में समुद्र की तरह लहरें उठी थीं और फिर वे एक-दूसरे से टकरा कर ऊपर ही ऊपर उठती चली गईं।

और फिर कुछ समय के लिए स्थिर हो गई, यह ‘स्थिरता’ तांडव नृत्य की तरह है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में लाखों वर्ष पहले ‘मियोसिन’ काल में घटी इस घटना को उत्तरी बिहार के समाज ने अपनी स्मृति में वराह अवतार के रूप में जमा किया है। जिस डूबती पृथ्वी को वराह ने अपने थूथनों से ऊपर उठाया था, वह आज भी कभी भी कांप जाती है। 1934 में जो भूकंप आया था, उसे अभी भी लोग भूले नहीं हैं।

लेकिन यहां के समाज ने इन सब परिस्थितियों को अपनी जीवन शैली में, जीवन दर्शन में धीरे-धीरे आत्मसात किया था। प्रकृति के इस विराट रूप में वह एक छोटी सी बूंद की तरह शामिल हुआ। उसमें कोई घमंड नहीं था। वह इस प्रकृति से खेल लेगा, लड़ लेगा। वह उसकी गोद में कैसे रह सकता है- इसका उसने अभ्यास करके रखा था। क्षणभंगुर समाज ने करोड़ वर्षों की इस लीला में अपने को प्रौढ़ बना लिया और फिर अपनी प्रौढ़ता को हिमालय के लड़कपन की गोद में डाल दिया था।

लेकिन पिछले सौ-डेढ़-सौ साल में हमारे समाज ने ऐसी बहुत सारी चीजें की हैं जिनसे उसका विनम्र स्वभाव बदला है और उसके मन में थोड़ा घमंड भी आया है। समाज के मन में न सही तो उसके नेताओं, के योजनाकारों के मन में यह घमंड आया है। समाज ने पीढ़ियों से, शताब्दियों से, यहां फिसलगुंडी की तरह फुर्ती से उतरने वाली नदियों के साथ जीवन जीने की कला सीखी थी, बाढ़ के साथ बढ़ने की कला सीखी थी। उसने और उसकी फसलों ने बाढ़ में डूबने के बदले तैरने की कला सीखी थी। वह कला आज धीरे-धीरे मिटती जा रही है। वह इस प्रकृति से लड़ लेगा, उसे जीत लेगा, ऐसा घमंड नहीं किया। वह उसकी गोद में कैसे रह सकता है –

इसका उसने अभ्यास करके रखा था। क्षणभंगुर समाज ने करोड़ वर्षों की इस लीला में अपने को प्रोढ़ बना लिया और पिर अपनी प्रौढ़ता को हिमालय के लड़कपन की गोद में डालर दिया था।उत्तर बिहार में हिमालय से उतरने वाली नदियों की संख्या अनगिनत है।

कोई गिनती नहीं है, फिर भी कुछ लोगों ने उनकी गिनती की है। आज लोग यह मानते हैं कि यहां पर इन नदियों ने दुख के अलावा कुछ नहीं दिया है। पर इनके नाम देखेंगे तो इनमें से किसी भी नदी के नाम में, विशेषण में दुख का कोई पर्यायवाची देखने को नहीं मिलेगा। लोगों ने नदियों को हमेशा की तरह देवियों के रूप में देखा है। हम उनके विशेषण दूसरी तरह से देखें तो उनमें आपको बहुत तरह-तरह के ऐसे शब्द मिलेंगे जो उस समाज और नदियों के रिश्ते को बताते हैं। कुछ नाम संस्कृत से होंगे। कुछ गुणों पर होंगे और एकाध अवगुणों पर भी हो सकते हैं।

इन नदियों के विशेषणों में सबसे अधिक संख्या है- आभूषणों की। और ये आभूषण हंसुली, अंगूठी और चंद्रहार जैसे गहनों के नाम पर हैं। हम सभी जानते हैं कि ये आभूषण गोल आकार के होते हैं- यानी यहां पर नदियां उतरते समय इधर- उधर सीधी बहने के बदले आड़ी, तिरछी, गोल आकार में क्षेत्र को बांधती हैं- गांवों को लपेटती हैं और उन गांवों का आभूषणों की तरह श्रृंगार करती हैं। उत्तर बिहार के कई गांव इन ‘आभूषणों’ से ऐसे सजे हुए थे कि बिना पैर धोए आप इन गांवों में प्रवेश नहीं कर सकते थे।

इनमें रहने वाले आपको गर्व से बताएंगे कि हमारे गांव की पवित्र धूल गांव से बाहर नहीं जा सकती, और आप अपनी (शायद अपवित्र) धूल गांव में ला नहीं सकते। कहीं- कहीं बहुत व्यावहारिक नाम भी मिलेंगे। एक नदी का नाम गोमूत्रिका है- जैसे कोई गाय चलते-चलते पेशाब करती है तो जमीन पर आड़े तिरछे निशान पड़ जाते हैं इतनी आड़ी तिरछी बहने वाली यह नदी है। इसमें एक-एक नदी का स्वभाव देखकर लोगों ने इसको अपनी स्मृति में रखा है।

एक तो इन नदियों का स्वभाव और ऊपर से पानी के साथ आने वाली साद के कारण ये अपना रास्ता बदलती रहती हैं। कोसी के बारे में कहा जाता है कि पिछले कुछ सौ साल में 148 किलोमीटर के क्षेत्र में अपनी धारा बदली है। उत्तर बिहार के दो जिलों की इंच भर जमीन भी कोसी ने नहीं छोड़ी है जहां से वह बही न हो। ऐसी नदियों को हम किसी तरह के तटबंध या बांध से बांध सकते हैं, यह कल्पना करना भी अपने आप में विचित्र है। समाज ने इन नदियों को अभिशाप की तरह नहीं देखा। उसने इनके वरदान को कृतज्ञता से स्वीकार किया। उसने यह माना कि इन नदियों ने हिमालय की कीमती मिट्टी इस क्षेत्र के दलदल में पटक कर बहुत बड़ी मात्रा में खेती योग्य जमीन निकाली है। इसलिए वह इन नदियों को बहुत आदर के साथ देखता रहा है। कहा जाता है कि पूरा का पूरा दरभंगा खेती योग्य हो सका तो इन्हीं नदियों द्वारा लाई गई मिट्टी के कारण ही। लेकिन इनमें भी समाज ने उन नदियों को छांटा है जो अपेक्षाकृत कम साद वाले इलाकों से आती हैं।

 

ऐसी नदियों में एक है- खिरोदी। कहा जाता है कि इसका नामकरण क्षीर अर्थात दूध से हुआ है, क्योंकि इसमें साफ पानी बहता है। एक नदी जीवछ है, जो शायद जीवात्मा या जीव इच्छा से बनी होगी। सोनबरसा भी है। इन नदियों के नामों में गुणों का वर्णन देखेंगे तो किसी में भी बाढ़ से लाचारी की झलक नहीं मिलेगी। कई जगह ललित्य है इन नदियों के स्वभाव में। सुंदर कहानी है मैथिली के कवि विद्यापति की।कवि जब अस्वस्थ हो गए तो उन्होंने अपने प्राण नदी में छोड़ने का प्रण किया। कवि प्राण छोड़ने नदी की तरफ चल पड़े, मगर बहुत अस्वस्थ होने के कारण नदी किनारे तक नहीं पहुंच सके। कुछ दूरी पर ही रह गए तो नदी से प्रार्थना की कि हे मां, मेरे साहित्य में कोई शक्ति हो, मेरे कुछ पुण्य हों तो मुझे ले जाओ। कहते हैं कि नदी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और कवि को बहा ले गई।

 

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नदियां विहार करती हैं, उत्तर बिहार में। वे खेलती हैं, कूदती हैं। यह सारी जगह उनकी है। इसलिए वे कहीं भी जाएं उसे जगह बदलना नहीं माना जाता था। उत्तर बिहार में समाज का एक दर्पण साहित्य रहा होगा तो दूसरा तरल दर्पण नदियां थीं। इन असंख्य नदियों में वहां का समाज अपना चेहरा देखता था और नदियों के चंचल स्वभाव को बड़े शांत भाव से अपनी देह में, अपने मन और अपने विचारों में उतारता था। इसलिए कभी वहां कवि विद्यापति जैसे सुंदर किस्से बनते तो कभी फुलपरास जैसी घटनाएं रेत में उकेरी जातीं। नदियों की लहरें रेत में लिखी इन घटनाओं को मिटाती नहीं थीं- हर लहर इन्हें पक्के शिलालेखों में बदलती थी। ये शिलालेख इतिहास में मिलें न मिलें, लोगों के मन में, लोक स्मृति में मिलते थे। फुलपरास का किस्सा यहां दोहराने लायक है।

समाज ने पीढ़ीयों से शताब्दियों से, यहां फिसलगुंडी की तरह फुर्ती से उतरने वाली नदियों के साथ जीवन जीने की कला सीखी थी, बाढ़ के साथ बढ़ने की कला सीखी थी। उसने और उसकी फसलों ने बाढ़ में डूबने के बदले तैरने की कला सीखी थी। वह कला आज धीरे-धीरे मिटती जा रही है।

 

कभी भुतही नदी फुलपरास नाम के एक स्थान से रास्ता बदलकर कहीं और भटक गई। तब वहां के गांवों ने भुतही को वापस बुलाने के लिए अनुष्ठान किया। नदी ने मनुहार स्वीकार की और अगले वर्ष वापस चली आई ! ये कहानियां समाज इसलिए याद रखवाना चाहता है कि लोगों को मालूम रहे कि यहां की नदियां कवि के कहने से भी रास्ता बदल लेती हैं और साधारण लोगों का आग्रह स्वीकार कर अपना बदला हुआ रास्ता फिर से सुधार लेती हैं। इसलिए इन नदियों के स्वभाव को ध्यान में रखकर जीवन चलाओ। ये चीजें हम लोगों को इस तरफ ले जाती हैं कि जिन बातों को भूल गए हैं उन्हें फिर से याद करें।

कुछ नदियों के बहुत विचित्र नाम भी समाज ने हजारों साल के अनुभव से रखे थे। इनमें से एक विचित्र नाम है- अमरबेल। कहीं से आकाशबेल भी कहते हैं। इस नदी का उद्भव और संगम कहीं नहीं दिखाई देता है। कहां से निकलती है, किस नदी में मिलती है- ऐसी कोई पक्की जानकारी नहीं है। बरसात के दिनों में अचानक प्रकट होती है और जैसे पेड़ पर अमरबेल छा जाती है वैसे ही एक बड़े इलाके में इसकी कई धाराएं दिखाई देती हैं। फिर ये गायब भी हो जाती हैं। यह भी जरूरी नहीं कि वह अगले साल इन्हीं धाराओं में से बहे। तब यह अपना कोई दूसरा नया जाल खोल लेती है। एक नदी का नाम है दस्यु नदी। यह दस्यु की तरह दूसरी नदियों की ‘कमाई’ हुई जलराशि का, उनके वैभव का हरण कर लेती है। इसलिए पुराने साहित्य में इसका एक विशेषण वैभवहरण भी मिलता है।

फिर बिल्कुल चालू बोलियों में भी नदियों के नाम मिलते हैं। एक नदी का नाम मरने है। इसी तरह एक नदी मरगंगा है। भुतहा या भुतही का किस्सा तो ऊपर आ ही गया है। जहां ढेर सारी नदियां हर कभी हर कहीं से बहती हों सारे नियम तोड़ कर, वहां समाज ने एक ऐसी भी नदी खोज ली थी जो टस से मस नहीं होती थी। उसका नाम रखा गया- धर्ममूला। ये सब बताते हैं कि नदियां वहां जीवंत भी हैं और कभी- कभी वे गायब भी हो जाती हैं, भूत भी बन जाती हैं, मर भी जाती हैं। यह सब इसलिए होता है कि ऊपर से आने वाली साद उनमें -भरान और धसान- ये दो गतिविधियां इतनी तेजी से चलाती हैं कि उनके रूप हर बार बदलते जाते हैं।

छोटे से लेकर बड़े बांध बड़े-बड़े तटबंध इस इलाके में बनाए गए हैं, बगैर इन नदियों का स्वभाव समझे। नदियों की धारा इधर से उधर न भटके-यह मान कर हमने एक नए भटकाव के विकास की योजना अपनाई है। उसको तटबंध कहते हैं। ये बांग्लादेश में भी बने हैं और इनकी लंबाई सैकड़ों मील तक जाती है। लेकिन अब बार-बार पता चल रहा है कि इनसे बाढ़ रुकने के बजाय बढ़ी है, नुकसान ही ज्यादा हुआ है।

 

बहुत छोटी-छोटी नदियों के वर्णन में ऐसा मिलता है कि इनमें ऐसे भंवर उठती हैं कि हाथियों को भी डुबो दे। इनमें चट्टानें और पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े आते हैं और जब वे आपस में टकराते हैं तो ऐसी आवाज आती है कि दिशाएं बहरी हो जाएं! ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि कुछ नदियों में बरसात के दिनों में मगरमच्छों का आना इतना अधिक हो जाता है कि उनके सिर या थूथने गोबर के कंडे की तरह तैरते हुए दिखाई देते हैं। ये नदियां एक-दूसरे से बहुत मिलती हैं, एक-दूसरे का पानी लेती हैं और देती भी हैं। इस आदान-प्रदान में जो खेल होता है उसे हमने एक हद तक अब बाढ़ में बदल दिया है। नहीं तो यहां के लोग इस खेल को दूसरे ढंग से देखते थे। वे बाढ़ की प्रतीक्षा करते थे।

 

इन्हीं नदियों की बाढ़ के पानी को रोक कर समाज बड़े-बड़े तालाबों में डालता था और इससे इनकी बाढ़ का वेग कम करता था। एक पुराना पद मिलता है- ‘चार कोसी झाड़ी।’ इसके बारे में नए लोगों को अब ज्यादा कुछ पता नहीं है। पुराने लोगों से ऐसी जानकारी एकत्र कर यहां के इलाके का स्वभाव समझना चाहिए। चार कोसी झाड़ी का कुछ हिस्सा शायद चम्पारण में बचा है। ऐसा कहते हैं कि पूरे हिमालय की तराई में चार कोस की चौड़ाई का एक घना जंगल बचा कर रखा गया था। इसकी लंबाई पूरे बिहार में ग्यारह- बारह सौ किलोमीटर तक चलती थी। यह पूर्वी उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र तक जाता था। चार कोस चौड़ाई और उसकी लंबाई हिमालय की पूरी तलहटी में थी। आज के खर्चीले, अव्यावहारिक तटबंधों के बदले यह विशाल वन-बंध बाढ़ लाने वाली नदियों को छानने का काम करता था। तब भी बाढ़ आती रही होगी, लेकिन उसकी मारक क्षमता ऐसी नहीं होगी।

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ढाई हजार साल पहले एक संवाद में बाढ़ का कुछ वर्णन मिलता है। संवाद भगवान बुद्ध और एक ग्वाले के बीच है। ग्वाले के घर में किसी दिन भगवान बुद्ध पहुंचे हैं। काली घटाएं छाई हुई हैं। ग्वाला बुद्ध से कह रहा है कि उसने अपना छप्पर कस लिया है, गाय को मजबूती से खूंटे में बांध दिया है, फसल काट ली है। अब बाढ़ का कोई डर नहीं बचा है। आराम से चाहे जितना पानी बरसे।

 

नदी देवी दर्शन देकर चली जाएगी। इसके बाद भगवान बुद्ध ग्वाले से कह रहे हैं कि मैंने तृष्णा की नावों को खोल दिया है। अब मुझे बाढ़ का कोई डर नहीं है। युगपुरुष साधारण ग्वाले की झोपड़ी में नदी किनारे रात बिताएंगे। उस नदी के किनारे, जिसमें रात को कभी भी बाढ़ आ जाएगी? पर दोनों निश्चिंत हैं। आज क्या ऐसा संवाद बाढ़ से ठीक पहले हो पाएगा?

 

ये सारी चीजें हमें बताती हैं कि लोग इस पानी से, इस बाढ़ से खेलना जानते थे। यहां का समाज इस बाढ़ में तैरना जानता था। इस बाढ़ में तरना भी जानता था। इस पूरे इलाके में ह्रद और चौरा या चौर शब्द बड़े तालाबों के लिए हैं। चौर में बाढ़ का अतिरिक्त पानी रोक लिया जाता था। इस इलाके में पुराने और बड़े तालाबों का वर्णन खूब मिलता है। दरभंगा का एक तालाब इतना बड़ा था कि उसका वर्णन करने वाले उसे अतिशयोक्ति तक ले गए। उसे बनाने वाले लोगों ने अगस्त्य मुनि तक को चुनौती दी कि तुमने समुद्र का पानी पीकर उसे सुखा दिया था, अब हमारे इस तालाब का पानी पीकर सुखा दो तब जानें। वैसे समुद्र जितना बड़ा कुछ भी न होगा- यह वहां के लोगों को भी पता था। पर यह खेल है कि हम इतना बड़ा तालाब बनाना जानते हैं।

 

उन्नीसवीं शताब्दी तक वहां के बड़े-बड़े तालाबों के बड़े-बड़े किस्से चलते थे। परिहारपुर, भरवाहा और आलापुर आदि क्षेत्रों में दो-तीन मील लंबे-चौड़े तालाब थे। धीरे-धीरे बाद के नियोजकों, राजनेताओं, अधिकारियों के मन में यह आया कि इतनी जलराशि से भरे बड़े-बड़े तालाब बेकार की जगह घेरते हैं- इनका पानी सुखाकर जमीन लोगों को खेती के लिए उपलब्ध करा दें। इस तरह हमने दो-चार खेत जरूर बढ़ा लिए, लेकिन दूसरी तरफ शायद सौ-दो-सौ खेत हमने बाढ़ को भेंट चढ़ा दिए। अब यहां पुराने केत तो डूबते ही है, नए भी डूबते हैं। खेत ही अकेले नहीं खलियान, घर, बस्ती सब बाढ़ में समा जाते हैं।

 

बाढ़ राहत में खाना बांटने में, खाने के पैकेट गिराने में हेलीकॉप्टरों का जो इस्तेमाल किया गया, उसमें चौबीस करोड़ रुपए का खर्च आया था। शायद इस लगात से सिर्फ दो करोड़ रुपए की रोटी-सब्जी, पुरी बांटी गई थी। ज्यादा अच्छा होता कि इस इलाके में चौबीस करोड़ के हेलीकॉप्टर के बदले हम कम-से-कम बीस हजार नावें तैयार रखते और मछुआरे, नाविकों, मल्लाहों को सम्मान के साथ इस काम में लगाते।

 

आज अंग्रेजी में रेन वॉटर हारवेस्टिंग शब्द है। इस तरह का पूरा ढांचा उत्तर बिहार के लोगों ने बनाया था A वह ‘फ्लड वॉटर हारवेस्टिंग सिस्टम’ था। उसी से उन्होंने यह खेल खेला था। तब भी बाढ़ आती थी, लेकिन वे बाढ़ की मार को कम-से-कम करना जानते थे। तालाब का एक विशेषण यहां मिलता है- नदियां ताल। यानी वह वर्षा के पानी से नहीं, बल्कि नदी के पानी से भरता था। पूरे देश में वर्षा के पानी से भरने वाले तालाब मिलेंगे। लेकिन यहां हिमालय से उतरने वाली नदियां इतना अधिक पानी लेकर आती हैं कि नदी से भरने वाला तालाब बनाना ज्यादा व्यावहारिक होता था। नदी का पानी धीरे-धीरे कहीं न कहीं रोकते-रोकते उसकी मारक क्षमता को उपकार में बदलते-बदलते आगे गंगा में मिलाया जाता था। ऐसे भूगोलविद समझदार समाज के आज टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं। आज के नए लोग मानते हैं कि समाज अनपढ़ है, पिछड़ा है। नए लोग ऐसे दंभी हैं।

 

उत्तर बिहार से निकलने वाली बाढ़ पश्चिम बंगाल होते हुए बांग्लादेश में जाती है। एक मोटा अंदाजा है कि बांग्लादेश में कुल जो जलराशि इकट्ठा होती है, उसका केवल दस प्रतिशत उसे बादलों से मिलता है। नब्बे फीसदी उसे बिहार, नेपाल और दूसरी तरफ से आने वाली नदियों से मिलता है। वहां तीन बड़ी नदियां गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र हैं। ये तीनों नदियां नब्बे फीसदी पानी उस देश में लेकर आती हैं और शेष दस फीसदी वर्षा से मिलता है।

 

बांग्लादेश का समाज सदियों से इन नदियों के किनारे इनके संगम के किनारे रहना जानता था। वहां नदी अनेक मीलों फैल जाती है। हमारी जैसी नदियां नहीं होतीं कि एक तट से दूसरा तट दिखाई दे। वहां की नदियां क्षितिज तक चली जाती हैं। उन नदियों के किनारे भी वह न सिर्फ बाढ़ से खेलना जानता था, बल्कि उसे अपने लिए उपकारी भी बनाना जानता था। इसी में से अपनी अच्छी फसल निकालता था, आगे का जीवन चलाता था और इसीलिए सोनार बांग्ला कहलाता था।

 

लेकिन धीरे- धीरे चार कोसी झाड़ी गई। हृद और चौर चले गए। कम हिस्से में अच्छी खेती करते थे, उसके लालच में थोड़े बड़े हिस्से में फैलाकर देखने की कोशिश की। और हम अब बाढ़ में डूब जाते हैं। बस्तियां कहां बनेंगी, कहां नहीं बनेंगी इसके लिए बहुत अनुशासन होता था। चौर के क्षेत्र में केवल खेती होगी, बस्ती नहीं बसेगी- ऐसे नियम टूट चुके हैं तो फिर बाढ़ भी नियम तोड़ने लगी है। उसे भी धीरे-धीरे भूलकर चाहे आबादी का दबाव कहिए या अन्य अनियंत्रित विकास के कारण- अब हम नदियों के बाढ़ के रास्ते में सामान रखने लगे हैं, अपने घर बनाने लगे हैं। इसलिए नदियों का दोष नहीं है। अगर हमारी पहली मंजिल तक पानी भरता है तो इसका एक बड़ा कारण नदी के रास्ते में विकास करना है।

 

भारत में ही एक नहर, नदी के किनारे लगे एक तंबू में जन्मे सर विलियम विलकॉक्स नामक एक अंग्रेज इंजीनियर ने 77 वर्ष की उम्र में सन् 1930 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रांगण में तीन भाषण बाढ़ विषय पर दिए थे। इन्होंने मिस्र जैसे रेगिस्तान में भी पानी का काम किया था और बिहार, बंगाल जैसे विशाल नदी प्रदेश में भी। सर विलियम तब से कहते आ रहे हैं कि विकास के नाम पर इन हिस्सों में जो कुछ भी किया गया है, उसमें बाढ़ और बढ़ी है, घटी नहीं है।

 

एक और बहुत बड़ी चीज पिछले दो-एक सौ साल में हुई है। वह है- तटबंध और बांध। छोटे से लेकर बड़े बांध इस इलाके में बनाए गए हैं, बगैर इन नदियों का स्वभाव समझे। नदियों की धारा इधर से उधर न भटके यह मानकर हमने एक नए भटकाव के विकास की योजना अपनाई है। उसको तटबंध कहते हैं। ये बांग्लादेश में भी बने हैं और इनकी लंबाई सैकड़ों मील तक जाती है। आज पता चलता है कि इनसे बाढ़ रुकने के बजाय बढ़ी है, नुकसान ही ज्यादा हुआ है। अभी तो कहीं-कहीं ये एकमात्र उपकार यह करते हैं कि एक बड़े इलाके की आबादी जब डूब से प्रभावित होती है, बाढ़ से प्रभावित होती है तो लोग इन तटबंधों पर ही शरण लेने आ जाते हैं। जो बाढ़ से बचाने वाली योजना थी वह केवल शरणस्थली में बदल गई है। इन सब चीजों के बारे में सोचना चाहिए। बहुत पहले से लोग कह रहे हैं कि तटबंध व्यावहारिक नहीं हैं। लेकिन हमने देखा है कि पिछले डेढ़ सौ साल में हम लोगों ने तटबंधों के सिवाय और किसी चीज में पैसा नहीं लगाया है, ध्यान नहीं लगाया है।

बाढ़ अगले साल भी आएगी। यह अतिथि नहीं है। इसकी तिथियां तय हैं और हमारा समाज इससे खेलना जानता था। लेकिन अब हम जैसे- जैसे ज्यादा विकसित होते जा रहे हैं, इसकी तिथियां और इसका स्वभाव भूल रहे हैं। इस साल कहा जाता है कि बाढ़ राहत में खाना बांटने में, खाने के पैकेट गिराने में हेलीकॉप्टर का जो इस्तेमाल किया गया, उसमें चौबीस करोड़ रुपए का खर्च आया था। शायद इस लागत से सिर्फ दो करोड़ की रोटी- सब्जी बांटी गई थी। ज्यादा अच्छा होता कि इस इलाके में चौबीस करोड़ के हेलीकॉप्टर के बदले हम कम-से-कम बीस हजार नावें तैयार रखते और मछुआरे, नाविकों, मल्लाहों को सम्मान के साथ इस काम में लगाते। यह नदियों की गोदी में पला-बढ़ा समाज है। इसे बाढ़ भयानक नहीं दिखती। अपने घर की, परिवार की सदस्य की तरह दिखती है- उसके हाथ में हमने बीस हजार नावें छोड़ी होतीं।

 

ढेर सारी नदियां हर कभी हर कहीं से बहती हों सारे नियम तोड़ कर, वहां समाज ने एक ऐसी भी नदी खोज ली थी जो टस से मस नहीं होती थी। उसका नाम रखा गया-धर्ममूला। ये सब किस्से, नाम बताते हैं कि नदियां वहां जीवंत भी हैं और कभी-कभी वे गायब भी हो जाती हैं, भूत भी बन जाती हैं, मर भी जाती हैं। यह सब इसलिए होता है कि ऊपर से आने वाली साद उनमें भरान और धसान की दो गतिविधियां इतनी तेजी से चलाती हैं कि उनके रूप हर बार बदलते जाते हैं।

 

इस साल नहीं छोड़ी गईं तो अगले साल इस तरह की योजना बन सकती है। नावें तैयार रखी जाएं- उनके नाविक तैयार हों, उनका रजिस्टर तैयार हो, जो वहां के जिलाधिकारी या इलाके की किसी प्रमुख संस्था या संगठन के पास हो, उसमें किसी राहत की सामग्री कहां- कहां से रखी जाएगी, यह सब तय हो। और हरेक नाव को निश्चित गांवों की संख्या दी जाए। डूब के प्रभाव को देखते हुए, पुराने अनुभव को देखते हुए, उनको सबसे पहले कहां- कहां अनाज या बना-बनाया खाना पहुंचाना है- इसकी तैयारी हो। तब हम पाएंगे कि चौबीस करोड़ के हेलीकाप्टर के बदले शायद यह काम एक या दो करोड़ में कर सकेंगे और इस राशि की एक-एक पाई उन लोगों तक जाएगी जिन तक बाढ़ के दिनों में उसे जाना चाहिए।

बाढ़ आज से नहीं आ रही है। अगर आप बहुत पहले का साहित्य न भी देखें तो देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू की आत्मकथा में देखेंगे कि उसमें छपरा की भयानक बाढ़ का उल्लेख मिलेगा। उस समय कहा जाता है कि एक ही घंटे में छत्तीस इंच वर्षा हुई थी और पूरा छपरा जिला पानी में डूब गया था। तब भी राहत का काम हुआ और तब पार्टी के कार्यकर्ताओं ने सरकार से आगे बढ़कर काम किया था। उस समय भी आरोप लगे थे कि प्रशासन ने इसमें कोई खास मदद नहीं दी। आज भी ऐसे आरोप लगते हैं, ऐसी ही बाढ़ आती है। तो चित्र बदलेगा नहीं। बड़े नेताओं की आत्मकथाओं में इसी तरह की लाइनें लिखी जाएंगी और अखबारों में भी इसी तरह की चीजें छपेंगी। लेकिन हमें कुछ विशेष करके दिखाना है तो हम लोगों को नेपाल, बिहार, बंगाल और बांग्लादेश- सभी को मिलकर बात करनी होगी। पुरानी स्मृतियों में बाढ़ से निपटने के क्या तरीके थे, उनका फिर से आदान-प्रदान करना होगा। उन्हें समझना होगा और उन्हें नई व्यवस्था में हम किस तरह से ज्यों-का-त्यों या कुछ सुधार कर अपना सकते हैं, इस पर ध्यान देना होगा।

 

जब शुरू- शुरू में अंग्रेजों ने इस इलाके में नहरों का, पानी का काम किया, तटबंधों का काम किया तब भी उनके बीच में एक-दो ऐसे सहृदय समझदार और यहां की मिट्टी को जानने-समझने वाले अधिकारी थे, जिन्होंने ऐसा माना था कि जो कुछ किया गया है, उससे यह इलाका सुधरने के बदले और अधिक बिगड़ा है। इस तरह की चीजें हमारे पुराने दस्तावेजों में हैं। सन् 1853 में बारत में ही एक नहर, नदी के किनारे लगे एक तंबू में जन्मे सर विलियम विलकॉक्स नामक एक अंग्रेज इंजीनियर ने 77 वर्ष की उम्र में सन् 1930 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रांगण में तीन भाषण इसी विषय पर दिए थे। इन्होंने मिस्र जैसे रेगिस्त

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आधुनिक धर्मांधता और विद्यापति

आधुनिकता की व्याख्या,परिभाषा और संकल्पना कहीं से धर्मान्धता और स्खलित सामाजिक जीवन की कामना पर आधारित नहीं थी जहाँ धर्म, मानवीयता के आड़े आ मनुष्य को रैशनल होने से बाधित कर देI आधुनिक होने का व्यापक अर्थ मानव मुक्ति में देखा गया था वही मुक्ति और मानव के मान की संकल्पना जो पंद्रहवीं सदी में मैथिल दार्शनिक विद्यापति(उन्हें महज कवि कोकिल बना उनके दार्शनिक, सामाजिक सन्दर्भ को अनदेखा किया गया है) स्थापित करते हैं, अठारहवीं सदी में पश्चिमी दार्शनिक हीगेल करते हैं|

धर्म अनिवार्य रूप से एक निजी चेतना और कार्यकलाप का विषय था, इसकी अंतरंगता आत्मा से थी यह बाह्य आग्रह की कामना से मुक्त क्षेत्र था जो अंततः व्यक्ति को पुरुषार्थ के अंतिम चरण मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता था। यह बाह्य प्रदर्शन से मुक्त था, विद्यापति की यह संकल्पना आज बेहद आवश्यक विमर्श का बिंदु है। विद्यापति लोक संसार को एक विषद मुक्तिगामी चरित्र में देख रहे थे, जहां जनलोकोपकारी जो भी है वह सर्वश्रेष्ठ है। वह अभिजात्य के विलासिता से प्रेम और कामानूभूति को बाहर निकाल आम लोक को उनको ही नायकत्व प्रदान कर एक समष्टिवाचक दिशा में ले गये, उनके नायक जन-नायक कृष्ण हैं जो सभी बंधनों से मुक्त सिर्फ लोक के हैं।

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फोटो: पूजा झा

आज के समय में हम जब धर्म और सामाजिक सरोकारों के द्वंद्व से जूझ रहे हैं तो ऐसे में क्या हमारे पूर्ववर्ती समाज से कुछ लिखित या मौखिक परंपरा की विरासत है जिसका फलक सर्वकालिक हो, शाश्वत हो, ऐसे में विद्यापति की पदावलियाँ जो कि संस्कृत में ना होकर देसिल बयना मैथिली में लिखी गयीं, का आशय हमें समझना होगा, इन पदावलियों का उद्देश्य जनसामान्य के बीच आनंद अनुभति के संचार का था, आम जन के कामनुभुती को वृहत, विषद रूप देकर पुरुषार्थ के परम लक्ष्य निर्वाण या मानव मुक्ति का था,

यह उनका सामाजिक सरोकार ही था जो कमानुभुती को अभिजात्य का अनुभव मात्र नहीं मानकर एक गाइडबुक रच रहा था जो जनसामान्य की भाषा में, उनके एक अन्तरंग संसार का निर्माण कर रही थी, उन्हें संक्रमण के काल में(हालाँकि कुछ विद्वान इसे संक्रमण और संस्कृत के अवसान का काल नहीं मानते क्यूंकि मिथिला में अनेकों साहित्यिक और दर्शन(नब्न्याय) सम्बन्धी नए ग्रन्थ खूब लिखे जा रहे थे) उनकी लोकभाषा, मातृभाषा के जरिये एक संबल प्रदान कर रहा था, ऐसा सामाजिक-भाषाई सन्दर्भ हमें सामुदायिक सिद्धांत व्याख्या में बिरले ही मिलता है, तभी तो चैतन्य उनके पदों में परमानन्द की अवस्था को प्राप्त करते थे I

साथ ही, विद्यापति की ही एक अन्य रचना, पुरुषपरीक्षा, जो जेंडर विषयक/सम्बन्धी भारतीय परंपरा में लिखी गयी पहली और आखिरी पुस्तक मानी जा सकती है(जिसका अनुवाद ग्रिएर्सन ने टेस्ट ऑफ़ मैन, १८३६ में किया और सिविल सर्विसेज के प्रशिक्षुओं के लिए यह पुस्तक अनिवार्य कर दी गयी क्यूंकि वस्तुतः इसे एक नीति नियामक ग्रन्थ माना गया जो पुरुषार्थ के लिए गुणों को अनिवार्य मान धर्म, अर्थ काम, मोक्ष के सन्दर्भ में पुरुष की अवधारणा कायम कर रहा था, चरित्र निर्माण कर रहा था जिसमें गुण महज शारीरिक भर नहीं थे) के धर्म सम्बन्धी अवधारनाओं की तरफ जब हम देखते, समझते हैं तो विद्यापति का धर्म महज निजी और शुद्ध निजी व्यापार(प्राइवेट अफेयर) है,

पब्लिक/सार्वजनिक उद्घोष की उसमें तनिक भी गुंजाईश नहीं हैI साथ ही, मोक्ष भी सामाजिक दायित्वों से प्रस्थान नहीं हैं बल्कि व्यक्ति को मोक्ष सामाजिक सरोकारों के जरिये ही हासिल हो, ऐसी प्रस्तावना हैI पुरुषपरीक्षा का पुरुष एक ऐसी लैंगिक अवधारणा है जो अपने सेक्युलर स्वरुप में धर्म को निजी रखता है, शौर्य के गुणों को लेकर एक नितिनियामक समाज का सरोकार रखता/रखती है(यहाँ पुरुष जैविक अर्थ में नहीं है) I

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फोटो: पूजा झा

विद्यापति ही एक अन्य रचना कीर्तिलता में लिखे महज तीन शब्द “जीवन मान सौं(लाइफ विथ डिग्निटी)” जब जीवन कैसा हो की इतनी समीचीन और अस्मिता परक व्याख्या करते हैं तो आश्चर्य होता है कि क्या नए सन्दर्भों के सामाजिक आंदोलनों का भान और रूपरेखा हमें कितनी सरलता से महज तीन शब्दों में मिल जाता है, कैसे आम जन की चिंता एक संस्कृत विद्वान को देसिल बयना तक ले आती है और कैसे मोक्ष और पुरुषार्थ अपने विषद रूप में जनसामान्य को प्राप्य बनाया जा सकता है, क्या यही सामाजिक सरोकार और धर्म की सेक्युलर व्याख्या, बिना वर्ण/जाति के पुरुष की अवधारणा हमें किसी और दार्शनिक, साहित्य या राज्य निर्देश में नीति पाठ बना कर निर्देशित कर पा रहीं हैं या यह नीति हीन, धर्महीन, लोकहीन समाजिक सरोकारों का दौर है जिसमें हम धर्मांधता के द्वंद्व में फँस गए हैं?

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