पिछले दिनों महिषी की एक विलक्षण विभूति का अवसान हो गया। उनका नाम ताराचरण मिश्र था लेकिन सदा से सब उन्हें बंगट गवैया कहते थे। गरीब ब्राह्मण थे, और उदार भी। अंत-अंत तक उनकी गरीबी और उदारता दोनों बनी रहीं।
तारास्थान परिसर के निवासी और संगीत-मंडलियों के समाजी होने के कारण बचपन से ही मुझे उनकी संगत मिली। बचपन से ही हम यह अचरज करना सीख गये थे कि उनके गले में सरस्वती का वास है। उनके पास जो गीतों का चयन था वह भी बहुत आश्चर्यजनक था। वह निराला, पंत, दिनकर, गोपाल सिंह नेपाली के दुर्लभ गीत गाते। दिनकर का यह गीत ‘माया के मोहक वन की क्या कहूं कहानी परदेसी’ या फिर नेपाली का यह गीत ‘बदनाम रहे बटमार मगर घर को रखवालों ने लूटा’ तो उनसे सुना कई लोगों के स्मरण में होगा। एक यह गजल भी वह बहुत ही जानदार गाते थे– ‘न आना बुरा है न जाना बुरा है\ फकत रोज दिल का लगाना बुरा है।’ यह सब लेकिन, अधिकतर गुणिजनों की महफिल में होता जहां कई बार मुझे भी शरीक होने का अवसर मिला था। चन्दा झा की रामायण का गायन भी पहली बार मैंने उनसे ही सुना था। विद्यापति को तो इतनी तरह से गाते कि वह अलग ही चकित करता था। ठीक यही बात कबीर के पदों की गायकी के साथ थी। उनका जन्म 1940 के आसपास का रहा होगा। एक बार उनसे मैंने जानना भी चाहा था कि इस धुर देहात में ये सब गुण उन्होंने कहां सीखे? बताते थे कि बचपन में ही नाटक-मंडलियों के साथ लग गये थे और बाद में पंचगछिया घराने के कुछ संस्कारी गुरुओं की संगत में रहे थे।
विद्यापति के गीत ‘पिया मोर बालक’ को वह कुछ इस तरह गाते कि स्त्री की पीड़ा के नजरिये से देखें तो रुलाई आने लगती थी। द्रुत और विलंबित का एक ऐसा समीकरण बनाते कि मेरे पास उस अनुभव को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं। शायद संगीतशास्त्र के जानकार ही उसे व्यक्त कर पाएं। मैंने यह गीत कई गवैयों, यहां तक कि पं. रामचतुर मल्लिक से भी, सुना था। उनके और इनके गायन में मुझे गोचर होने योग्य अंतर दीखते। एक बार मैंने जिज्ञासा की कि काका, ये क्या है? बताया तो उन्होंने काफी देर तक, लेकिन मेरी स्मृति में बस यही है कि यह अंतर घराने (अमता और पंचगछिया) की गायकी-शैली के कारण है। विद्यापति संगीत के आधुनिक रूप को वह पंचगछिया घराने का अवदान मानते थे।
एक बार पं. मांगनलाल खवास के बारे में बात चली तो पता चला कि मांगन जी के लड़के लड्डूलाल जी की संगत में रहे थे और उन्हें गुरुस्थानीय मानते थे। मांगनलाल का काफी यश सुना था और उनकी ढेर सारी कहानियां उनके पास थीं। बताने लगे– गायक तो परमात्मा का दुलारा और अपना बादशाह आप होता है न! उसे क्या परवाह कि बड़े लोग उसे किस नजर से देखते हैं। वह दरअसल उस प्रसंग की ओर इशारा कर रहे थे कि लहेरियासराय की एक संगीतसभा में मांगनलाल जी ने आग्रह-दुराग्रह में पड़कर अपनी प्रस्तुति दे दी और यह बात उनके आश्रयदाता को इतनी बुरी लगी कि केवल इसी अपराध पर राजकुमार विश्वेश्वर सिंह ने उन्हें अपने दरबार से निकाल दिया था।
गरीबी ने बंगट जी को समझौते के लिए बाध्य किया। बाद में वह राधेश्याम कथावाचक की रामायण गाने लगे जिसे हमारे इलाके में विषय-कीर्तन कहा जाता था। लेकिन इससे भी महिषी में उनका गुजारा संभव नहीं हुआ। उनका लगभग समूचा उत्तर-जीवन सिंहेश्वरस्थान, मधेपुरा में बीता जहां के लोगों में उदारता भी अधिक थी और वहां तीर्थयात्री भी अधिक आते थे। वह स्पष्ट बताते थे कि जितनी गुणग्राहकता और श्रद्धा उन्हें यादव और बनियों से मिली, उतनी ब्राह्मणों से नहीं। वह नाभिनाल बद्ध शाक्त थे। कहते– शक्ति का उपासक वर्ण और लिंग का भेद नहीं जानता। उसके लिए क्या शौच, क्या अशौच, सब केवल महामाया की विविध छवियां हैं। तंत्रसाधक होने का गौरव भी उन्हें पूरा था, लेकिन मैथिलों की परंपराप्रियता पर कभी खीजते तो अपने को ‘कुजात ब्राह्मण’ बताते थे और उदाहरण के लिए राजकमल चौधरी का नाम ले आते थे, जिन्हें वह अपना आदर्श पुरुष बताते थे।।
नवरात्र और होली के मौके पर वह गांव जरूर आते। यह मातृभूमि का प्रेम तो था ही, उनका परिवार भी हमेशा गांव में ही रहा। कभी आर्थिक जरूरत होती तो बेटा जाकर पैसे ले आता था। मूडी आदमी थे। कोई गाने का आग्रह कर दे और वह तुरंत गाने को तैयार हो जाएं, ऐसा कम ही होता था। हारमोनियम जब सम्हालते, तब भी अपनी रौ तक पहुंचने में उन्हें वक्त लगता था। लेकिन उनकी अपनी भी कुछ चाहतें थीं। हमारे गांव में होली के एक सप्ताह पहले से ही संगीत-गोष्ठियों का दौर शुरू हो जाता था। यह ज्यादातर किसी व्यक्तिविशेष के दालान पर होता था। वह गांव में होते तो इन गोष्ठियों में जरूर पहुंचा करते थे। कभी तो ऐसा होता था कि उन्हें आया देख गृहपति सकुचा जाता–अरे, गवैया जी। हमें तो पता ही नहीं था कि आप गांव में हैं। लेकिन वह तो अपनी चाहत के रौ में होते थे।
महिषी की आज की जो युवापीढ़ी है, उसने कभी न कभी साधनालय में बंगट गवैया का विषय-कीर्तन जरूर सुना होगा। किसी में गुण हो तो वह उसके किये सभी कार्यों में प्रतिध्वनित होता है। वह आत्यन्तिक रूप से दीक्षित शाक्त थे, और वैष्णव किसी भी तरह नहीं। तांत्रिकों की गुरु-परंपरा के पूरे पालनकर्ता थे। रामकथा के साथ उनका कोई पुराना वास्ता भी नहीं था। लेकिन, एक बार जब इसे अपना लिया तो इतनी महीनी और हार्दिकता उसमें भर दी कि एक दिन कोई उन्हें सुन ले तो वर्षों तक उस अनुभव को भूलना कठिन रहता था। गायकी की उनकी गुणवत्ता अंत अंत तक बनी रही। छूटी तो गायकी ही छूट गयी, गुणवत्ता नहीं। कभी कभी हम जो चैती महोत्सव करते, या फिर युवा गायकों की गायन-प्रतियोगिता जिसमें उन्हें निर्णायक के रूप में बुलाते थे, वह खुशी खुशी शामिल होते थे। कभी-कभी अगर दबंग घरों के लड़के बेईमानी के लिए दबाव बना दिया करते, वह अड़ जाते थे। उनका अड़ना हमें बहुत ताकत देता था।
राजकमल चौधरी जब अपने आखिरी दिनों में गांव में रहने आए, उनकी अत्यन्त विश्वस्त युवा-वाहिनी में बंगट गवैया भी एक थे। इन सबके बारे में अनेक लोगों ने जहां तहां लिखा है। हमारे मित्र देवशंकर नवीन तो उस किस्से को बहुत ही रोचक ढंग से सुनाते हैं कि कैसे जब एक बार बाहर के बहुत सारे लेखक राजकमल के मेहमान हुए तो उन्होंने शाम का कार्यक्रम बंगट गवैया का गायन तय किया था। लेकिन, ऐन मौके पर बंगट फरार। लाख खोजे जाने पर भी वह कहीं नहीं मिले तो लाचारी में प्रोग्राम कैंसिल करना पड़ा। दूसरे दिन की सुबह बेंत लेकर राजकमल बंगट को खोजने निकले तो सबको यकीन था कि बंगट का हाल बेहाल होना आज तय है। लेकिन, खोजते खोजते जब वह तारास्थान परिसर में पाए गये, राजकमल ने उन्हें पकड़ लिया और बाबूजी बड़ई की दुकान पर आ धमके। कहा–आज इसे नाक तक दही-चूड़ा-पेड़ा खिलाइये। यही इस अभागे का दंड है। कभी बात उठे तो वह खुद भी राजकमल के एक से एक दुर्लभ प्रसंग बड़ी तल्लीनता से सुनाते थे। एक दिन मैंने पूछा था कि उस रोज आप कहां चले गये थे कि फूलबाबू को इतनी तरद्दुद उठानी पड़ी। कहने लगे– असल में शाम के प्रोग्राम की बात ही हम भूल गये थे। कोशी इलाके में एक खास पहुंचने का आग्रह बहुत दिन से हो रहा था, शाम को वहीं चले गये थे। उन्हें कहां मिलते?
पिछले कई वर्षों से मैं उनकी गायकी पर एक डाक्यूमेन्ट्री के लिए उन्हें तैयार कर रहा था। लेकिन, काफी दिनों से उनका स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था। दुख है कि मेरी यह साध पूरी नहीं हुई।
इस चित्र में उनकी गायकी की एक मुद्रा दिखेगी। गीत का अगला पद अब वह गानेवाले हैं। आंखें बंद कर ली हैं। भीतर कुछ जनम रहा हो जैसे, वह आभा चेहरे पर है। उन्हें सुन चुके लोग जानते हैं कि यह उनकी पसंदीदा मुद्रा थी। यह चित्र 2015 के चैती महोत्सव का है जो महिषी के पाठक बंगले पर आयोजित हुआ था।