प्राणरक्षक तत्वमे जलक बड़ महत्त्व अछि | तें जलक पर्यावाची शब्द सभमे जीवन
शब्द सेहो अछि – “पय: कीलालम् अमृतं जीवन भुवनम् वनंम|” 1 एहि लेल नदीतट
पर वास कएल जाइत रहल अछि| जलक प्राप्तिक दुइ स्रोत रहल अछि – (1)
प्राकृतिक ओ (2) कृत्रिम| प्राकृतिक मे वर्षा, नदी, झरना, झील ओ देवखांत
(आदिकालक अथाह गर्त) अबैत अछि जे सृष्टिक आदिकाल सँ एखन धरि उपयोग
मे अछि| जलक प्राप्तिक दृष्टि सँ विश्वमें देश दू तरहक होइत अछि 2 – (1)
देवमातृक – देव (मेघ) माता जकाँ पालन करैत जतए से देश भेल देवमातृक,
केवल मेघक जल सँ सिंचाइवला देश| (2) नदीमातृक – नदी वा पोखरि सँ सिंचित
देश| एतए केवल मेघेक भरोसें लोक नहि रहैछ| जेना मिथिलाक वर्णन मेँ लिखल
अछि –
“नदीमातृक देश सुन्दर सस्य सौ सम्पन्न|
समय सिर पर होय बरखा बहुत संचित अन्न||
दयायुत नर सकल सुन्दर स्वच्छ सब वेवहार|
सकल विद्या उदधि मिथिला विदित भरि संसार||” 3
एहि दुनू प्रकारक देशमे प्राकृतिक के संग – संग कृत्रिम जलाश्य स्थान – स्थान
पर भेटैत अछि| कृत्रिम अर्थात मनुष्य द्वारा निर्मित जलाशयक मुख्य आठ
भेद कहल गेल अछि –
“सद्भिर्जलाशय : कार्यों यत्नाद् याम्योत्तरात्मक:|
कूप – वापी – पुष्पकरिण्यो दीर्घका द्रोण एव च|
तडाग: सरसी चैव सागस्चाष्टम: स्मृत:||” 4
जलक आशय = आधार भेल जलाशय, संयत्नपूर्वक बनावी आ से दक्षिण सँ उत्तर
दिस नाम हो| अर्थात पूबे – पछिमे अधिक विस्तार नहि हो| ते गोलाकार कूप ओ
समचतुष्क (लम्बाई – चौड़ाई बराबर) पुष्करिणी (छोट पोखरि) के छोड़ि सभटा
जलाशय आयताकार होइछ जकर लम्बाई उत्तरें दछिनें अधिक रहैछ| जलाशय अपन
परिसरक वा घरक पूर्वदक्षिण ,पश्चिम दक्षिण ओ पश्चिमउत्तर कोण मे उत्तम नहि
थिक-
“वापीं कूपं टाडगं वा प्रसादं वा निकेतनम |
न कुर्यादवृद्धिकामस्तु अनलानिलनैऋते|” 5
शास्त्रानुसार धनवान् के चाही कि इष्ट आ पूर्त एहि दुई प्रकारक धर्मक पालन
निष्ठा एवं उदारता सँ करथि जाहि सँ अपना संग लोकेक उपकार होइत छैक| इष्ट
धर्म भेल – अग्निहोत्र(हवन ), तपस्या, सत्यव्रत, वेदक अध्ययन ओ तदनुसार,
आचरण, अतिथिसत्कार आ बलिवैश्वदेव (नैवेधक उत्सर्ग)| पूर्त भेल लोकपालन
संबन्धी काज – कूप , वापी , तडाक ,देवमंदिर मार्ग अन्नदान , गाछी, फुलवाड़ी
आदिक निर्माण| एहि सभ काज मे महान धर्म ओ उन्नति होइत छैक| 6 सबसँ छोट
जलाशय कूप गोलाकार होइछ जकर व्यास न्यूनतम अढ़ाइ हाथ ओ अधिकत्तम
छओ हाथ होइछ| ई सामान्यतः 60 हाथ गहीर वा जतेक तर मे स्वच्छ जल भेटि
जाए से होएबाक चाही| ई कच्चा (विन ईंटाक ) वा पक्का लहरा सहित दू प्रकारक
होइछ|विस्तारक भेद सँ सेहो दू प्रकारक होइछ_ छोट कुइयाँ आ इनार| शास्त्र मे
लिखल अछि –
“भूमौ खातोSल्पविस्तरो गम्भीरो मण्डलाकृति:|
बद्धो s बद्ध : स कूप : स्यात् तदम्भ : कौपमुच्यते||” 7
अर्थात थोड़ विस्तारवाला गहींर गोलाकार खाधि कूप थिक् जे ईंटासँ बान्हल अथवा
विन बन्हलो होइछ तकर जल कौप कहबैछ जे पीबाकयोग्य होइछ| डोल – डोरी सँ
घीचि कए पानि ऊपर कएल जाइछ| जल बाहर करबाक लेल तेकठी यंत्र लगाओल
जाइछ अर्थात तीन दिस सँ तीन टा व दुइ टा बाँस ठाढ़ कएल ऊपर मे एकठाम
सबकेँ मिलाए डोरी सँ बान्हि गोल चक्राकार मोट लकड़ी ओहि पर दए एकटा पैघ
मोट बाँस चौड़ा कए ताहि पर राखि, छीप पर डोरी बान्हि नीचाँ डोल लटकाए
छिपवाला बाँसक जड़ी में ईंटा – मॉटिक लदाना बान्हि आसानी सँ पानि भरल जा
सकैछ|
ई जल जाड़ मे गरम आ गरमी मे शीतल होइछ |कतहु -कतहु इनार लग पैघ गढ़ा
खुनि देल जाइछ जाहि मे पशु -पक्षी जल पिबैछ, एकरा संस्कृतिमे निपान वा
आहव 8 आ मैथिली मे आइर कहैत छैक| सुखाएल नदी वा नदीक सुदूर बालू पर
चारि पाँच हाथ तर मे जल भेटाइ ,ततए छोट कच्चा कुआँ खुनल जा सकैछ जकरा
संस्कृतमे कूपक कहल जाइछ|कूपकें मुण्डा (विना घेराक ) सेहो राखल जाइ छल
जाहिमे लोक वा पशुक खसबाक डर रहैत छैक| एहि घेरा के जगत वा लहए कहैत
छैक| इनारक तर मे चारु भरI निमुठ हाथक जौमति (जामुक लकड़ीक आधार )
देल जाइछ जाहि पर सँ देवाल जोड़ल जाइछ| देवालमे प्रत्येक दू हाथ पर मोट
लोहाक कड़ी चढ़बा लेल देल जाइछ| जौमठि कसैला स्वादक रहने पानिकेँ सुद्ध
करैछ, मुदा एहि जलमे रान्हल भात लाल (जामुक रंगक ) आ दालि असिद्ध भए
जाइछ| समय-समय पर एकर सफ़ाइ ओ चून सँ शुद्धिकरण होइछ| कूप सँ पानि
बहारकए घैला मे ढारि घैलकें माँथ वा डॉर पर राखि घर आबि घैलची (घैलक ऊँच
स्थान ) पर झाँपि कए राखल जाइत छल|
वापी– एकरा बाउली कहल जाइछ जे आब मिथिले मे नहि, पश्चिम भर
काशी आदिमे देखल जाइछ | ई आयताकार होइछ, जकर पूब पश्चिम ओ
उत्तर दिस सोझ देवाल रहैछ, केवल दच्छिन दिस उतरबाक सीढ़ी चौड़ा रहैछ
| कूपमे उपर सँ पानि भरए पड़ैछ मुदा वापी मे सीढ़ी सँ नीचा उतरि पानि
लेल जा सकैछ –
“कूप: अद्वारको गर्त:, वापी तु बद्धसोपानका|” 9
अर्थात कूपमे प्रवेश करबाक द्वारि नहि होइछ ,किन्तु वापी मे सीढ़ी
बनाओल रहैछ | चारु दिस सीढ़ीवला चौखुट छोट जलाशय कें कुण्ड कहैत
छैक |
पल्वल – छोटकी पोखरि जकरा चभच्चा वा डाबर कहैत छियैक| डीह
भरबाक लेल आगू वा पाछू वा उत्तर वा दच्छिन डाबर खुनाओल जाइ छल
जाहि मे माँछ सेहो पोसल जाइ छल |
पोखरि – पुष्पकरिणीक पनिझाओ (पानि बसबाक जगह ) 20 हाथ × 20
हाथ चौखुट होइछ, एहिसँ अतिरिक्त चारुभर दस हाथक अउनै आ ताहि सँ
बाहर महार होइ छै| घाट बनबा दियैक त उत्तम नहि त काठक व पाथरक
दारू पर कपड़ा खींचल जाइछ| स्नान , वस्त्र- वासन, पशुक पीबाक तथा
पटौनीक लेल एकर उपयोग होइछ| मनुष्यक पीबाक लेल इनार , बाउली,
नदी आ झरनाक जले उपयुक्त होइछ|
चारि हाथक एक धनुष वा धन्वन्तर होइछ| एक सए धनवन्तरक पुष्करिणी
होइछ| एकर पाँच गुना पैघ तडाग (पैघ पोखरि होइछ)| 10 तदनुसार 20 × 20
हाथ= 400 वर्गहाथ ÷ 4 =100 धनुष पुष्करिणी, 300 धनुष दीर्घिका (बेसी
नाम कम चौड़ा), 400 धनुष द्रोण आ 500 धनुष तडाग = 50×40 हाथ
=2000 वर्ग हाथ ÷ 4 = 500 धनुष| ई नाप केवल पानि रहबाक स्थान
भेल, अडंनै आ भीड़ एहि सँ अतिरिक्त भेलै| 11 एहिसँ पैघ पोखरि के सागर
कहैत छैक, जेना दरभंगामे – गंगासागर ,लक्ष्मीसागर , मधुबनी मे-
गंगासागर, सरिसव मे रतनसायर, अदलपुर मे सुन्दरसायर, बेहटमे
सुनरसाअर, सतनसाअर इत्यादि|
यद्धपि दिर्घिका (दिग्धी ) 300 धनुषक होइछ तथापि मत्स्यपुराणक अनुसार
अतिबृहत जलाशाय जकर लम्बाइ चौड़ाइ सँ दुन्ना-तेगुन्ना हो से दिग्धी भेल,
जेना दरभंगा मे म्यूजियम लगक दिग्धी, संस्कृत विश्वविद्यालय पछुआरक
सुखल दिग्धी आदि| एहि सँ अतिरिक्त राजभवनक चारु भरक परिखा भरक
(गडखइ) घर लगक खत्ता, डबरा, डबरी, कियारी आदि सेहो जलक आश्रय
थिक| खत्तो खुनएबामे पुण्य कहल गेल छैक| धर्मक नाम पर कतेक लोकक
कल्याण होइत छलैक से एहि सँ स्पष्ट होइछ| कहल गेल अछि –
“यो वापीभथवा कूपं देशे तोयविवर्जिते |
खानयेत स दिवं याति बिन्दौ- बिन्दौ शतं समा: ||” 12
जे व्यक्ति निर्जल प्रदेश मे जलाशय खुनाबथि से तकर एक- एक बिन्दु जलक सए
वर्ष धरि स्वर्गमे वास करथि| इयेह फल एकर जीर्णोद्धार मे सेहो कहल गेल
अछि|13
दस टा कूप खुनएबाक फल एक टा वापीमे, दस वापीक फल एक हृद (दह वा
महातडाग) मे, दस हृदक तुल्य एक पुत्र मे ओ दस पुत्रक तुल्य एक गाछ रोपि
बढ़एबा मे होइछ –
“दशकूपसमा वापी , दशवापीसामो हृद:|
हशहृदसम: पुत्रो, दशपुत्रसमस्तरु:|” 14
एहि सबहि कृत्रिम जलाशयक उत्सर्ग (सार्वजनिक उपयोग हेतु विधिपूर्वक त्याग)
आवश्यक कहल गेल अछि | ताहि लेल जलाशयक संस्कार (यज्ञ द्वारा) आवश्यक
अछि –
“सदाजंल पवित्रं स्यादपवित्रमसंस्कृतम्|
कुशाग्रेणापि राजेंद्र! न स्पृष्टव्यमसंस्कृतम्||” 15
पूजन- हवन- पञ्चगव्यादि प्रक्षेप सँ जलाशयक संस्कार विधि-पूर्वक कए सकल
जन्तुक लेल उन्मुक्त छोड़ि देल जाए| एहि सँ जलमे दिव्यतत्त्वक वास भए जाइछ
ओ सब बेरोक- टोक व्यवहार कए सकत| 16 कुपयागविधि एवं महामहोपाध्याय
रघुपति कृत – तडागयागपद्धति वर्षकृत्यद्वितीय भागमे उपलब्ध अछि| 17 पोखरिक
याग मे जाठि गाड़ल जाइछ बीचोबीचमे| ई अठारह सँ 24 हाथ धरिक होइछ जे
महार सँ बेसी ऊँच नहि हो | विन यागक पोखरि कुमारि रहैछ| यागक बाद
बियाहलि मानल जाइछ|
नदी – प्राकृतिक जलाशयमे गर्त, नदी, नद, हृद, सरसी, सरोवर, झील आ समुद्र
अबैत अछि| आठ हजार धनुष सँ कम दूर बहए योग्य धार गर्त कहबैछ, नदी नहि|
एहिसँ वेसी प्रवाहवाली नदी कहबैछ –
“धनुः सहस्रान्यष्टौच च गतिर्यासान विदधते|
न ता नदीशब्दवाच्या, गर्तास्ता: परिकीर्तिता:||” 18
तदनुसार 32 हजार हाथ सँ अधिक लम्बाइ नदीमे रहब आवश्यक| एक हजार
धनुषक एक कोस होइत छैक, तदनुसार आठ कोष सं पैघ नदी होइछ- कमला,
कोशी, बागमती, गण्डकी सब नदी थिक| एहन जलप्रवाहक नाम पुंलिंग यदि हो तो
से नद कहबैत अछि – ब्रह्मपुत्र, सोन, सिंधु, दामोदर| समुद्रमे मिलएवाला ब्रह्मपुत्र
ओ सिंधु महानद ओ गंगा, गोदावरी आदि महानदी कहबैछ| नदीक प्रवाह मे वा
कातमे दलदल भरल महागर्त मोनि (ह्रद) कहबैछ, जकरा मैथिलीमे दह कहैत छैक
– कालीदह, नागदह, हथिदह| प्राकृतिक पोखरि जे अनादिकाल सँ देवमंदिर लग
रहल अछि से देवखात कहबैत अछि जेना कपिलेश्वर पोखरि|
नदीक बाढ़िमे परसल पानि नदीक बनाओल गर्तमे जँ रहि गेल आ नदी सँ ओकर
सम्पर्क छूटि गेल त से गर्त नदी सन पवित्र नहि मानल जैइछ, मुदा स्नान कए
सकैत छी, किन्तु गंगा नदीक एहन गर्त अपवित्र भए जाइछ, तें ओहिमे स्नानो
नहि करी| मृत नदी (मरेनधार ) मे बरसात मे पानि भरि जाइछ आ फगुनहटि मे
सुखा जाइछ, तकरा नदीखेत व डोंरा कहल जाइछ| उत्थर झील जाहिमे धान
उपजैछ आ फगुनहटिमे खेत सुखा जाइछ तकरा चर – चाँचर कहैत छैक|
एहि सब जलस्रोत सँ सिंचाई, मत्स्यपालन, मखान उत्पादन, कमलक फूलक खेती,
भेटँक बीच (चाउर) करहर, सारूक आदि कन्दक उपलब्धि कएल जाइत अछि|
एहिमे क्रैंच (कंचुआ ), बगुला, हंस, सारस, चकवा, सिल्ली, कुररी, शरारि, नकटा,
दीघोंच आदि जलचर पक्षी निवास करैत अछि| खुरचना, डोका, काछु आदि जलजीव
रहैत अछि| सिचाइक साधन – एक खेत सँ दोसर मे थारी सँ उपछल जाइछ| कूप
सँ रहट द्वारा, पोखरि आदि सँ काठक करीन, हुचुक, दोइस (टीन) आदि द्वारा
पटौनी नाली बनाए कएल जाइत छल|
एहि प्रकारेँ गाम – गाम जल संसाधन सँ संपन्न मिथिला वर्तमान समयमे केवल
यंत्राधीनताक दिस तेजी सँ आगू बढ़ि रहल अछि जे नीक लक्षण नहि थिक| अपन
प्राचीन साइंटिफिक जल संसाधनक रक्षा आवश्यक ओ उपयोगी थिक|
सन्दर्भ :
1 अमरकोष –1.10.3
2 वाचस्पत्यम(शब्दकोष)- देवमातृकशब्द
3 चंदा झा, मिथिलाभाषा रामायण, बालकाण्ड, अध्याय 6.
4 वायुपुराण, जलाशय प्रकरण|
5 देवीपुराणम|
6 जतुकणयस्मृति:|
7 आदित्यपुरण|
8 अमरकोष, धारिवर्ग, पण्डित मुकुंद झा कृत मैथिली व्याख्या, सम्पादक- डॉ. शशिनाथ झा|
9 द्वैतनिर्णय, वाचस्पति मिश्र|
10 आदित्यपुराण|
11 वसिष्ठसंहिता|
12 विष्णुधर्मोत्तरपुराण|
13 नन्दिपुराण|
14 उपवनविनोद, (सम्पा.) कृष्णानन्द झा|
15 नन्दिपुराण|
16 मत्स्य पुराण मे जलाशय सम्बन्धी सब बात विस्तार सं वर्णित अछि|
17 वर्षकृत्य, द्वितीय भाग,पण्डित रामचंद्र झा|
18 तिथितत्त्व्म, रघुनन्दन भट्टाचार्य|