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एकवस्त्राक परम्परा

शरीरक रक्षाक लेल वस्त्र महत्त्वपूर्ण वस्तु थिक। एकरा अलंकारक रूपमे सेहो मानल जाइत अछि। बाहरी आक्रमण सँ रक्षाक संगहि लज्जानिवारण सेहो होइत अछि. :-
वस्त्रेण त्रायते लज्जां, वस्त्रेण त्रायते त्वघम् ॥ – कालिकापुराण ।
अर्थात् वस्त्र द्वारा लज्जा एवं पाप सँ रक्षा होइत छैक। एकरा स्वच्छ राखब परम आवश्यक | मलिन वा बासि वस्त्र सँ रोग उत्पन्न होइछ –कदापि न जनैः सद्भिः धार्य मलिनमम्बरम् ॥ — भावप्रकाश (आयुर्वेद)।
अर्थात सभ्य व्यक्ति कदापि मलिन वस्त्र नहि पहिरथि ।

पूर्वकाल मे वनवासी सभ वस्त्रक अभाव में वल्कल ( गाछम छाल, केरा भोजपत्र आदिक छाल) पहिरैत छल — ‘चचाल बाला स्तनभिन्नवल्कला’- कुमारसम्भव- 5,84 ( किशोरी पार्वती तेज सँ चलि देलनि, हुनक स्तनक भार सँ वल्कल फाटि गेलनि)। एहिना कण्वपुत्री शकुन्तला वल्कल सँ सुन्दर लगैत छलीह | गाम ओ नगरक लोक वस्त्र पहिरैत छल आ धनवान सभ मलमल वा रेशमी वस्त्र धारण करैत छल.-
“वधूदुकूलं कलहंसलक्षणम्” – कुमारसम्भव- 5.67 वधू पार्वतीक दुकूल (महीन वस्त्र) हंसक छाप सँ युक्त छल | पूजापाठ काल मे धौतवस्त्रक उपयोग होइछ अपन खिचल वा सम्बन्धीक खीचल वस्त्रे उपयोग मे आनी | धोबीक घोल वस्त्र सँ पूजा नहि करी –
अधौतेन च वस्त्रेण नित्यनैमित्तिकी क्रियाम् | कुर्वन् फलंम चाप्नोति, दत्तं भवति निष्फलम् ॥
विन धल वस्त्र सँ नित्यनैमित्तिक क्रियाक फल नहि प्राप्त हो, देलो दान निष्फल भए जाए|
विशेष कर्मक (विवाह, उपनयन आदिक) काल मे नवीन वस्त्र धारण करी । सीयल, जरल आ अनकर वस्त्र पहिरि कोनो शास्त्र विहित कर्म (यज्ञ, पूजा, पाक, भोजन आदि) नहि करी न स्यूतेन न दग्धेन पारक्येण विशेषतः|
मूषिकोत्कीर्णजीर्णेन कर्म कुर्याद विचक्षणः || महाभारत |

एहिना मूसक कुतरल वा बहुत पुरान जर्जर वस्त्र पहिरि कोनो कर्म नहि करी। कर्मकाल में कुर्ता, कमीज वा ब्लाउज नहि पहिरी —
– ‘न स्यात् कर्मणि कचुकी – शब्दकल्पद्रुम | ( कर्मकाल मे कंचुक (कुर्ता आदि) धारण नहि करी )।
‘स्नात्वैव वाससी धौते अक्लिन्ने परिचायच याज्ञवल्कय

स्नान कर स्वच्छ इवस्त्र बिनु भीजल पहिरि, कर्म करी । तें धोती ओ तौनी राखब आवश्यक। किन्तु यदि एके वस्त्र धारणक प्रतिज्ञा हो, वा एके टा वस्त्र हो तँ ओकरे अगिला भाग सँ ऊपरो धारण कर ली एंक चेद् वासो भवति तस्य उत्तरार्थेन प्रच्छाद‌यति – ( आह्निकतत्व, रघुनन्दन )
तैं भोजन काल मे तौनीक अभाव में अधधोतिया कए लैत छथि। स्त्री अखण्ड वस्त्र धारण करैत छथि । अर्थात् एके टा साड़ी के पएर सँ माँथ धरि झपैत छथि। ई परम्परा प्राचीन काल सँ आइ धरि विद्यमान अछि आन देशक लोक डाण मे घघरा ओ देह मे चोली पहिरैत अछि। मिथिलों में कुमारिक लेल दू टा वस्त्र घघरी आ केचुआ (चोली) विहित अछि । मुदा विवाहिता एके वस्त्र सँ वेष्टित रहैत छथि ।
सीता एकवस्त्रा छलीह —-
पीतेनैकेन संवितां क्लिष्टेनोत्तमवाससा | सपंकामनलंकारा विपद्मामिव पद्मिनीम् ॥
– वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड, सर्ग-15

अशोकवाटिका में हनुमानजी सीता केँ एहि रूप मे देखलनि पीयर रंगक एकमात्र मलिन मुद्दा उत्तम वस्त्र पहिरने छलीह, धुरिऐल, असज्जित आ कमल सँ रहित कमलिनी जकाँ लगैत ‘ छलीह। साड़ीक पाढ़ि ढोंढ़ी लग बान्हल रहए- “दशा नाभौ प्रयोजयेत् प्रचेता | साड़ीक उपरका भाग के वाम भाग दए पीठ पर होइत माँथ पर चढ़ाबी —-
वामे पृष्ठे तथा नाभौ कक्षत्रयमुदाहृतम्
एभि: कक्षैः परीधन्ते यो विप्रः स शुचिः स्मृतः ॥
– भाव प्रकाश
आइ- काल्हि जिट में दहिना सँ वामा दिस आँचर रखैत छथि जे शास्त्र विरुद्ध थिक।

ई एकवस्त्राक परम्परा त्यागमूलक ओ शुचिता प्रयुक्त थिक । यद्धपि वस्त्रयुगलक उल्लेख सेहो भेटैत अधि—- हला शकुन्तले! अवसितमण्डनासि | परिधत्स्व साम्प्रतं श्रौमयुगलम्” अभिवानशाकुन्तल, चतुर्थ अंक अर्थात् हए शकुन्तला ! गहना पहिराओल गेलीह, आब ई दुइ रेमशमी कपड़ा पहिरह।मुदा ई विशेष मांगलिक अवसरक सजावट थिक | वस्तुतः एकवसना व्रत थिक जेकर सदा निर्वाह होइत रहल अछि । विशेष जाड़ मे तौनी ओढब जकाँ विशेष अवसर पर प्रावारक (दुपट्टा) ओढल जाइत रहल अछि।
गतशताब्दीक उत्तरार्ध मे पाश्चात्य प्रभावसँ साया आ ब्लाउज आएल, क्यो क्यो पहिरए लागल। बाद मे सब अपनओलक मुद्दा, पाकादि शास्त्रीय कार्य में ब्लाउज हटाइये लैते छलीह। एकर बठैत क्रमकें देखि महामहिमोपाध्याय पं० कृष्णमाधव झा व्यवस्थापत्र देलथिन जे प्रतिदिन खीचिकए सुखाओल ब्लाउज पहिरि मानस कए सकैत छथि । तहिया सँ ब्लाउज सर्वसामान्य भए गेल, मुदा ओ आँचरक स्थान नहि लेलक। एके साड़ी डॉर सँ माँथ होइत आँचर बनल अछि । अर्थात् जेहो ब्लाउज साया पहिरैत छथि सेहो एक अखण्डवस्त्र (साड़ी)धारण करिते छथि। जतर पूर्वकाल मे बीस हाथक साड़ी में महिला लपटल रहैत छलीह, दोसर बास्त्र नहि पहिरैत छलीह ततहि आई दस हाथक साड़ी ओहिना पहिरैत छथि ।

जखन पातर साड़ी अएलै त तकर तर मे पर्दाक लेल टुकरा लेल जाए लगलैक ओ ऑचरक् तर मे ब्लाउज अएलै जे सर्वप्रचलित अछि ओ आवश्यको । परन्तु आँचरक स्थान मे ओढ़नी एकवात्रताक विरुद्ध भेने त्याज्ये थिक | आँचर पर सँ ओढ़नी ओढ़ब सएह उचित थिक ।

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बंगट गवैया: मिथिला का एक अचीन्हा जीनियस

पिछले दिनों महिषी की एक विलक्षण विभूति का अवसान हो गया। उनका नाम ताराचरण मिश्र था लेकिन सदा से सब उन्हें बंगट गवैया कहते थे। गरीब ब्राह्मण थे, और उदार भी। अंत-अंत तक उनकी गरीबी और उदारता दोनों बनी रहीं।

तारास्थान परिसर के निवासी और संगीत-मंडलियों के समाजी होने के कारण बचपन से ही मुझे उनकी संगत मिली। बचपन से ही हम यह अचरज करना सीख गये थे कि उनके गले में सरस्वती का वास है। उनके पास जो गीतों का चयन था वह भी बहुत आश्चर्यजनक था। वह निराला, पंत, दिनकर, गोपाल सिंह नेपाली के दुर्लभ गीत गाते। दिनकर का यह गीत ‘माया के मोहक वन की क्या कहूं कहानी परदेसी’ या फिर नेपाली का यह गीत ‘बदनाम रहे बटमार मगर घर को रखवालों ने लूटा’ तो उनसे सुना कई लोगों के स्मरण में होगा। एक यह गजल भी वह बहुत ही जानदार गाते थे– ‘न आना बुरा है न जाना बुरा है\  फकत रोज दिल का लगाना बुरा है।’ यह सब लेकिन, अधिकतर गुणिजनों की महफिल में होता जहां कई बार मुझे भी शरीक होने का अवसर मिला था। चन्दा झा की रामायण का गायन भी पहली बार मैंने उनसे ही सुना था। विद्यापति को तो इतनी तरह से गाते कि वह अलग ही चकित करता था। ठीक यही बात कबीर के पदों की गायकी के साथ थी। उनका जन्म 1940 के आसपास का रहा होगा। एक बार उनसे मैंने जानना भी चाहा था कि इस धुर देहात में ये सब गुण उन्होंने कहां सीखे? बताते थे कि बचपन में ही नाटक-मंडलियों के साथ लग गये थे और बाद में पंचगछिया घराने के कुछ संस्कारी गुरुओं की संगत में रहे थे।

विद्यापति के गीत ‘पिया मोर बालक’ को वह कुछ इस तरह गाते कि स्त्री की पीड़ा के नजरिये से देखें तो रुलाई आने लगती थी। द्रुत और विलंबित का एक ऐसा समीकरण बनाते कि मेरे पास उस अनुभव को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं। शायद संगीतशास्त्र के जानकार ही उसे व्यक्त कर पाएं। मैंने यह गीत कई गवैयों, यहां तक कि पं. रामचतुर मल्लिक से भी, सुना था। उनके और इनके गायन में मुझे गोचर होने योग्य अंतर दीखते। एक बार मैंने जिज्ञासा की कि काका, ये क्या है? बताया तो उन्होंने काफी देर तक, लेकिन मेरी स्मृति में बस यही है कि यह अंतर घराने (अमता और पंचगछिया) की गायकी-शैली के कारण है। विद्यापति संगीत के आधुनिक रूप को वह पंचगछिया घराने का अवदान मानते थे।

एक बार पं. मांगनलाल खवास के बारे में बात चली तो पता चला कि मांगन जी के लड़के लड्डूलाल जी की संगत में रहे थे और उन्हें गुरुस्थानीय मानते थे। मांगनलाल का काफी यश सुना था और उनकी ढेर सारी कहानियां उनके पास थीं। बताने लगे– गायक तो परमात्मा का दुलारा और अपना बादशाह आप होता है न! उसे क्या परवाह कि बड़े लोग उसे किस नजर से देखते हैं। वह दरअसल उस प्रसंग की ओर इशारा कर रहे थे कि लहेरियासराय की एक संगीतसभा में मांगनलाल जी ने आग्रह-दुराग्रह में पड़कर अपनी प्रस्तुति दे दी और यह बात उनके आश्रयदाता को इतनी बुरी लगी कि केवल इसी अपराध पर राजकुमार विश्वेश्वर सिंह ने उन्हें अपने दरबार से निकाल दिया था।

गरीबी ने बंगट जी को समझौते के लिए बाध्य किया। बाद में वह राधेश्याम कथावाचक की रामायण गाने लगे जिसे हमारे इलाके में विषय-कीर्तन कहा जाता था। लेकिन इससे भी महिषी में उनका गुजारा संभव नहीं हुआ। उनका लगभग समूचा उत्तर-जीवन सिंहेश्वरस्थान, मधेपुरा में बीता जहां के लोगों में उदारता भी अधिक थी और वहां तीर्थयात्री भी अधिक आते थे। वह स्पष्ट बताते थे कि जितनी गुणग्राहकता और श्रद्धा उन्हें यादव और बनियों से मिली, उतनी ब्राह्मणों से नहीं। वह नाभिनाल बद्ध शाक्त थे। कहते– शक्ति का उपासक वर्ण और लिंग का भेद नहीं जानता। उसके लिए क्या शौच, क्या अशौच, सब केवल महामाया की विविध छवियां हैं। तंत्रसाधक होने का गौरव भी उन्हें पूरा था, लेकिन मैथिलों की परंपराप्रियता पर कभी खीजते तो अपने को ‘कुजात ब्राह्मण’ बताते थे और उदाहरण के लिए राजकमल चौधरी का नाम ले आते थे, जिन्हें वह अपना आदर्श पुरुष बताते थे।।

नवरात्र और होली के मौके पर वह गांव जरूर आते। यह मातृभूमि का प्रेम तो था ही, उनका परिवार भी हमेशा गांव में ही रहा। कभी आर्थिक जरूरत होती तो बेटा जाकर पैसे ले आता था। मूडी आदमी थे। कोई गाने का आग्रह कर दे और वह तुरंत गाने को तैयार हो जाएं, ऐसा कम ही होता था। हारमोनियम जब सम्हालते, तब भी अपनी रौ तक पहुंचने में उन्हें वक्त लगता था। लेकिन उनकी अपनी भी कुछ चाहतें थीं। हमारे गांव में होली के एक सप्ताह पहले से ही संगीत-गोष्ठियों का दौर शुरू हो जाता था। यह ज्यादातर किसी व्यक्तिविशेष के दालान पर होता था। वह गांव में होते तो इन गोष्ठियों में जरूर पहुंचा करते थे। कभी तो ऐसा होता था कि उन्हें आया देख गृहपति सकुचा जाता–अरे, गवैया जी। हमें तो पता ही नहीं था कि आप गांव में हैं। लेकिन वह तो अपनी चाहत के रौ में होते थे।

महिषी की आज की जो युवापीढ़ी है, उसने कभी न कभी साधनालय में बंगट गवैया का विषय-कीर्तन जरूर सुना होगा। किसी में गुण हो तो वह उसके किये सभी कार्यों में प्रतिध्वनित होता है। वह आत्यन्तिक रूप से दीक्षित शाक्त थे, और वैष्णव किसी भी तरह नहीं। तांत्रिकों की गुरु-परंपरा के पूरे पालनकर्ता थे। रामकथा के साथ उनका कोई पुराना वास्ता भी नहीं था। लेकिन, एक बार जब इसे अपना लिया तो इतनी महीनी और हार्दिकता उसमें भर दी कि एक दिन कोई उन्हें सुन ले तो वर्षों तक उस अनुभव को भूलना कठिन रहता था। गायकी की उनकी गुणवत्ता अंत अंत तक बनी रही। छूटी तो गायकी ही छूट गयी, गुणवत्ता नहीं। कभी कभी हम जो चैती महोत्सव करते, या फिर युवा गायकों की गायन-प्रतियोगिता जिसमें उन्हें निर्णायक के रूप में बुलाते थे, वह खुशी खुशी शामिल होते थे। कभी-कभी अगर दबंग घरों के लड़के बेईमानी के लिए दबाव बना दिया करते, वह अड़ जाते थे। उनका अड़ना हमें बहुत ताकत देता था।

राजकमल चौधरी जब अपने आखिरी दिनों में गांव में रहने आए, उनकी अत्यन्त विश्वस्त युवा-वाहिनी में बंगट गवैया भी एक थे। इन सबके बारे में अनेक लोगों ने जहां तहां लिखा है। हमारे मित्र देवशंकर नवीन तो उस किस्से को बहुत ही रोचक ढंग से सुनाते हैं कि कैसे जब एक बार बाहर के बहुत सारे लेखक राजकमल के मेहमान हुए तो उन्होंने शाम का कार्यक्रम बंगट गवैया का गायन तय किया था। लेकिन, ऐन मौके पर बंगट फरार। लाख खोजे जाने पर भी वह कहीं नहीं मिले तो लाचारी में प्रोग्राम कैंसिल करना पड़ा। दूसरे दिन की सुबह बेंत लेकर राजकमल बंगट को खोजने निकले तो सबको यकीन था कि बंगट का हाल बेहाल होना आज तय है। लेकिन, खोजते खोजते जब वह तारास्थान परिसर में पाए गये, राजकमल ने उन्हें पकड़ लिया और बाबूजी बड़ई की दुकान पर आ धमके। कहा–आज इसे नाक तक दही-चूड़ा-पेड़ा खिलाइये। यही इस अभागे का दंड है। कभी बात उठे तो वह खुद भी राजकमल के एक से एक दुर्लभ प्रसंग बड़ी तल्लीनता से सुनाते थे। एक दिन मैंने पूछा था कि उस रोज आप कहां चले गये थे कि फूलबाबू को इतनी तरद्दुद उठानी पड़ी। कहने लगे– असल में शाम के प्रोग्राम की बात ही हम भूल गये थे। कोशी इलाके में एक खास पहुंचने का आग्रह बहुत दिन से हो रहा था, शाम को वहीं चले गये थे। उन्हें कहां मिलते?

पिछले कई वर्षों से मैं उनकी गायकी पर एक डाक्यूमेन्ट्री के लिए उन्हें तैयार कर रहा था। लेकिन, काफी दिनों से उनका स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था। दुख है कि मेरी यह साध पूरी नहीं हुई।

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इस चित्र में उनकी गायकी की एक मुद्रा दिखेगी। गीत का अगला पद अब वह गानेवाले हैं। आंखें बंद कर ली हैं। भीतर कुछ जनम रहा हो जैसे, वह आभा चेहरे पर है। उन्हें सुन चुके लोग जानते हैं कि यह उनकी पसंदीदा मुद्रा थी। यह चित्र 2015 के चैती महोत्सव का है जो महिषी के पाठक बंगले पर आयोजित हुआ था।


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पमरिया

जातकक  जन्मोत्सवक  अवसर पर पिताक द्वारा पमरियाक दल नचैत गाबैत आबैत अछि ।
एहि अवसर मे एक  विशेष प्रकार के गीत  गाओल जैत अइछ जकरा पमारा कहल जाइछ ।
ई भेल  ‘परम आर ‘ अत्यंत गतिशील अर्थात द्रुतगति सँ  गाओल जाय वला गीत । एकर गायक परमारिक = पमरिआ थिक ।
पमरिया सब नाचि- नाचि , उछलि- उछलि ताली दैत गबैत सब के मन मोहि लैछ । कखनो तीन गोटा बैसि कए गान प्रारम्भ करैछ । पहिल आधा पद कहैछ, दोसर अगिला  आधा  पद पुरबैछ। और तेसर पदक अन्तिम शब्द दोहराए दैछ । अपन किछु नै कहैछ । तेँ लोकमें तेहेन हँ हँ भरनिहार कें ‘ पमरियाक तेसर कहल जाइछ जे एकटा प्रसिद्ध कहबी बनि गेल अछि।

एक पमरिया पैजामा, कुरता पहिरने डाँर म रंगीन गमछा बन्हने डुग्गी बजबैत अछि दोसर घघरा, कंचुक, मुरेठाक संग हाथ ओ पैर म घुंघरू बन्हने रहैछ आ तेसर चुड़की सँ तेल चुआबैत पैजामा कमीज पहिरने काजर कएने ढोलकी बजबैछ । ई सब विनु पुछनहि आंगना पहुँचि नाचि लगैछ । दर्शकक भीड़ लागि जाइछ।  पमारा के अतिरिक्त ई सब भजन, सोहर, रामजन्मक  ओ कृष्णजनमक वर्णन, चौमासा,  बरहमासा, फाग, चैतावर आदि गाबैत अछि।  मामा-भागनिक झगड़ा, सौस- पूतौहुक अनबन,  दूल्हा – दुलहिनक बतकटी  आदिक अभिनय गाबि-गाबि करैछ। बच्चा के कोरां ले  खेलबे लगैछ। अ ता धरि आपस नै करैछ जा धरि ओकर मांगक पूर्ति नै होइछ। लोग खुशि स ओकरा साड़ी , साया , धोती , नगद दैछ। एहि सँ ओकर गुजर चलैछ। पमरिया सब गाम बाटने रहैछ – ई गाम फल्लाक त ई गाम फल्लाक।

खगता पर गाम बेचियो दैछ। प्रत्येक गाम मे ओकर समदियाक रहैत छैक- चमानि , नोकर आदि जे जन्मक सूचना दए दैत छैक। मिथिलाभाषा कोष मे पमरियाक अर्थ देल अछि – पमारा गओनिहार। बदरीनाथ झाक मैथली संस्कृत कोश मे एकर अर्थ अछि- परमारकः। वर्णरत्नाकर मे त एकर उल्लेख नहि भेटल अछि, मुदा डॉ° कांचीनाथ झा ‘किरण’ वर्णरत्नाकरक  काव्यशास्त्रीयअध्यन मे मिथिलाक जातिक प्रसंग पमरियाक उल्लेख कएने छथि। मैथिलीक  प्राचीन साहित्य  राम – कृष्णक जन्मोत्सव मे एकर उल्लेख के अनुपयुक्त रहबाक कारण पमरिया के चर्चा नहि अछि। मुदा आधुनिक युग मे बदरीनाथ झा अपन एकावली परिणय मे पमरिया के चर्चा कएने छथि।

संस्कृत साहित्यो मे  एकठाम एकर प्रसंग आएल अछि । कविशेरेजीक गुणेश्वरचरिचम्पू काव्य मे धर्मकर्मावतार बाबू  गुणेश्वर सिंहक शम्भकरपुर जन्मक अवसर पर “सतालोत्तालोच्छलत्पारमारिकप्रकरमं, मंगल मयमिव सुखमयमिवास्थानमण्डपमाधिष्ठाय चिराय वितायमानमं तनुजजनुर्महोत्सव मद्राक्षित”। अर्थात ताली दैत ऊँचकए उछलैत पमरियाक दलकेँ मंगलमय जेँका सुखमय ओसराक चबूतरा पर बैसि चिरकाल सँ चलैत अपन पुत्रक जन्मोत्सव मे देखलनि। पमरियाक वाक्यचातुर्य, कलाकौशल ओ नाच- गान – वाद्यक  रमणीयता एहि मांगलिक अवसरक लेल परम उपयोगी होइछ। एहिजातिक प्रवर्तन मिथिला मे चौदहम शताब्दी मे होएब संगत प्रतीत होइछ। यवन आक्रमणकारी अपना संग हजारक हजार यवन के आनने छल जे लूटी पाटी के गुजर करैत छल।

ओकर नै वास नै वृति छलै। गामे गाम हुलैत भय पहुचाने हुनकर काज छलै। तकरा  सामाजिक  बनएबाक  लेल राजा द्वारा ओकरा गामे गाम बसाओल गेलैक आवृति (जीविका) देल गेलैक जकरा मे जे गुण छमता छलैक से ताहि वृति मे चल गेल। आ कर्मक आधार पर ओकर जाती बन गेलै  –  (1) दर्जी, (2) जोलहा, (3)  कुजरा, (4) धुनियाँ,  (5) पमरिया,  (6) मुसलमानक  हजाम, (7) फकीर  आदि। तहिया सँ पमरिया नाचि – गाबि रहल अछि ओ समाज मे सामंजस्य स्थापित करैत हर्षक धारा बहाए रहल अछि। ओना युगपरिवर्तनक कर्म मे ओ सब आब आन वृति म जाए रहल अछि आ तेँ एकर कलाक ह्रास भ’ रहल अछि ।


PC: Kapil Prajapati (youtube channel)

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सारंग गीत

महुअक लेल कोबर स गोसाउनी घर जयबा कालक गीत

मिथिला मे सारंग गीत विशेष अवसर पर गाओल जाइत अछि । कंगुरिया लागल बर -कनियाँ के महुअक लेल कोबर घर सँ गोसाउनि घर जयबाकाल ई सारंग गीत गाओल जाइत अछि । कंगुरिया लागब सँ मोन पड़ल जे हम अपन संगी -संगिनी के विवाह दिनक स्मृति लेल कंगुरिया दिवसक शुभकामना दैत छी ।मिथिला मे कंगुरिया लागब विवाह क पर्यायवाची अछि । कंगुरिया शब्द सुनतहिं विवाह क मधुर स्मरण आ मोन पुलकित भs जाइत अछि ।

चलह विदुर गृह जाऊ। हे ऊधो ।
हरखित फिरथि विदुर के घरनी
मोरा गृह पाहुन आइ । हे ऊधो चलह ।

व्याकुल भेली विदुर के घरनी
की लय हरी के जिमाउ । हे ऊधो चलह ।

कन्नाक साग चन्नाकेर रोटी
ताहि लय हरि के जिमाउ । हे ऊधो चलह ।

सारंग गीत

लय चोर चीर कदम चढ़ि बैसल
कृष्ण बजाबथि बाँसुरी बन मे करत ।
मांगथी चीर देहु कृष्ण हो
हम जल माँजझ उघारी ।
जँ हम चीर देब हे राधा
जल सँ तो होउ न्यारी । बन मे करत ।
जँ हम जल स न्यारी होयब
ग्वाल हँसत दय ताली
बन में करत विहार बिहारी

सारंग गीत दीर्घकायिक नहि होइत अछि । मिथिला मे कोबर घर सँ गोसाउनि घरक बीच अँगना आबैत अछि ।कच्छप गति सँ डेग बढ़बैत बर , कंगुरिया लागल कनियाँ के मन्द स्पर्श सँ संग चलबाक संकेत करैत रहैत छथि आ गीतगाइन सारंग गीत गाबैत छथि ।

उपर्युक्त पहिल सारंग गीतक प्रसंग मनोहर अछि ।विदुर के घर पाहुन आबि रहल छनि । मैथिल लेल पाहुनक आगमन कोनो उत्सव सदृश्य होइत अछि । उत्साह -उल्लास सँ परिपूर्ण । ताहू मे पाहुन रुप मे कृष्ण । उद्धव के समाचार सुनतहिं विदुरक घरनि हर्षित भs जाइत छथि ।मुदा , ई हर्ष क्षणिक अछि । घरनी अपन घरक स्थिति के स्मरण करैत व्याकुल भs जाइत छथि ।

एहि सारंग गीत मे एकटा पाँती अछि , ” कन्नाक साग , चन्नाक रोटी ” । यैह थीक मैथिलक परिवार ।मोन पड़ैत अछि , पं. बच्चा झा ( नवानी ) के कहबी , ” अखन हमर बाड़ी मे बहुत रास साग अछि “ , ई कही ओ दरभंगा राजक चाकरी अस्वीकार कय देने रहथि । मिथिला समाजक यैह विशेषता अछि जे विष्णुतुल्य पाहुन के अबितहिं सगर गाम ओहि घरवारी के सहयोग करय लेल आतुर भs जाइत छथि ।एहिने सहयोग भाव हम अपन गाम -घर मे देखने छी जखन सभागाछी सँ बरियाती आबैत छल । कन्नाक साग , कन्ना फूलक तरुआ अधिकांश मैथिल गिरहथ लग रहैत छलनि , पाहुनक स्वागत लेल । विदुर के घरनी लग यैह किमरिफ छनि । तीमन लेल कन्ना के साग आ बदामक चिक्कस के रोटी । मोन मे कनिको ग्लानि नहि , एहि दिव्य भोजन सँ विष्णुतुल्य कृष्ण के जिमाओल गेल । एहि सारंग गीत मे मिथिला के आर्थिक पराभव आ हार्दिक हर्षभाव के अद्भुत समन्वय अछि , तैं मैथिल निर्धन भs सकैत छथि, दरिद्र किमपि नहिं । एहिठाम ज्ञातब्य अछि जे पहिल उद्धृत सारंग गीत क प्रसंग अछि , गोसाउनि घर जयबाक कालक गीत , जकर शब्द भक्तिपरक अछि । हरि भक्ति आ ताहि मे मिथिला क परिवारक चित्रण । मोनक उद्भाव आ यथार्थ क पराभव एकाकार भs गेल अछि ।

दोसर उद्धृत सारंग गीतक सामाजिक संदर्भ भिन्न अछि ।गोसाउनि घर सँ कोबर घर जयबाक प्रसंग ।मिथिला मे कोबर लिखल जाइत अछि ।कृष्ण -लीला के दृश्य । कृष्ण द्वारा गोपी के चिर हरण क गाथा ।कदंब गाछ, यमुना तट , सहित काउछ -माछ ; हास – परिहास संग संतानोत्पत्ति क संकेत ( fertility cult ) , श्रृंगार सँ आप्लावित कोबर लेखन आ तदनुरुप सारंग गीत । एहि सारंग गीतक शब्द बदलि गेल , भाव-प्रसंग बदलि गेल , ओएह कृष्ण आब बिहारी बनि नव कुंज भवन मे विहार करय लगलाह ।यैह थीक मैथिली गीतक भाव -प्रणवता ।विषयानुकूल गीत आ तकर शब्द -चित्रण । कंगुरिया धयने वर -वधु हरिक अभिनन्दन कय कोबर घर जा रहल छथि हुलसित मोन सँ , सोद्देश्य डेग भरैत , रास – लीला सँ परिपूर्ण परिवेश मे ।सारंग शब्द अपन समस्त शब्दार्थ संग उपस्थित भs जाइत छथि, सारंग नयनि, सारंग वरणी, सारंग लs चललि सारंग के….। मिथिला क सारंग गीतक ई दोसर रुप ओतबे मनोरम , कर्णप्रिय आ भावप्रधान अछि । विवाह आ ताहि मे कोबरक उल्लेख सारंग गीत के स्मरणीय बना दैत अछि, मोन के गुदगुदा दैत अछि, प्रफ्फुलित कय दैत अछि । शिव -पार्वती मिथिला क आदर्श दम्पत्ति छथि तs कृष्ण – राधा प्रेमक उत्प्रेरक । वधु नितदिन गौरी पूजैत छथि आ कृष्ण – लीला सँ उत्प्रेरित होइत रहैत छथि ।हरि आ हर के यैह समन्वय मिथिला के , मैथिल के सर्वतोभाव निष्णात बना दैत अछि जाहि मे सारंग गीत अपन शब्द -सौष्ठव सँ दू समानांतर सामाजिक यथार्थ के चित्रांकन करैत अछि ।


पेंटिंग: डाक्टर रानी झा Rani Jha


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भारतीय ज्ञान परंपरा : एक दृष्टिकोण, श्री आरिफ मोहम्मद खान, राज्यपाल, केरल।‌

मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल 2019, उद्घाटन समारोह, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र सभागार, जनपथ, नई दिल्ली।

दिनांक: 8 दिसम्बर 2019

आरिफ मोहम्मद खान, माननीय गवर्नर, केरल, दीप प्रज्वलन से कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए उन्होंने अपना प्रस्तुत भाषण दिया!

प्रो. मणिन्द्र नाथ ठाकुर, श्री नितीश नंदा, सच्चिदानंद जी, देवी एवं सज्जनों!
सबसे पहले सविता जी को बहुत धन्यवाद और मुझे लगता है कि मुझे माफ़ी मांगनी चाहिए कि मेरी वजह से वह मजबूर हुई थी, उन्होंने आज यहाँ उद्घाटन समारोह रखी है. मुझे वाकई में मजबूरी थी, लेकिन मेरा यह वादा है कि जैसे ही मौका मिलेगा, कोई भी छोटा मोटा कार्यक्रम होगा हम राजनगर अवश्य जाएंगे. मिथिला से जो सांस्कृतिक नॉलेज उपजा है राजनगर उसकी एक तरह से राजधानी है. निश्चित ही हम वहां हाजिरी लगायेंगे. यह कहने के बाद पहले इस लिटरेचर फेस्टिवल का औपचारिक आरम्भ हो, उसके लिए मैं कहना चाहूंगा की:

“हम मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल 2019 के सार्थक आ सफल आयोजन के कामना करैत, एकर शुभारम्भ के घोषणा करैत छी”.

असल में लिटरेचर फेस्टिवल क्या है? असल में आप अक्षर का, नॉलेज का, विद्या का साहित्य का, कला का, नाट्य का, निरुक्त का समारोह मना रहे हैं. और मैं ज्यादा नहीं कहता, जरा गौर कीजिए हमारी 6 दार्शनिक परंपरा/विद्यालय हैं उनमें से चार कि उत्पत्ति मिथिला से हुई है. मिथिलांचल में रहने वाले लोगों को कितना मालूम है बताइए, ये क्यों हुआ ऐसा, मुझे यह प्रश्न परेशान करता था, जिस दर्शन संस्कृति ने “अहं ब्रह्मा अस्मि- तत्त्वसमि” की कल्पना दिया है दुनिया को, वहीं ब्रह्मा आपके अन्दर और वही ब्रह्मा मेरे अन्दर निवास करता है. द्वैत का भाव समाप्त करने का प्रयत्न किया है. हमारी उपनिषद ने यह बताया है कि “द्वितीय यावा वय भय भवति”, अर्थात दूसरे से इंसान को भय लगता है. तो हमारी सभ्यता को कोई समझा है तो विवेकानन्द को याद कीजिए कि मेरे अभियान बहुत आसान है और उसकी सरल व्याख्या किया जा सकता है. वह अभियान मिशन है, हमारे उपनिषदों में यह बताया है “Our mission is to preach humanity and its manifestation in all moments of live.”  सिर्फ हिन्दुस्तानियों को नहीं बल्कि पुरे मानवता को बताना है कि उनके अन्दर दिव्यता का निवास है. समस्या है कि अहं के नीचे ब्रह्म अथवा बुद्धि कि परतें दबा हुआ है. अहं अज्ञान है. वे जो स्वयं को आंकें वे प्रकृति का साकार है. “तपा स्वाध्याय निरुतम” ज्ञान है.

भगवान राम लक्ष्मण से कहते हैं कि वन में जाने से शारीर को कष्ट होगा, जो ऐसा सोचते हैं कि मैं एक शरीर हूँ वों अविद्या के शिकार है. मैं चैतन्य आत्मा हूँ और जो इस सत्य को जानते हैं उनके पास विद्या है. मनुष्य ही नहीं दुसरे जीवों में भी दिव्यता है. हम कैसे अपने विरासत के बारे में भूल गए है? ये ज्ञान फलां जाति, फलां वर्ण तथा महिलाओं को नहीं दिया जा सकता. एक खूबसूरत विचार स्वामी रंगनाथनंद जी (अध्यक्ष, राम-कृष्णा मिशन परमहंस) ने अपने एक लेख में लिखा है कि :
“सभी सभ्यताओं के पतन के दौर में हमने भारत में राजसत्ता का प्रयोग किया और ऐसी परंपरा बनाई जिसमें देश कि बड़ी आबादी को ज्ञान से वंचित कर दिया और यह पतन के काल में हुआ है और यह हमारी परंपरा का हिस्सा नहीं है”.

स्वामी जी ने श्रीमद-भागवत का उदाहरण दिया है और कहा है कि कोई भी व्यक्ति जो दूसरे से ज्ञान को छिपाए, उसके लिए शब्द का प्रयोग हुआ है: “सरस्वती खल शत्रु” (Villain). तो सरस्वती के उपासक वे नहीं हो सकते जो खल करते है. यदि आप ज्ञान छुपा रहें हैं तो आप उपासक नहीं हैं, आप उनके खल हैं. दुनिया की दूसरी संस्कृति में विविधता से लोग परेशान होते थे, केवल भारत में विविधता विधमान रही है. जबकि पूरे विश्व में विविधता 200 वर्ष पूर्व आई. यहाँ तो विविधता की शुरुआत के साथ यात्रा आरम्भ होती है, “एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति” अर्थात एक सत्य है. एक ही परिवार के सभी लोगों का विचार-आचार तथा संरचना एक नहीं होती बल्कि हमें सौहर्दता प्रदान करनी होती है. हमें विविधता ने कभी परेशान नहीं किया. हम तो विविधता को अपना तत्व माने हैं. दो लोगों का समझ एक ही पुस्तक को दो ढंग से समझेंगे. और अपने समझ को खुदा का क़ानून बताउ, समस्या वहां से शुरू होती है. ये तो उन व्यक्ति विशेष का समझ है. मेरी समझ तो प्रतिदिन विकसित होती है न, इसलिए अंतिम मुहर लगा दूँ तो खुदा के पुस्तक के साथ भी नाइंसाफी है.
aarif
एक हिंदी के कवि ने कहा है राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं जो एक वाणी, एक बानी, एक पत्नी को निभाएं तो वही कृष्ण लीला पुरुषोत्तम, माखनचोर, चित्तचोर हैं. दोनों एक ही हैं लेकिन युग के अनुसार अवतार है। एक मर्यादा पुरुषोत्तम है, दूसरा लीला पुरुषोत्तम हैं। पिता भी चाहते थे कि राम उस समय को न माने लेकिन राम ने ऐसा नहीं किया, वही कृष्ण ने महाभारत में कोई नियम ऐसा है ही नहीं जिसकी कमर न तोड़ी हो । भगवान श्री कृष्ण और राम में लेकिन एक समानता है दोनों में से एक भी ने अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ नहीं किया जो भी किया लोक कल्याण, लोक सिद्धि के लिए किया। तो हमने हमेशा यह माना है कि “सर्वज्ञम तत् अहं वन्दे परम् ज्योतिष तपो अहं तीरवरतायम मुखात देवी  सर्व भाषा सरस्वती”। जितनी दुनिया की भाषाएँ हैं, भाषा बोली के अंतर को समझना चाहिए और ये सभी भाषाएँ  माता सरस्वती कि बोली हैं। हर भाषा एक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। जितनी भाषाएँ हम सीख सकते है हमें सीखनी चाहिए। हदीस में लिखा गया है कि भाषा किसी भी समाज की मानसिकता का माध्यम है। और सविता जी आपसे माफी चाहता हूँ की इतने लोग सभागार में है, दिल्ली में इतने बजे तो संसद भी शुरू नहीं होता है। 11 बजे दिल्ली में काम का वक्त शुरू ही होता है। और आज तो रविवार है 10 बजे यदि 10 लोग भी हो तो खुशी की बात है।  दिल्ली में मिथिला साहित्य की सभा हो और इतने लोग उपस्थित हो तो ये बहुत खुशी की बात है।

विश्व गुरु की उपाधि किसी ने नहीं दिया। 9 वीं और 10 वीं शताब्दी में मध्य पूर्व देश(अरब) में इतिहास लिखा जा रहा था। बगदाद में House of wisdom को विश्वविद्यालय मान सकते हैं। यूरोप में अभी भी पुनर्जागरण नहीं शुरू हुआ था। वहाँ के खलीफा ने खत लिखा की: – मैंने सुना है तुम्हारे पास बहुत किताब है जिस पर तुमने ताला डाला है, क्या तुम इसमें से कुछ हमें दे सकते हो ? तीन दिन काउन्सिल की मीटिंग चली, उन्होंने कहा कि अरब अभी बौद्धिकता के क्रांति में है, इसको भ्रष्ट करने का यही सही तरीका है, ये कुछ किताबें मांग रहे है सारी इन्हीं को दे दो और उन्होंने सारी यूरोपीय किताबें ऊँटों पर लाद के भेजवा दिया। उसी समय कई भारतीय पुस्तकों का अरबी में अनुवाद किया गया। 8 वीं सदी में एक कनक नाम का पंडित  कुछ किताबें ले कर बगदाद पहुँचता है। उसमें एक किताब है जिसका नाम है “सूर्य-सिद्धांत”। सूर्य-सिद्धांत के कुछ हिस्सों को अनुवाद करके खलीफा मंसूर को सुनाया जाता है। वों इतना  मोहित हो जाता है सुन के कि वो अरब के एक ज्ञानी को बुलाता है और कनक को उसके साथ मीटिंग करवाता है और कहता है इस किताब का अनुवाद अरबी में करवाओ । स्पेन के खलीफा को पता चलता है कि  एक कोई  बहुत अच्छी किताब है जो हिंदुस्तान से आई है और जिसका अरबी में अनुवाद हो रहा है। वों भारी रिश्वत दे के किताब छापने वाले से उसकी एक कॉपी निकलवा लेता है। अरबी में उस किताब को नाम दिया जाता है “हिन्द-सिंध”। “हिन्द-सिंध” पुस्तक का अनुवाद यूरोप के सभी पुस्तकालय में आ जाती है और ये वहाँ पुनर्जागरण का कारण बनती है। ये इतिहास की बात है इसलिए विश्वगुरु की बात आती है। भारत के बारे में ये उपाधि से नहीं आती यह रिकग्निशन से आती है।

ऋषियों ने कल्पना की थी। 9 वीं, 10 वीं सदी में अरब के विद्वानों ने इतिहास लिखा,  इसमें इब्न-खलदून, इब्ने-असीर, तबरीक, याकूबी, मासुबी सभी ने पहला अध्याय हिंदुस्तान पर लिखा है और वो कहते है कि दुनिया मे 4 सभ्यता है (१) ईरानी(शान शौकत और वैभव के लिए), (२) रोमन(सुंदरता के लिए), (३) चीनी( हुनरमंद और कौशल, कानून की आज्ञा अनुपालन  के लिए) (४) भारत(अपनी ज्ञान, परम्परा के लिए जाना जाता है) और वो सिर्फ नहीं कह रहे है, 7 वीं सदी में हुजूर  सस्सलम पैगम्बर मदीने में बैठ के (भारत कभी आये नहीं) कह रहे है कि मैं हिंदुस्तान की सर जमीं  से ज्ञान की शीतल हवा की आती ठंडाई महसूस कर रहा हूँ। इकबाल ने इसे कहा है “भिरे अरब को आयी ठंडी हवा जहाँ से नज्म में “। हमें अपने आप को कोई उपाधि लेने का कोई अधिकार नहीं था लेकिन दूसरों ने इसे स्वीकार किया है/ किया था। हमारी बदकिस्मती जहाँ हमें जहां सोचना चाहिए आज हम खुद अपने परम्परा से परिचित नहीं हैं। हमारी ऋषियों ने जो कल्पना की थी वो इस प्रकार है “एतद् देशा परसु तस्या सकाक्षात अग्रज अनमना, सोम सम  चरित्रम शिक्षेरण पृथ्वीयं सर्वम आनवहः”।

हमारे ऋषियों ने कल्पना की थी कि दुनिया के लोग हमारी परंपरा और वों अपनी परम्परा का ज्ञान लेने भारत आएंगे और ऐसी परिस्थिति तब थी जब हमारे ऋषि थे। हमारे पास ऐसी  बौद्धिकता है कि क्रिस्तानी और इस्लाम को अध्यन करने लोग हिंदुस्तान आते हैं। तुलसीदास जी कहते है कि ‘कोई न रहे कहानी दासी बन जईहे रानी’। पानीपत में जितनी फौजें थी उससे ज्यादा तमाशा देखने वाले थे की बाबर जीतेगा या लोदी!! क्योंकि वे अपनी दीन को बदलना चाहते थे अज्ञानस्वरूप। मुझे  कपड़े ही धोना है मेरा क्या स्टेटस है । आज हम वहाँ नहीं है जहाँ थे। आज तो मोची भी जिसके पास दुकान नहीं है उसके बच्चे भी बेहतरीन स्कूल में से एक मे पढ़ते है।  उनके ऊपर छत नहीं है लेकिन वो भी आगे बढ़ना चाहते है। फेस्टिवल का मतलब यह है की जिम्मेदारी महसूस करें जो ज्ञान से वंचित है। हमारी पढ़ाई पर समाज सम्पूर्ण का पैसा खर्चा हुआ है। फेस्टिवल इसलिए अच्छा लगता है कि हम ज्ञान का अर्थात शब्द का  उत्सव मनाते है। उत्सव में सब होना चाहिए। आप ये काम करेंगे हमे पूरा विश्वास है। एक बार फिर आपको धन्यवाद देते हुए विदा लेना चाहता हूँ। धन्यवाद।।

जय हिन्द, जय भारत!!

आरिफ मोहम्मद खान, माननीय गवर्नर, केरल राज्य, भारत।


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Seeing Mithila through the lens of Varnaratnakāra: The text and the Context

This paper is an attempt to locate the region Mithila through the Varnaratnakāra, a text of curious subject matter. To begin with, at the request of the Asiatic Society of Bengal and through the authorisation of the Bengal Government, Pandit Haraprasand Sastri conducted a search for Sanskrit manuscripts during the years 1895 to 1900 with the assistance of Pandita Rakhala candra kavyatirtha and Pandita Vinoda-Vihari Kavyatirtha.

It was Pandita Vinoda-Vihari Kavyatirtha who discovered the Varnaratnakāra of Jyotirīsvara -Kavisekharacraya during his travel to all over Bengal (including Bihar, Chota Nagpur and Orissa). Thus it was Pandit haraprasad Sastri who brought the text to the academic platform. It is the oldest prose work of Maithili language (North Bihar) preserved in a unique MS. On palm leaf now in the library of the Royal Asiatic Society of Bengal, in its Government Collection of MSS (48/34).

Suniti Kumar Chatterjee and Babua Misra edited the text and was first published in 1940 printed by the Royal Asiatic Society of Bengal. Suniti Kumar Chatterjee in the introduction to the texts attests to the its Maithili origin and Maithili characters and also the fact that no other Bengali or Maithili manuscript of that age (14th century) has yet been discovered.

Written in 1324 CE by the Maithili scholar, priest and poet Jyotirīsvara Thākkura, It is in a nature of a compendium but it is descriptive and contains graphic and detailed sketches of many important aspects of the social economic life of its time.
The subject matter of the text in the words of Pandit Haraprasad Sastri is:

The subject matter of the book is very curious. It gives the poetic conventions. It is a sort of vernacular and Sanskrit terms, a repository of literary similes and conventions dealing with the various things in the world and ideas, which are usually treated, in poetry. We have in it either bare list of terms, or the similes and conventions are set in the framework of a number of ‘descriptions1.

The text is divided into seven or apparently eight chapters called the kallolas. The work is in prose.
The chapters are suitably called Kallolas’ (streams or waves) as the work is a Ratnakāra, i.e., Sea.
In each kallola, there are a number of these lists of terms and conventional similes; each of these lists, or descriptions, is preceded by the formula- atha Varnana. Each kallola has at its end its name, together with the name of the author and the title of the work.

The Kallolas are as follows:

  • Nagara Varnana (description of the city)
  • Nāyika Varnana (description of the Hero)
  • Asthān Varnana (description of royal court)
  • Rītu Varnana (description of seasons)
  • Prayānak Varnana (various subjects including war, conquest and troops etc)
  • Bhāttādi Varnana (desciption of court bards)
  • Saṁsāna Varnana (description of the cemetery)
  • The title of this kallola (eighth) is missing

The text contains the descriptions of the city; the author has described jewels, clothes, fine expensive stuffs, tents, gambling houses, doctors, astrologers indicating the beautiful city life prevalent in Mithila.

In the Asthān varnana, he has described the beauty and grandeur of the court. In another chapter, kallola he talks about the wars, horses, forests, mountains, cemetery etc. on one hand and the music, dance, poetry on the other thus including everything he witnessed and heard.

Therefore in the words of Suniti Kumar Chatterjee, ‘it is a compendium of life and culture of medieval India in general and of Mithila in particular. the author takes us through the city and gives us a little glimpse into the ugliness that was in a ‘city’
Geographically, the region of Mithila is difficult to locate in the territorial boundaries except on the north, where the Himalayas are immovable. Mithila is a cultural zone that has never remained static.

In the Mithila Mahatmya Khanda of the Brihad Vishnu Purana (5th century CE) , we get an accurate idea of the region. It describes Mithila as situated between the river Ganga and the Himalayas, extending over 15 rivers and from kosi to the Gandaki in the west, for 24 yojanas and from Ganga to the forests of Himalayas for 16 yojanas.
The name Tairabhuktisca mentioned in the list of 26 names of Mithila in the Mithila Mahatmya also indicates its geographical location between the three rivers ganga, gandak and Kosi.

There are many persistent ideas found scattered throughout history and it is largely based on the inferences and the conjectures.
The river Ganga flowing from west to east divides Bihar into two parts, northern and southern. The northern part is constituted by three cultural zones viz, north eastern zone known as Mithila (Maithili speaking area), north west Bhojpuri speaking belt and between the two lies the region of Vajjika speaking people.
Mithila is a cultural-linguistic zone of the eastern part of India. The following districts are generally supposed to constitute the region today: Sitamarhi, Sheohar, Darbhanga, Samastipur, Madhubani, Begusarai, Seharsa, Supaul, Medhepur, Purnia, Katihar, Araria and Khagaria. The southeastern terai of Nepal is also recognized as part of the cultural zone of Mithila.
The Varnaratnakāra also provides a social survey of a city/town of Mithila and its surrounding areas with a clear distinction and spaces.
In recent times, the territory of Raj Darbhanga, one of the richest and largest estates in India of great Zamindari (landlords) coincided very roughly with the region of Mithila in north Bihar, extending into the districts of Monghyr, Bhagalpur and Purnea. The capital of Raj Darbhanga was the city of Darbhanga.
Local historians have noticed a shift to this administrative centre from the sacred centre of the Maithili Brahmins from different places to the core areas of Soitpura or Sotipur (a sacred geography with its heartland being triangle between Darbhanga, Madhubani and Madhepur), where in a group of 36 villages, all the highest ranking Brahmins, i.e. the Shrotriyas have their residences (or trace their original belongings).

The Sahadriya Khanda (a text belonging to the twelfth century) clearly mentions the name of Maithili Brahmins among the five dominant Brahmin communities in north India which indicates of Mithila emerging as an important cultural as well as a linguistic centre. Also Darbhanga, the heartland of Mithila, was also one of the Mahals in the Sarkar of Tirhut during the reign of Akbar, the Mughal ruler.

On the other hand, the Pañjī Prabandha (tradition of recording the genealogies) a unique institution of Maithili Brahmins established the endogamous boundaries of a new Maithili Brahmin community through the restriction on marriages and reproduction. The system is important for the sake of our discussion because it also dictates the future membership in the community, which established its territorial boundaries as well. The frequency of Land Grants to Brahmins during the period preceding the period under consideration indicated the growing popularity of the region (sources indicates the Brahmins migrating to the region of Mithila). The Pancobh Copper Plate inscription is an important example referring to the migration of people (Brahmins) from Kolancha to this region in the 11th century CE. The Bangaon Copper plate inscription also indicates that a Brahmin names Ghāṇṭūkaśarman from Kolancha was given land in north Bihar in the 12th century.
In her study of Brahmin migration in north India, Swati Datta writes that one of the chief causes of migration among Brahmins was political instability in home regions and the desire for security and stability, and improved livelihood. Therefore it is certain that by the 12th century the region Mithila had acquire a distinctive position and an identity of its own.

The texts deals with various topics including the production and commerce, the mechants and traders, the rulers and prostitutes and even the name of many countries seems to have visited the court of Mithila during the fourteenth century.
Jyotirīsvara mentions flattened rice (Churā, Chividyani) and fried rice (farhi). Thus, a fine variety of Churā (parched rice) with a heavy coat of thick curd and cream seems to have been a popular food of Mithila. Other items included Mungwa, Ladivi, Saruāri, Madhukupī, Mātha, Fenā, Tilwā, etc. He took delight in describing these items in feasts of the region

‘dadhi sharataka chandrama purnima pray…chewula uppar dadhidela’.
The use of betal-leaves (Pān) in Mithila was very popular then and now. The people of Mithila were adept in the use of betal leaves and Jyotirīsvara has prescribed a number of methods for the use of betals.
“nayaken pān mukhasuddhi kayela”
“Pan karpurak biniyoga”.

Jyotirīsvara has mentioned thirteen qualities of betel-leaves and has given a list of the varieties of spices and betel-nuts imported from other places.

“muktāk chūna, sindhuka kandakola, sinhal dwipak jātī fal, kanchik mukimen..ekone Sonjoge lagawal panchfal”.

There is a long list of the industries found in the text which includes fisheries, salt, opium liquor, iron, sugar, metal work, paper industry, stone and brisk works and various others such as inlay of stone works and enameling are mentioned. Other items includes alchohol (madira), oil (Sughandha elātel) and shampoo of at least four kinds such as Sõndu, Goñdu, Kiratū and Kānhū

We have an elaborate discussion about the textile and the costumes. It is very interesting to know that in the matter of costumes and dress materials, Jyotirīsvara doesn’t include the dresses worn by the women.
<br.
The textile industry included the manufacture of cotton, woolen and silk cloths in which the Dyeing industry, calico printing industry etc. also were imvolved.
Jyotirīsvara mentions as many as 43 stuffs manufactured in the country (des̃i) or imported in the separate lists named vastra varnana, the desiya varnana, the nirbhusan varnana, the neta varnana etc.

Horses are frequently mentioned. Asvavidya, asvavahaka, asva-ratha, asvaprakara are some of them. Asvaratha is mentioned in the list of the sorodasamahadana-varnana (16 mahadanas, great gifts). The various named of horses are turang ghola and ātāji, also horses of 24 breeds are mentioned.

Along with it the text also contains innumerable references to articles of diferent metals like gold, silver, bell-metal, alloy of eight metals (astạdhātu) etc.

It has been noted that region of Mithila was agriculturally one of the most developed and prosperous regions of eastern India. The other two main sources of wealth were Trade and fishing.

Stephen Henningham in his outstanding work ‘A Great Estate and its Landlords in Colonial India’ has shown the twin city of Darbhanga has been a prominent urban center already when the British rule was established. The main source of Mithila’s wealth (as is true for whole India) was agriculture. The natural fertility of the soil in most parts, copious rainfall and irrigation facilities provided since the early times, combined with industry of their peasants, Rich crops, such as cotton, sugarcane, lintents, oilseeds poppy, indigo etc., were produced in a large scale.

Though agriculture was occupation of the bulk of the people, there were many important industries in the rural as well as the urban areas. The trade and commerce have played a vital role in making Mithila evolve as a major actor in the economic world in ancient and medieval times. The period was marked by substantial commercial activities and urban developments. Literary evidences have shown that trade and commerce was the mainstay of the economy carried out by water and land.

To conclude, the above account of the various subjects described or listed the very great value of the text can be easily seen. It gives the microscopic view as Jyotirīsvara has witnessed the times quite evident in the description. While on one hand the presence of the Turko-Persian-Arabic words and on the other hand the knowledge of mostly Brahmanical works like the Puranas and the Mahabharata as well as the descriptions of the countries and the items exchanged clearly shows that the text cannot be ignored as it proves of the vibrant economy, a part of the composite culture.


Ref:
1.Quoted in Suniti Kumar Chatterjee Introduction


Bibliography:

Chatterji, Suniti Kumar and Babua Miśra Eds. Varṅaratnakāra of Jyotirīsvara-Kaviśekharacārya, edited with English and Maithili introductions. The Royal Asiatic Society of Bengal. 1940.

Choudhary, Radhakrishna, ed. “The Panichobh Copperplate of Samgramagupta (C. 12th-13th Cent. A. D.)” In Select Inscriptions of Bihar, Introduction and Appendix in English and Text in Sanskrit, 113–115. Madhipura: Shanti Devi, 1958.

Datta, Swati. Migrant Brāhmaṇas in Northern India: Their Settlement and General Impact, c. A.D. 475–1030. Delhi: Motilal Banarsidass, 1989.

Henningham, Stephen. A Great Estate and Its Landlords in Colonial India, Darbhanga, 1860–1942. Delhi: Oxford University Press, 1990.

Sircar, Dineschandra. “Bangaon Plate of Vigrahapal III; Regnal Year 17.” Epigraphia Indica XXIX, pt. I (1951): 48–57.

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CSTS Covid Initiative

Amidst the insurgency of covid-19 pandemic, Maithili Machaan has committed itself in combating the challenges being faced by unprivileged people. It had played a vital role in battling the monster virus. Several initiatives had been taken in the past few months. Those initiatives not just include aiding people physically but also psychologically.

It had been persistently providing free medical consultation to people. Else, it collaborated with two organisations : Jan man People’s foundation and Ayachi Nagar yuva sangathan. These organisations have been actively putting efforts on the ground and helping people to access basic necessities, medical facilities and consultation. Mithila Machaan also released a poster consisting of important numbers of concerned people who could help the needy. Through the poster the team manifested that they would exert themselves to help the deprived with necessities, food, medical consultation and so on.

covid19

Apart from its lead on the ground, Mithila Machan has been in the frontline to help people psychologically as well. It had been organising virtual sessions to help people in all the possible ways.
Maithili machaan had conducted a session with Vaidh Ganpati Jha who is an ayurvedic expertise. In that session, he answered to the general queries of people regarding home and ayurvedic remedies. He further elaborated about the precautions and common medications we can take at home.

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Moreover, the sister organization MLF has been conducting a series namely , “Hum jitenge” which is being hosted by Navin Chaudhary. In every next episode, Navin Chaudhary use to have a conversation with corona warriors who share a part of their recovering story. The sole motive of running this programme is to generate positive notion in audience’s psyche.

The nobel corona virus has wreaked havoc in India. During these hard times, Machaan had taken a major step to remind people that it is high time to adapt yoga as a part of our daily routine. Machaan had several sessions with Dr Hridayanand Jha who is an ayurvedic and yog expertise. In the very session he tried connecting with people and claimed pranayamas and asanas assist to build up a strong immunity system. Apart from covid, he also demonstrated how yoga helps us in coping up with multiple other health complications. The session was interactive and commendable.

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The another remarkable session Machaan had was with Dr. Abhinav shrestha Jha. He was himself unwell few days ago, still he came and addressed all the questions very calmly and patiently. Few major points Jha said included ; alertness and prevention is must. Similarly, he told lack of information might be creating difficulties. On the other hand getting trapped into misleading information can be very dangerous. As an end note, he encouraged the audience asserting, “corona is a disease, it might come but don’t stress yourself out. With patience, precautions and proper medications we can fight back.”

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Moreover, Machaan organised a session having Praveen Jha and Dhairyakant who have been continuously working in Darbhanga and Madhubani to bring awareness among people and to aid them with minor medical consultation and facilities. It was not just a session on elaborating and apprasing their efforts. The session was more about conversing on the ground reality specially in rural areas. Jha and kant also qouted how people are either taking corona very lightly or have developed a phobia. There is no in between. They claimed this unbalanced thought process of people to be a huge challenge.

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Due to lack of awareness and information the cases have been rapidly increasing in rural areas. Amid the increasing cases, lockdown and so on, people are facing inverse effects on other factors as well. In this session there were three panelists. Author Anushakti Singh,Vickey Mandal, Shaurya Roy. They interpreted how youths have come out to form alliances and help needy druing this difficult time. They explained how they have been helping people of their village with basic necessities, medicines, counseling and so on. Furthermore, they also discussed about the upcoming steps that could be taken. Lastly, they made appeal that how social networking sites could be used to raise awareness programmes and in various ways that could help people fight this pandemic. Machaan had ensured them to help them in all the possible ways from its end.

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Machaan invited Padma Shree Dr Usha Kiran Khan for the session where she talked about khadi, village industries and Gandhi. She particularly conversed about Gandhian leaning and legacy. In the session, she manifested about the post covid prerequisites and what could be the role of various parties. Either it is authority or civilians. In a statement she quoted that, “khadi is not just a piece of cloth, it is itself a very extensive word. It is a way of living instead.” She suggested that youths should come forward and join hands together to run and promote the cottage industries. The session covered historical dimensions. It was full of Khan’s intellect preaching.

Machaan had also bridged the gap between people of common origin, thoughts and identity. As a group, Machaan had always encouraged people to come out and share their views. Through the platform, people had come along with various posters, piece of writings, paintings etc to bring awareness among people.
The group members had also posted distinct videos concerned to covid precautions, management and cure.

Similarly, Dr. Shefalika Verma also posted a video of her daughter who is a doctor based in England, sharing her point of views on the pandemic. The video included relevant information about covid-19.

Similarly, there were another sessions, such as the session with Dr Nishank Shekhar Thakur. He potrayed how complicated the situation is when one of the family member is infected. He still asked people not to loose hope. It is possible that not everyone in the family gets positive report in such case as well. But only if we try and take preventive measures. He summarised about taking care of the patient and own self efficiently.

A session namely, “corona vimarsh” (corona discussion) was held where youths who had been working in the grassroot level were the panelists. Guriya shah, Dr kumudanand Jha, pushya Mitra, Vashu Mitra, Vikkey Ray, Utpal were the panelists. They manifested about the situation and challenges of the ground. Machaan had always appraised their heroic move. Hence, it had ensured them for all the possible assistance from its part.

In the wake of this deadly pandemic where the whole world is in crisis, Maithili Machaan believes that every help counts. It believes that, together we can fight this pandemic through grit and resilience. It has still been continuously working to identify the needs of community and looking forward to help them out in all the possible manner.

Report by Mitali Bhardwaj

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जानकी नवमी विशिष्ट व्याख्यान 2021 : श्री राम माधव

नमस्कार!
मेरा परिचय करते समय मेरे नाम के दो शब्दों का उपयोग किया गया| तो मैं मेरे व्याख्यान में प्रयास करूंगा जहाँ मैं जनक राजकुमारी की बात करूँ, वहां मैं पांचाल राजकुमारी का भी जिक्र करूँ| सबसे पहले जानकी नवमी के शुभ अवसर पर मैं आप सभी को ह्रदय से शुभकामनाएं देना चाहता हूँ|

आज इस जानकी नवमी के शुभ अवसर पर मां जानकी के व्यक्तित्व पर चर्चा-विमर्श करने के लिए इस कार्यक्रम का आयोजन हुआ है| आज मिथिला की बेटी भारत के स्त्रीत्व के प्रतीक के रूप में विद्यमान है| मां सीता को इतिहास में अनेक लोगों ने,अनेक विद्वानों ने उन्हें अनेक ढंग से देखने का प्रयास किया| किसी ने उन्हें व्यक्तित्व के आधार पर राम की अच्छी पत्नी और पतिव्रता के रूप में देखा| किसी उनको अबला कहा| किसी के लिए वह एक सुदृढ़ व्यक्तित्व थीं तो किसी के लिए फेमिनिस्ट| किसी ने उनके शक्ति के लिए उनकी माता पृथ्वी के समतुल्य रखा| जानकी के निमित्त अनेक व्याख्यान हमें देखने और सुनने को मिलते हैं| आज इस चर्च में हम ये जानने का प्रयास करेंगे की सीता कौन है?इसे किस दृष्टिकोण से देखना चाहिए?मैं एक दृष्टिकोण रखने का प्रयास करता हूँ! माँ जानकी भारतीय इतिहास के हजारों वर्षों में स्त्रीत्व के मूल्य के प्रतीक के रूप में आज भी हमारे सामने विद्यमान हैं| इस मूल्य को मैं सीतत्व कहता हूँ| “It is Sitahood that we should understand! It is Jankihood that we should understand!”

जब हम womanhood की बात करते हैं तो यह Sitahood है| यह Panchalihood है| यह Draupdihood है| इस जानकीत्व, सीतत्व,द्रोपदीत्व को समझने का प्रयास वर्तमान समाज को करना चाहिए| क्योंकि इतिहास के कालक्रम में मूल्य बदलते गए, और सामाजिक institutions के हाथों सामाजिक अनुशंसा के आधार पर morals बनते गए, नीतियाँ बनती गयी| इस तरह हम मूल्य के अपनी समझ और श्रद्धा को खोते गए| जानकीत्व, सीतत्व का महत्व उस बात में है| स्त्रियों के लिए जो सनातन मूल्य की दृष्टि है उस पर आज हम विचार करेंगे| त्रेतायुग की जब बात आती है तो कहा जाता है कि तब सब कुछ धर्म के आधार पर चलता था| यानी ना कोइ दंड देने को राजा था ना कोई गलत करने वाला प्रजा| सब का रास्ता धर्म का था| ना तो कोई धर्म का implemention करने वाला था ना कोई तोड़ने वाला| लेकिन उस समय स्त्री का महत्व पुरुष के समान था| पुरुष और महिला मिलकर एक पूर्णता होती है| जैसे प्राचीन चीन में जिन-यांग की परिकल्पना होती है, वैसे ही यहाँ पुरुष और महिला के साथ समग्रता की मान्यता रही है|हमारे वेद में 30 से अधिक महिलाओं का नाम आया है जिन्होंने अपना सहयोग दिया| वैदिक काल की एक स्त्री वाक् ने तो यहाँ तक कहा है कि-“ मैं ही इस राष्ट्र की सेवा करती हूँ| कोई भी वैदिक देवता यथा ब्रम्हा,विष्णु महेश को स्त्री शक्ति के बिना नहीं दिखाया गया है| वैदिक काल में कोई भी रिचुअल बिना स्त्री के पूरा नहीं होता था| सांख्य दर्शन में तो स्त्री और पुरुष को ही अंतिम सत्य माना गया है|

जब सीता का युग आता है जिसे त्रेतायुग माना गया है| त्रेता युग में पूर्व के धर्म के व्यवहार का तरीका बदल गया| स्त्री के सामाजिक स्थिति में ह्रास हो गया| यहाँ तो राम हमेशा सीता से जान छुडाते दिखते हैं| लेकिन सीता ने महलों में नहीं रही, पुरुष के साथ रहना ही सनातन धर्म है इसिलिए सीता महलों में ना रही। फिर जब रावण को जीत लिया राम ने फिर सीता को साथ रखने से मना कर दिया। उन्होंने बोला कि मैंने रावण को तुम्हारे लिए नहीं धर्म के लिए मारा। तो सीता ने राम से कहा कि जिसे तुम धर्म कहते हो वो ये काल धर्म है, युग धर्म है शाश्वत नहीं है। इस धर्म का निर्धारण कुछ सोसिअल institution ने निर्धारित किया है इस मोरल्स का निर्धारण किया है समाज के institution ने। लेकिन शाश्वत धर्म morals पर, सामाजिक नैतिकता पर नहीं चलते।

मित्रों हमारे सनातन संस्कृति में हमने मूल्यों को morals के ऊपर का दर्ज़ा दिया। morals चाहिये क्योंकि सामान्य व्यक्ति मूल्य को नहीं समझ सकते, लेकिन सीता राम से कहती हैं तुम तो सामान्य नहीं। सीता को राम ने दुबारा कहा कि तब जब मैंने तुम्हारा परीक्षा लंका युद्ध के बाद लिया था तब मुझे नैतिक मूल्य का पालन करना था अब मुझे राजधर्म का पालन करना है इसीलिए तुम चले जाओ। तब सीता का राम से प्रत्यक्ष बात नहीं हो पाती, क्योँकि राम ख़ुद सीता को ये कहने की हिम्म्त नहीं कर पाते और लक्ष्मण के साथ रथ से सरयु के किनारे भेज देते हैं। वहाँ जा लक्ष्मण कहते हैं कि ये मेरे भाई का आदेश है कि राजधर्म के पालन को आपका परित्याग करना है। लेकिन सीता मौन रहती है कि लक्ष्मण को क्या समझाना, उससे क्या विवाद करना।

लेकिन सीता जब दूसरी बार प्रवास में जाती है तो सीतत्व क्या होता है, वो value, महिला की dignity का value क्या होता है? महिला की शक्ति का value क्या होता है इसका परिचय लव-कुश के रूप में देती है सीता। इसीलिए जब राम को पता चलता है कि लव-कुश इतने पराक्रमी और इतने संपूर्ण समपन्न, इतने पढ़ें लिखे, इतने योग्य उन्हें आश्चर्य लगता है कि बनाया किसने इसे? इसे सीता ने बनाया। संत महात्मा ॠषि सब लगे थे एक छोटे से बालक राम को, राम विग्रहवान धर्म: और मर्यादपुरुषोत्तम राम बनाने में और लव-कुश को राम की तरह योग्य पुरुष बनाने का कार्य अकेली सीता ने किया था। अनादि काल में जिस रूप को हमारे वेद्कारों ,संत, ॠषि, महात्माओं ने समझा था उसका जीता-जागता परिचय दिया सीता ने।
इसलिए मित्रों मैं कहता हूँ कि रामो विग्रह्वान धर्म: का जो परिचय है राम का, इसे राम के दूसरे परिचय मर्यादा पुरुषोत्तम के साथ जोड़ कर समझना चाहिये। राम का जो धर्म की बात है इसे विग्रहवान धर्म कहते हैं ये धर्म युग धर्म था। युग धर्म जो त्रेतायुग का धर्म था उसके विग्रहवान धर्म थे। वे मर्यादपुरुषोत्तम थे। लेकिन ये मर्यादा तय किसने किया था? ये मर्यादाएं जिसे हम नीति कहते हैं हमारा समाज तय करता है| जहाँ तक सीता की बात हैं वे विग्रहवान मूल्य हैं| मैं कहता हूँ जहाँ राम विग्रहवान धर्म हैं वहीँ सीता को विग्रहवान मूल्य माना जाना चाहिए| मित्रों! जब सीता को समझते हैं ना इस बात का ध्यान रखना, अनैतिक तो नहीं बनना लेकिन नैतिकता के परे भी कुछ मूल्य होते हैं| समाज में नैतिकता के परे जो मूल्य होते हैं ना उन मूल्यों का निर्वाह विद्वान लोगों को करना चाहिए| सीता उन सनातन मूल्यों की प्रतिक थीं| जहाँ महिलाओं की सम्मान का प्रश्न होता था, महिला जैसे त्रेतायुग आते-आते शोषक वर्ग बन गयी| तब कोई राजधर्म, नैतिक धर्म के नाम पर भी छोड़ सकता था| सतयुग में तो स्त्री के बिना पुरुष की पूर्णता थी ही नहीं| सीता उस पूर्णता का परिचय राम को भी दे रही थी और राम के रूप में अन्य को भी दे रही थी| त्रेता के बाद जैसे ही द्वापरयुग आया इस मूल्य का और क्षरण हुआ| द्वापर में तो स्त्री commodity बन गयी जो आज भी चल रहा है| द्रोपदी को शर्त में लगा दिया गया कि मैं पत्नी को बेच भी सकता हूँ| फिर कृष्ण को उतरना पड़ा महिला के dignity की रक्षा के लिए|

इसीलिए कृष्ण का अवतार राम से भिन्न है, राम सामान्य नैतिक मूल्य के पालन करने वाले के रूप में हैं वहीँ कृष्ण द्वापरयुग में वैदिक सनातन मूल्यों की रक्षा करने वाले एक भगवान के रूप में अपने कर्तव्य का पालन करते हैं| वे द्रोपदी के साथ खड़े होते हैं| कृष्ण की जो दृष्टि विशिष्ट थी वो महिला के व्यक्तित्व को दुनिया के सामने लाना चाहते थे| जब युद्ध टलने का वक्त आता है, जब दुर्योधन पांच ग्राम देने की बात कृष्ण के सामने रखते हैं कि ये गाँव ले कर पांडव रहे| अगर ये बात कृष्ण धर्मराज के सामने रखते तो वो तैयार हो जाते क्योंकि वे तो युद्ध के पक्ष में थे ही नहीं| इसलिए ये बात कृष्ण ने द्रोपदी से कही तो इस पर द्रोपदी ने कहा कि मेरे निर्लज्ज पति ये लेना चाहते हो तो ले लें लेकिन मुझे जब तक दुर्योधन का खून लाकर नहीं दिया जाता तब तक मैं अपना केश नहीं बांधुंगी| द्रोपदी की उस आग्रह के चलते बाद में युद्ध होता है| कृष्ण उस व्यक्तित्व को दुनिया के सामने लाना चाहते थे|

युद्ध विराम के बाद जब शांति पर्व हो रहा था तो युधिष्ठिर के साथ द्रोपदी भीष्म पितामह से मिलने जाती है, भीष्म पितामह बाण शैया पर थे| वे पितामह से धर्म की शिक्षा सीखने जाते हैं| जब द्रोपदी वहां से गुजरती है तो उनकी बात सुनकर हँस देती हैं| किसी वृद्ध के सामने महिलाओं का हँसना वो भी तब, जब वो मृत्यु शैया पर हों हमारे समाज में बुरा माना जाता है| इस पर युधिष्ठिर उन्हें डांटते हुए कहते हैं ये क्या कर रही हो? यहाँ क्यों हँस रही हो? इस पर भीष्म पितामह युधिष्ठिर को रोकते हैं कि द्रोपदी की हँसी जायज है| क्योंकि जब द्रोपदी की साड़ी भरी सभा में खिंची जाती थी उस समय मैं कुछ नहीं कर सका क्योकि मेरा दास धर्म महिला के सम्मान से बड़ा बन गया था| द्रोपदी उस बात पर हँस रही है कि क्या मैं राजधर्म बता सकता हूँ? राजधर्म जो कि इस वर्तमान धर्म से परे है जिसमें महिला सम्मान की बात है उसको सिखाने की योग्यता मेरे में है क्या? इस बात पर वो हँस रही है उसकी हँसी जायज है|

मित्रों सीता और द्रोपदी को हमें इस दृष्टि से देखना चाहिये, जिनके लिए सम्मान और स्वाभिमान सभी नीतियों और कालधर्म से परे है| मैंने पहले भी कहा कि इसका मतलब ये नहीं की अनैतिक हो जाना है| महिला का जो सम्मान है, स्त्रीत्व है उसकी तरफ उपेक्षा नहीं करनी चाहिए| और जब कलयुग में हमने प्रवेश किया है तो उन मूल्यों के क्षरण में हम पराकाष्ठा देखते हैं, जिसमें महिला विलासिता की वस्तु है, एक commodity है|दो extreme परिकल्पनाओं में आज महिलाओं को हमने छोड़ा है| जब जानकी द्रोपदी की याद करते हैं| हमारे लिए दोनों प्रकार के extreme से परे महिलाओं के सम्मान का प्रश्न है| जिसके लिए जानकी और द्रोपदी ने संघर्ष किया था| जिसके लिए उन्हें इतिहास में उच्च स्थान दिया है|इसका मैं एक दो उदाहरण मैं आपको देता हूँ-राजा जनक के दरबार में याज्ञवल्क्य और गार्गी का ब्रम्ह पर संवाद होता है|दोनों मिथिला के हैं| एक समय ऐसा आता है जब याज्ञवल्क्य गार्गी को याद दिलाते हैं कि गार्गी तुम अब प्रश्न पूछने के उस सीमा तक पहुँच गयी हो हो जिसके उपर कोई प्रश्न ही नहीं है, सिर्फ ब्रम्ह है,जिसे महसूस किया जा सकता है|क्या आज हमारे घर में महिलाओं को प्रश्न पूछने का अधिकार है? शंकराचार्य मंडन मिश्र के घर गए| मंडन जानते थे कि शंकराचार्य अद्वैत के प्रकांड विद्वान हैं| मंडन अद्वैत को नहीं मानते थे| शंकराचार्य को पता होता है कि वो शास्त्रार्थ के लिए नहीं तैयार होंगे तो भिक्षा में शास्त्रार्थ मांगते हैं| न्यायमूर्ति के रूप में मंडन की पत्नी भारती बैठती है| मंडन मिश्र हार जाते हैं भारती मानती है कि मंडन मिश्र हार गए| लेकिन भारती शंकराचार्य से कहती हैं कि सिर्फ मेरे पति को हराने से नहीं होगा| इतिहास में लिखा गया है कि काम विद्या पर शास्त्रार्थ होता है| शंकराचार्य तो ब्रम्हचारी थे तो वे कश्मीर के मरे हुए एक राजा के शरीर में प्रवेश करते हैं और उस शरीर से शिक्षा प्राप्त कर भारती देवी से जीतते हैं| हमने ये दर्जा इतिहास में स्त्रियों को दिया है|चर्चा कभी नहीं हुआ कि पति हारा, पत्नी जीती| क्योंकि बात महिलाओं के सम्मान की थी|हमारी संस्कृति में उनको ऊँचा दर्जा दिया गया है|आज इस बात को समझ हमें महिला वर्ग से व्यवहार करना होगा|

पाश्चात्य की बात मैं नहीं कर रहा, उसका मूल्य ही गलत था| होमर का जब इलियड पढ़ते हैं तो वहां हेलेन का जो वर्णन है, वहां वो सच में अबला थी| वो कहती हैं- I’m helpless. मुझे पेरिस राजा के पास जाकर सोना ही पड़ेगा|सेमिटिक साइट्स में इव की जो वर्णन हुई है वो एकदम वर्तमान काल तक आज एक सेमिटिक रिलिजन का व्यक्ति विषम प्राणी ही मानता है जिसने दुनिया को खराब किया| क्या किया इव ने? आदम को एक forbidden फ्रूट खाने के लिए प्रेरित किया| आज तक 2000 वर्ष बाद भी पाप माना जाता है| मूल्य ही गलत था लेकिन हमें इस व्याख्या में नहीं जाना| उस समाज के लिए वो मूल्य थे इसीलिए वहां बहुत बड़ा फेमिनिस्ट आन्दोलन चलाना पड़ा,मूल्य बदलने के लिए आदोलन चलाना पड़ा| जीन एंडरसन,ऑस्ट्रेलियाई फेमिनिस्ट कहती हैं कि-‘ हमारे लिए समस्या यह नहीं है कि महिला सशक्त है कि नहीं है बल्कि पुरुषों को इस बात को मानने के लिए प्रेरित करना यही फेमिनिजम का चैलेंज है|’
पर हमारे यहाँ मूल्य सही है हमने यह माना है की स्त्रीत्व जो है वो ऊँचें दर्जे का है पर समय के साथ हमारे morals और पाश्चात्य morals ने मिलकर जो व्यवस्था का जो निर्माण किया वो morals तो बन गए लेकिन dignifiy नहीं रहे महिला के लिए| मित्रों आज संघर्ष उन dignity का है| कानून अनेक बन सकते हैं बनना भी चाहिए महिलाओं की सुरक्षा कानुन को करना ही है| कानून बनना है पर कानून से परे व्यक्ति को महिलाओं के प्रति सम्मान का अभ्यस्त करवाना पड़ेगा| एक मानसिक दृष्टि देना पडेगा| देखिये! एक शब्द हम बहुत rudely प्रयोग कर लेते हैं हम देखते हैं कि जब कोई पुरुष गलत रास्ते पर होता है तो उसके लिए बोलते हैं कि वो भुवनेंद्र है| भुवनेंद्र क्या होता है? यानि हर महिला के लिए हमारा दृष्टि यही है कि वो पतित है और केवल पुरुष उस पतित महिला को use कर रहा है| सोच में ही ये है कि woman एक infidel प्राणी है और उनके साथ व्यबहार करने वाला भुवनेंद्र है| यह सोच को बदलना होगा, इस शब्दावली को बदलना होगा| तभी जाकर स्त्री को सम्मान का दर्जा मिलेगा| आज हो जाता है पूजा करने की बात| बालिका पूजन होता है| अच्छा है| लेकिन क्या ये rituals है? मैं यहाँ मंच से पूछना चाहता हूँ कि कितनी महिलाएं सोचती हैं कि उनके पति या अन्य पुरुष आ कर उनको पुष्प चढ़कर पूजा करें!

वो वे नहीं चाहते,वे चाहते हैं कि भाई जीवन में सम्मान तो दो, एक तो मुझे विलास की वस्तु के रूप में मत देखो और दूसरा कि मुझे किचन के लिए बंधित व्यक्ति मत बना दो| मुझे एक महिला के रूप में अस्तित्व और उसका सम्मान दो| जानकी पांचाली का जीवन ये कहता है | उस जानकीत्व को उस सीतत्व को हमें हमारे समाज में वापस लाना है| इस जानकी नवमी के अवसर पर उस पर गहरी चर्चा हो ऐसी मैं अपेक्षा करता हूँ| मेरे विचारों में कुछ विचार यहाँ के विद्वानों को नहीं जंचता हो तो वो मेरे अज्ञान का ही रूप समझें | इसी के साथ मैं अपनी वाणी को विश्राम देता हूँ, नमस्कार|

नोट: यह आलेख MLF–2021 में जानकी नवमी के अवसर पर श्रीमान राम माधव जी के दिए गए दिनांक 21.05.2021 के वक्तव्य का शब्द रूपांतरण है| CSTS टीम के सदस्य कुमार अम्बिकेश ने इसे यथासंभव वैसे ही लिखने का प्रयास किया है जैसा कि श्रीमान राम माधव जी ने अपने व्याख्यान में बोला था, लेकिन फिर भी नि:संदेह त्रुटि की संभावना है|कृपया अशुद्धियों को नजरअंदाज करें|

csts

श्री राम माधव एक राजनीतिज्ञ, लेखक और विचारक हैं| वे वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(RSS) के राष्ट्रीय कार्यकारिणी शक्ति के सदस्य हैं| पूर्व में बीजेपी के नेशनल जनरल सेक्रेटरी रह चुके हैं| श्रीमान माधव जी ने कई अंग्रेजी और तेलुगु भाषा में पुस्तकों का सृजन भी किया है| जिसमें उनकी हालिया प्रकाशित किताब है ‘Because India Comes First: Reflections on Nationalism, Identity and Culture.’ The Indian Express और Open Magazine सहित कई प्रकाशनों के लिए लिख चुके हैं|वह अंग्रेजी की मासिक “भारतीय प्रांगन” के संपादक है और साप्ताहिक तेलुगु पत्रिका “जागृति” के सहायक संपादक हैं| श्री राम माधव जी ने 30 से अधिक देशों की यात्रा की है और कई अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है|

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Two Snippets of Mithila Painting

S. C. Suman: Continuity and Change in Mithila Painting

Just as it was a firingi none other than Sir George Abraham Grierson who first used the label ‘Maithili’ for the cross–border language of that name spoken in Nepal and India, so it was a firingi named William Archer who discovered Mithila painting and immortalized it in his 1942 article titled ‘Maithil Painting’ in Marg: A Magazine of the Arts wherein he published a number of photographs of Mithila wall paintings taken in 1940. Sadly, none of the wall paintings that Archer photographed exist today – the sole exception being a black and white photograph of a 1919 wall painting commissioned by Maharajadhiraja Rameshwar Singh of Darbhanga to decorate the kobarghar ‘nuptial chamber’ of the Rajnagar Palace for the marriage of his only daughter at the age of 9. The 1919 wall painting, photographed much later, happens to be the single oldest extant sample of Mithila painting, to date.

Soon after the introduction and availability of white paper and paint for painting during the late 1960s, the Mithila paintings tended to receive universal acclaim and Maithil women’s paintings fetched enviably higher and yet higher prices.

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A cursory perusal of the literature of art–writing on Mithila paintings reveals a total of three broad strands: a) paintings done by mahapatr brahman women, b) paintings done by kayasth women, and c) paintings done by dusadh women. Sita Devi, a mahapatr brahman, epitomized the brahman women’s style of wall paintings that is now dubbed the bharni ‘filled’ style: her paintings were “generally of large, elegant, often elongated figures in bright colours, using a straw or bamboo stick, either frayed at the end, or with a rag or wad of cotton at the tip, to serve as a reservoir for the paint” (David L. Szanton, 2007). Ganga Devi, who is immortalized by Jyotindra Jain’s 1997 book titled Ganga Devi: Tradition and Expression in Mithila Painting, on the other hand, shot to fame with her “extremely detailed kachani or “line” paintings using fine nib pens and only black and red ink” (David L. Szanton, 2007). In sharp contradistinction as it were to the brahman and kayasth women, the dusadh women drew heavily upon auspicious godana ‘tatoo’ images that their arms and legs were densely filled with; instead of painting the traditional Hindu gods and goddesses, they focused on painting their own deities such as Raja Salhes and his coterie. Dusadh women painters such as Chano Devi, Lalita Devi are eminently famous today, and currently the “tattoo” paintings pass as distinctively and uniquely dusadh painting. Presently, gobar paintings and geru paintings have been appended as two additional newer facets to the dusadh painting. In spite of the marked stylistic variations, the paintings done by brahman, kayasth, and dusadh women continue to remain quintessentially Mithila painting.

My knowledge of Mithila painting is minimal: I have consented to pen these words at a very short notice upon a fervent, nay, persistent request from S. C. Suman. I was also emboldened in this act by virtue of having visited an exhibition of his paintings “Mithila Cosmos: Circumambulating the Tree of Life” held during December 10, 2013 – January 6, 2014. Needless to say, I was awe–struck and very favorably impressed with his paintings.

S. C. Suman is one of the few but famous male painters of Mithila painting. We have come to learn that he was a precocious child painter and that he was initiated into the trade by his grandmother – a constant source of encouragement and inspiration. No wonder, he bagged a number of awards in school and college competitions.

S. C. Suman, himself a kayasth by birth, tends to inherit all the traits of the kachani style, but he does not stop there. Not only did he excel in the “line” painting with an insatiable appetite and a penchant for very minute and miniscule details of line, but he also succeeded in creating an exemplary amalgamation of and a synthesis between the bharni and kachani styles of Mithila painting. On top of it, he has a singular distinction of adding a new dimension to Mithila painting by espousing textile design thereby incorporating amazingly intricate textural details of lines – surpassed perhaps only by the Thanka painting.

S. C. Suman has got a real knack for using natural pigment in his paintings: singarhar flowers for orange, gena flowers for tamarind yellow, poro seeds for purple/deep red dye, gobar ‘cow dung’ for greenish texture, bougainvillea flowers of many hues for crimson red and/or magenta reddish purple color – to name only the famous few. Suman’s discrete use of vegetable dye, no doubt, lends credence, authenticity, and naturalness to the paintings.
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S. C. Suman also distinguishes himself with a flair for incorporating issues of contemporaneous political conflict and social disharmony prevalent in Nepal after the April 25, 2015 earthquake in his recent paintings. This affords an extended range, an elaboration, and an international appeal as it were to the contemporary paintings of S. C. Suman.

I may wish to close my remarks by describing S. C. Suman as a rather seasoned and iconic painter of Mithila paintings.

Ranju Yadav: Tradition and Individual Talent in Mithila Painting

The genre of ‘Mithila Painting’, surreptitiously labeled and famed across the globe as the umbrella term ‘Madhubani Painting’, is notoriously beleaguered with stridently stark sexism: barring an infinitesimally small number of ‘male’ artists, most painters worth their salt persist to be ‘females’ of all hues and from all communities, and a considerable corpus of this ritual art is indeed painted by women.

Mithila Painting is by now susceptible to unique commoditization; it is also shrouded in a subdued controversy in that the young apprentice women painters are systematically subject to financial exploitation. It’s no wonder therefore that most, if not all, visitors to the Janakpur Nari Vikasa Kendra situated in a small village near the town of Janakpur happen to be the firinghees.

The odyssey of the Mithila Painting from a modest rural village to the sophisticated Amazon.com in New York (fetching inordinately exorbitant prices in US dollars) has drastically altered its local character into global, as a subterfuge as it were. The arrival of Western art–scholars into the rural arenas of India and Nepal and the subsequent international travel of the local Indian and Nepalese women artists to countries such as Japan, Germany, France, and the United States of America have also tended to reconfigure the quintessential ritualistic, ceremonial and/or decorative moorings of the Mithila Painting into crude commercialization and, one might add, deterritorialization.

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The standard discourse of the poetics of the Mithila Painting is characterized by “line drawings filled in by bright colors and contrasts or patterns” (Jyotindra Jain 1997) as well as a complex cluster of a plethora of tribal and/or archetypal motifs i.e. fish, parrot, elephant, turtle, snake, sun, moon, bamboo tree, lotus, etc. Ever since William G. Archer – an Honorable East India Company Servant – published his famous 1949 paper titled the “Maithil Painting” in Marg (Bombay), a host of scholars from across the globe have followed suit – all assiduously endeavoring to critique and explicate the “meanings” inherent in the rather innocent–looking but intricately structured art–works of the Mithila Painting. One such study stands out prominently and deserves special mention: Carolyn Henning Brown’s (1996) paper published in the American Anthropological Association journal American Ethnologist has ably succeeded in both contesting and deconstructing the preponderant colonial academic interpretation of the overbearing nuances of tantra and eroticism in the repertoire of the Mithila Painting trope.

Ranju Yadav – coming as she does from a “differently positioned” community – stands apart as a distinctly superior painter owing to her masterly handling of the contemporary societal issues and the unique craft of the Mithila Painting. In sharp contradistinction to women painters of the brahman and kayasth communities, Ranju Yadav discretely selects themes for her paintings from around her familiar locale. Displaying a rather Feminist bias, she harps on such themes as the women’s emancipation (embodied in a caged woman being set free by a woman), the women’s empowerment (enshrined in a woman engaged in a fierce fight with a vicious bull), the age–old custom of dowry (showcasing in a baradhatta ‘cattle market’ depicting rather made–up bridegrooms as oxen on sale) – to list only the famous few. A number of her paintings also elaborate on the themes of State’s acute apathy to the flood–stricken victims, child marriage, girl child–embryo killing, caste–based discrimination, dowry–related bridal burning, and so on. Not all of her paintings are permeated with the overt motive of social reforms though: aesthetically highly pleasing and cheerfully decorative chauk paintings (done on ground in the courtyard with rice flour paste on the festive occasion of bhardutiya, Skt. bhratridvitiya) and the purain pat ‘water–lily leaf–like’ mokh paintings done on both sides of the front door of the main house appear to be RanjuYadav’s special preserve.

In an earlier Catalogue–Essay written in 2016 for a by–now famous ‘male’ painter, S. C. Suman, I had listed a total of three broad strands of the Mithila Painting, to date: (i) paintings done by the mahapatr brahman women, (ii) paintings done by the kayasth women, and (iii) paintings done by the dusadh women. Prima facie, that pervasive picture may appear to continue to hold until today; nonetheless, with the emergence of a young but brilliantly consummate artist, RanjuYadav, – endowed as she is with a remarkable individual talent – a new vibrant dimension might, just might, actually be suitably added to the abovementioned list as the fourth strand consisting of admirable paintings done by the yadav women.

I wish RanjuYadav luck on her first solo exhibition to be held in the Kathmandu Nepal Art Council Gallery during 30 March through 3 April 2019.

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प्राचीनकाल मे जलप्राप्तिक साधन

प्राणरक्षक तत्वमे जलक बड़ महत्त्व अछि | तें जलक पर्यावाची शब्द सभमे जीवन
शब्द सेहो अछि – “पय: कीलालम् अमृतं जीवन भुवनम् वनंम|” 1 एहि लेल नदीतट
पर वास कएल जाइत रहल अछि| जलक प्राप्तिक दुइ स्रोत रहल अछि – (1)
प्राकृतिक ओ (2) कृत्रिम| प्राकृतिक मे वर्षा, नदी, झरना, झील ओ देवखांत
(आदिकालक अथाह गर्त) अबैत अछि जे सृष्टिक आदिकाल सँ एखन धरि उपयोग
मे अछि| जलक प्राप्तिक दृष्टि सँ विश्वमें देश दू तरहक होइत अछि 2 – (1)
देवमातृक – देव (मेघ) माता जकाँ पालन करैत जतए से देश भेल देवमातृक,
केवल मेघक जल सँ सिंचाइवला देश| (2) नदीमातृक – नदी वा पोखरि सँ सिंचित
देश| एतए केवल मेघेक भरोसें लोक नहि रहैछ| जेना मिथिलाक वर्णन मेँ लिखल
अछि –

“नदीमातृक देश सुन्दर सस्य सौ सम्पन्न|
समय सिर पर होय बरखा बहुत संचित अन्न||
दयायुत नर सकल सुन्दर स्वच्छ सब वेवहार|
सकल विद्या उदधि मिथिला विदित भरि संसार||” 3

एहि दुनू प्रकारक देशमे प्राकृतिक के संग – संग कृत्रिम जलाश्य स्थान – स्थान
पर भेटैत अछि| कृत्रिम अर्थात मनुष्य द्वारा निर्मित जलाशयक मुख्य आठ
भेद कहल गेल अछि –

“सद्भिर्जलाशय : कार्यों यत्नाद् याम्योत्तरात्मक:|
कूप – वापी – पुष्पकरिण्यो दीर्घका द्रोण एव च|
तडाग: सरसी चैव सागस्चाष्टम: स्मृत:||” 4

जलक आशय = आधार भेल जलाशय, संयत्नपूर्वक बनावी आ से दक्षिण सँ उत्तर
दिस नाम हो| अर्थात पूबे – पछिमे अधिक विस्तार नहि हो| ते गोलाकार कूप ओ
समचतुष्क (लम्बाई – चौड़ाई बराबर) पुष्करिणी (छोट पोखरि) के छोड़ि सभटा
जलाशय आयताकार होइछ जकर लम्बाई उत्तरें दछिनें अधिक रहैछ| जलाशय अपन
परिसरक वा घरक पूर्वदक्षिण ,पश्चिम दक्षिण ओ पश्चिमउत्तर कोण मे उत्तम नहि
थिक-

“वापीं कूपं टाडगं वा प्रसादं वा निकेतनम |
न कुर्यादवृद्धिकामस्तु अनलानिलनैऋते|” 5

शास्त्रानुसार धनवान् के चाही कि इष्ट आ पूर्त एहि दुई प्रकारक धर्मक पालन
निष्ठा एवं उदारता सँ करथि जाहि सँ अपना संग लोकेक उपकार होइत छैक| इष्ट
धर्म भेल – अग्निहोत्र(हवन ), तपस्या, सत्यव्रत, वेदक अध्ययन ओ तदनुसार,
आचरण, अतिथिसत्कार आ बलिवैश्वदेव (नैवेधक उत्सर्ग)| पूर्त भेल लोकपालन
संबन्धी काज – कूप , वापी , तडाक ,देवमंदिर मार्ग अन्नदान , गाछी, फुलवाड़ी
आदिक निर्माण| एहि सभ काज मे महान धर्म ओ उन्नति होइत छैक| 6 सबसँ छोट
जलाशय कूप गोलाकार होइछ जकर व्यास न्यूनतम अढ़ाइ हाथ ओ अधिकत्तम
छओ हाथ होइछ| ई सामान्यतः 60 हाथ गहीर वा जतेक तर मे स्वच्छ जल भेटि
जाए से होएबाक चाही| ई कच्चा (विन ईंटाक ) वा पक्का लहरा सहित दू प्रकारक
होइछ|विस्तारक भेद सँ सेहो दू प्रकारक होइछ_ छोट कुइयाँ आ इनार| शास्त्र मे
लिखल अछि –

“भूमौ खातोSल्पविस्तरो गम्भीरो मण्डलाकृति:|
बद्धो s बद्ध : स कूप : स्यात् तदम्भ : कौपमुच्यते||” 7

अर्थात थोड़ विस्तारवाला गहींर गोलाकार खाधि कूप थिक् जे ईंटासँ बान्हल अथवा
विन बन्हलो होइछ तकर जल कौप कहबैछ जे पीबाकयोग्य होइछ| डोल – डोरी सँ
घीचि कए पानि ऊपर कएल जाइछ| जल बाहर करबाक लेल तेकठी यंत्र लगाओल
जाइछ अर्थात तीन दिस सँ तीन टा व दुइ टा बाँस ठाढ़ कएल ऊपर मे एकठाम
सबकेँ मिलाए डोरी सँ बान्हि गोल चक्राकार मोट लकड़ी ओहि पर दए एकटा पैघ
मोट बाँस चौड़ा कए ताहि पर राखि, छीप पर डोरी बान्हि नीचाँ डोल लटकाए
छिपवाला बाँसक जड़ी में ईंटा – मॉटिक लदाना बान्हि आसानी सँ पानि भरल जा
सकैछ|

ई जल जाड़ मे गरम आ गरमी मे शीतल होइछ |कतहु -कतहु इनार लग पैघ गढ़ा
खुनि देल जाइछ जाहि मे पशु -पक्षी जल पिबैछ, एकरा संस्कृतिमे निपान वा
आहव 8 आ मैथिली मे आइर कहैत छैक| सुखाएल नदी वा नदीक सुदूर बालू पर
चारि पाँच हाथ तर मे जल भेटाइ ,ततए छोट कच्चा कुआँ खुनल जा सकैछ जकरा
संस्कृतमे कूपक कहल जाइछ|कूपकें मुण्डा (विना घेराक ) सेहो राखल जाइ छल
जाहिमे लोक वा पशुक खसबाक डर रहैत छैक| एहि घेरा के जगत वा लहए कहैत
छैक| इनारक तर मे चारु भरI निमुठ हाथक जौमति (जामुक लकड़ीक आधार )
देल जाइछ जाहि पर सँ देवाल जोड़ल जाइछ| देवालमे प्रत्येक दू हाथ पर मोट
लोहाक कड़ी चढ़बा लेल देल जाइछ| जौमठि कसैला स्वादक रहने पानिकेँ सुद्ध
करैछ, मुदा एहि जलमे रान्हल भात लाल (जामुक रंगक ) आ दालि असिद्ध भए

जाइछ| समय-समय पर एकर सफ़ाइ ओ चून सँ शुद्धिकरण होइछ| कूप सँ पानि
बहारकए घैला मे ढारि घैलकें माँथ वा डॉर पर राखि घर आबि घैलची (घैलक ऊँच
स्थान ) पर झाँपि कए राखल जाइत छल|

वापी– एकरा बाउली कहल जाइछ जे आब मिथिले मे नहि, पश्चिम भर
काशी आदिमे देखल जाइछ | ई आयताकार होइछ, जकर पूब पश्चिम ओ
उत्तर दिस सोझ देवाल रहैछ, केवल दच्छिन दिस उतरबाक सीढ़ी चौड़ा रहैछ
| कूपमे उपर सँ पानि भरए पड़ैछ मुदा वापी मे सीढ़ी सँ नीचा उतरि पानि
लेल जा सकैछ –

“कूप: अद्वारको गर्त:, वापी तु बद्धसोपानका|” 9

अर्थात कूपमे प्रवेश करबाक द्वारि नहि होइछ ,किन्तु वापी मे सीढ़ी
बनाओल रहैछ | चारु दिस सीढ़ीवला चौखुट छोट जलाशय कें कुण्ड कहैत
छैक |

पल्वल – छोटकी पोखरि जकरा चभच्चा वा डाबर कहैत छियैक| डीह
भरबाक लेल आगू वा पाछू वा उत्तर वा दच्छिन डाबर खुनाओल जाइ छल
जाहि मे माँछ सेहो पोसल जाइ छल |

पोखरि – पुष्पकरिणीक पनिझाओ (पानि बसबाक जगह ) 20 हाथ × 20
हाथ चौखुट होइछ, एहिसँ अतिरिक्त चारुभर दस हाथक अउनै आ ताहि सँ
बाहर महार होइ छै| घाट बनबा दियैक त उत्तम नहि त काठक व पाथरक
दारू पर कपड़ा खींचल जाइछ| स्नान , वस्त्र- वासन, पशुक पीबाक तथा
पटौनीक लेल एकर उपयोग होइछ| मनुष्यक पीबाक लेल इनार , बाउली,
नदी आ झरनाक जले उपयुक्त होइछ|

चारि हाथक एक धनुष वा धन्वन्तर होइछ| एक सए धनवन्तरक पुष्करिणी
होइछ| एकर पाँच गुना पैघ तडाग (पैघ पोखरि होइछ)| 10 तदनुसार 20 × 20
हाथ= 400 वर्गहाथ ÷ 4 =100 धनुष पुष्करिणी, 300 धनुष दीर्घिका (बेसी
नाम कम चौड़ा), 400 धनुष द्रोण आ 500 धनुष तडाग = 50×40 हाथ
=2000 वर्ग हाथ ÷ 4 = 500 धनुष| ई नाप केवल पानि रहबाक स्थान
भेल, अडंनै आ भीड़ एहि सँ अतिरिक्त भेलै| 11 एहिसँ पैघ पोखरि के सागर
कहैत छैक, जेना दरभंगामे – गंगासागर ,लक्ष्मीसागर , मधुबनी मे-
गंगासागर, सरिसव मे रतनसायर, अदलपुर मे सुन्दरसायर, बेहटमे
सुनरसाअर, सतनसाअर इत्यादि|

यद्धपि दिर्घिका (दिग्धी ) 300 धनुषक होइछ तथापि मत्स्यपुराणक अनुसार
अतिबृहत जलाशाय जकर लम्बाइ चौड़ाइ सँ दुन्ना-तेगुन्ना हो से दिग्धी भेल,
जेना दरभंगा मे म्यूजियम लगक दिग्धी, संस्कृत विश्वविद्यालय पछुआरक
सुखल दिग्धी आदि| एहि सँ अतिरिक्त राजभवनक चारु भरक परिखा भरक
(गडखइ) घर लगक खत्ता, डबरा, डबरी, कियारी आदि सेहो जलक आश्रय
थिक| खत्तो खुनएबामे पुण्य कहल गेल छैक| धर्मक नाम पर कतेक लोकक
कल्याण होइत छलैक से एहि सँ स्पष्ट होइछ| कहल गेल अछि –

“यो वापीभथवा कूपं देशे तोयविवर्जिते |
खानयेत स दिवं याति बिन्दौ- बिन्दौ शतं समा: ||” 12

जे व्यक्ति निर्जल प्रदेश मे जलाशय खुनाबथि से तकर एक- एक बिन्दु जलक सए
वर्ष धरि स्वर्गमे वास करथि| इयेह फल एकर जीर्णोद्धार मे सेहो कहल गेल
अछि|13

दस टा कूप खुनएबाक फल एक टा वापीमे, दस वापीक फल एक हृद (दह वा
महातडाग) मे, दस हृदक तुल्य एक पुत्र मे ओ दस पुत्रक तुल्य एक गाछ रोपि
बढ़एबा मे होइछ –

“दशकूपसमा वापी , दशवापीसामो हृद:|
हशहृदसम: पुत्रो, दशपुत्रसमस्तरु:|” 14

एहि सबहि कृत्रिम जलाशयक उत्सर्ग (सार्वजनिक उपयोग हेतु विधिपूर्वक त्याग)
आवश्यक कहल गेल अछि | ताहि लेल जलाशयक संस्कार (यज्ञ द्वारा) आवश्यक
अछि –

“सदाजंल पवित्रं स्यादपवित्रमसंस्कृतम्|
कुशाग्रेणापि राजेंद्र! न स्पृष्टव्यमसंस्कृतम्||” 15

पूजन- हवन- पञ्चगव्यादि प्रक्षेप सँ जलाशयक संस्कार विधि-पूर्वक कए सकल
जन्तुक लेल उन्मुक्त छोड़ि देल जाए| एहि सँ जलमे दिव्यतत्त्वक वास भए जाइछ
ओ सब बेरोक- टोक व्यवहार कए सकत| 16 कुपयागविधि एवं महामहोपाध्याय
रघुपति कृत – तडागयागपद्धति वर्षकृत्यद्वितीय भागमे उपलब्ध अछि| 17 पोखरिक
याग मे जाठि गाड़ल जाइछ बीचोबीचमे| ई अठारह सँ 24 हाथ धरिक होइछ जे
महार सँ बेसी ऊँच नहि हो | विन यागक पोखरि कुमारि रहैछ| यागक बाद
बियाहलि मानल जाइछ|

नदी – प्राकृतिक जलाशयमे गर्त, नदी, नद, हृद, सरसी, सरोवर, झील आ समुद्र
अबैत अछि| आठ हजार धनुष सँ कम दूर बहए योग्य धार गर्त कहबैछ, नदी नहि|
एहिसँ वेसी प्रवाहवाली नदी कहबैछ –

“धनुः सहस्रान्यष्टौच च गतिर्यासान विदधते|
न ता नदीशब्दवाच्या, गर्तास्ता: परिकीर्तिता:||” 18

तदनुसार 32 हजार हाथ सँ अधिक लम्बाइ नदीमे रहब आवश्यक| एक हजार
धनुषक एक कोस होइत छैक, तदनुसार आठ कोष सं पैघ नदी होइछ- कमला,
कोशी, बागमती, गण्डकी सब नदी थिक| एहन जलप्रवाहक नाम पुंलिंग यदि हो तो
से नद कहबैत अछि – ब्रह्मपुत्र, सोन, सिंधु, दामोदर| समुद्रमे मिलएवाला ब्रह्मपुत्र
ओ सिंधु महानद ओ गंगा, गोदावरी आदि महानदी कहबैछ| नदीक प्रवाह मे वा
कातमे दलदल भरल महागर्त मोनि (ह्रद) कहबैछ, जकरा मैथिलीमे दह कहैत छैक
– कालीदह, नागदह, हथिदह| प्राकृतिक पोखरि जे अनादिकाल सँ देवमंदिर लग
रहल अछि से देवखात कहबैत अछि जेना कपिलेश्वर पोखरि|

नदीक बाढ़िमे परसल पानि नदीक बनाओल गर्तमे जँ रहि गेल आ नदी सँ ओकर
सम्पर्क छूटि गेल त से गर्त नदी सन पवित्र नहि मानल जैइछ, मुदा स्नान कए
सकैत छी, किन्तु गंगा नदीक एहन गर्त अपवित्र भए जाइछ, तें ओहिमे स्नानो
नहि करी| मृत नदी (मरेनधार ) मे बरसात मे पानि भरि जाइछ आ फगुनहटि मे
सुखा जाइछ, तकरा नदीखेत व डोंरा कहल जाइछ| उत्थर झील जाहिमे धान
उपजैछ आ फगुनहटिमे खेत सुखा जाइछ तकरा चर – चाँचर कहैत छैक|

एहि सब जलस्रोत सँ सिंचाई, मत्स्यपालन, मखान उत्पादन, कमलक फूलक खेती,
भेटँक बीच (चाउर) करहर, सारूक आदि कन्दक उपलब्धि कएल जाइत अछि|
एहिमे क्रैंच (कंचुआ ), बगुला, हंस, सारस, चकवा, सिल्ली, कुररी, शरारि, नकटा,
दीघोंच आदि जलचर पक्षी निवास करैत अछि| खुरचना, डोका, काछु आदि जलजीव
रहैत अछि| सिचाइक साधन – एक खेत सँ दोसर मे थारी सँ उपछल जाइछ| कूप
सँ रहट द्वारा, पोखरि आदि सँ काठक करीन, हुचुक, दोइस (टीन) आदि द्वारा
पटौनी नाली बनाए कएल जाइत छल|

एहि प्रकारेँ गाम – गाम जल संसाधन सँ संपन्न मिथिला वर्तमान समयमे केवल
यंत्राधीनताक दिस तेजी सँ आगू बढ़ि रहल अछि जे नीक लक्षण नहि थिक| अपन
प्राचीन साइंटिफिक जल संसाधनक रक्षा आवश्यक ओ उपयोगी थिक|


सन्दर्भ :
1 अमरकोष –1.10.3

2 वाचस्पत्यम(शब्दकोष)- देवमातृकशब्द
3 चंदा झा, मिथिलाभाषा रामायण, बालकाण्ड, अध्याय 6.
4 वायुपुराण, जलाशय प्रकरण|
5 देवीपुराणम|
6 जतुकणयस्मृति:|
7 आदित्यपुरण|
8 अमरकोष, धारिवर्ग, पण्डित मुकुंद झा कृत मैथिली व्याख्या, सम्पादक- डॉ. शशिनाथ झा|
9 द्वैतनिर्णय, वाचस्पति मिश्र|
10 आदित्यपुराण|
11 वसिष्ठसंहिता|
12 विष्णुधर्मोत्तरपुराण|
13 नन्दिपुराण|
14 उपवनविनोद, (सम्पा.) कृष्णानन्द झा|
15 नन्दिपुराण|
16 मत्स्य पुराण मे जलाशय सम्बन्धी सब बात विस्तार सं वर्णित अछि|
17 वर्षकृत्य, द्वितीय भाग,पण्डित रामचंद्र झा|
18 तिथितत्त्व्म, रघुनन्दन भट्टाचार्य|


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