पंजी प्रबंध : एक अध्ययन

November 15, 2022 इतिहास विनयानन्द झा
पंजी प्रबंध : एक अध्ययन

मिथिला में पंजीकरण पर तो कई विद्वानों ने प्रकाश दिए हैं और यहाँ के शैक्षणिक इतिहास आलेखन में पंजी प्रबंधों से प्रभूत सहायता भी ली है।लेकिन पंजीकरण और उसके बाद हुए ब्राह्मणों के वर्गीकरण से यहाँ की सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर पड़े प्रभाव पर सर्वांगीण विवेचन करता हुआ कोई कार्य नहीं हुआ है।ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों की पंजी पर कुछेक आलेखों एवं पुस्तकों में प्रकाश दिए गए हैं उनमें अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति और आलोचनातमक विश्लेषण का अभाव दृष्टिगोचर होता है।

सामान्यतः यह धारणा है कि पंजी के कारण पिछले लगभग एक हजार वर्षों के मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों के पूर्वजों की नामावली पंजी पुस्तकों में संगृहीत और सुरक्षित हैं।किन्तु पंजी आलेखन की मुख्य धारा से संपर्क कट जाने के कारण वास्तव में बहुत सारे बल्कि अधिकांश वंशों के कोई उपयोगी विवरण उपलब्ध नहीं हैं।जहाँ तक ब्राह्मणों का प्रश्न है जो लोग पंजी आलेखन की मुख्य धारा से जुड़े भी रहे उनमें भी बहुत सी त्रुटियाँ पाई जाती हैं।श्रोत्रिय एवं योग्य भलमानुसों को छोड़ शेष ब्राह्मण समुदाय का संग्रह उत्तर बिहार में भी अद्यतन नहीं है।अनेकमूलों का प्रारंभिक विवरण लुप्तप्राय है और जिन मूलों का विवरण उपलब्ध भी है उनमें भी अधिकांश की विभिन्न शाखाओं के विवरण अप्राप्य हैं।यद्यपि उन मूलों और उन शाखाओं के मैथिल ब्राह्मण पाए जाते हैं।

श्रोत्रिय एवं योग्य/भलमानुसों में बहुत सारे परिवार पश्चिमी चंपारण, पूर्णिया के कतिपय क्षेत्र, समस्तीपुर, सहरसा, कटिहार, दुर्गागंज, पलामू और भागलपुर में पाए जाते हैं।लेकिन इन वर्गों के बहुसंख्य वंश मधुबनी और दरभंगा जिलों में वास करते हैं जो सीमित पंजीकार परिवारों पर वैवाहिक कार्यों के लिए आश्रित रहे।जो लोग मधुबनीदरभंगा जिलों से इतर उपर्युक्त क्षेत्रों के निवासी रहे हैं वे भी वैवाहिक संबंध मधुबनीदरभंगा जिलों में ही करते आ रहे हैं।अतः उनकी वंशावलियाँ सीमित पंजीकार परिवारों में सुरक्षित हैं और अद्यतन होती रहती हैं।इस क्षेत्र के शेष पंजीकार लोग भी आपस में संपर्क कर अथवा इन वंशों के सदस्यों से संपर्क कर उसे अद्यतन करते रहे हैं।लेकिन शेष ब्राह्मण समुदाय की वंशावलियाँ पूर्णतः सुरक्षित नहीं हैं।

ये बातें मुख्यतः उत्तर बिहार और भागलपुर के मैथिल ब्राह्मणों को ध्यान में रख कर कही गई है।लेकिन बंगाल विशेषतः मालदह जिला और नेपाल के मैथिल ब्राह्मणों में पंजी किस अवस्था में है उसकी जानकारी लेखक को नहीं है।यद्यपि इन क्षेत्रों के मैथिल ब्राह्मणों के वैवाहिक संबंध उत्तरी और पूर्वी बिहार के मैथिल ब्राह्मणों से होते रहे हैं।

पंजी प्रबंधोत्तर काल में बहुत संख्या में मैथिल ब्राह्मणों का परिव्रजन उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश (विशेषतः पश्चिमी क्षेत्र)और छत्तीसगढ़ (विशेषतः रायपुर क्षेत्र) में होता रहा।उनमें पंजी प्रथा का लोप पाया जाता है।यद्यपि वे लोग मैथिल ब्राह्मण कह कर अपनी पहचान बनाए हुए हैं।लेकिन उनके अधिकांश वैवाहिक संबंध मैथिलेतर ब्राह्मणों से होते रहे हैं।ऐसे में जो पुरुष मैथिलेतर से विवाह करते हैं वे तो मैथिल ब्राह्मण संबोधित होते हैं लेकिन जो कन्याएँ अन्य समुदाय में ब्याही जाती हैं वे मैथिल ब्राह्मण समुदाय से पृथक हो जाती हैं।यद्यपि सैकड़ों वर्ष के प्रवास के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मैथिल ब्राह्मणों ने पंजी को पुनर्जीवित किया है किन्तु उसका मिथिलांचल की पंजी प्रथा से कोई संपर्क नहीं है और उसका आलेखन भी मिथिला की पंजी से साम्य नहीं रखता है।वह मात्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रवासी मैथिल ब्राह्मणों जो व्रजस्थ या व्रजवासीमैथिल ब्राह्मण संबोधित होते हैं उनके मिथिला से आव्रजन की स्मृति को सुरक्षित रखता है।लेखक के मत से राजस्थान और पश्चिमी मध्यप्रदेश के जो प्राचीन प्रवासी मैथिल ब्राह्मण परिवार हैं वे व्रजवासी प्रवासी मैथिल ब्राह्मणों के ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश से परिव्रजन के कारण हों।

मैथिल ब्राह्मणों में बहुत से लोग कालांतर में भूमिहार ब्राह्मणों में परिवर्तित हो गए।यद्यपि ऐसे लोगों में मैथिल ब्राह्मणों सदृश “मूल” और गोत्र पाए जाते हैं और वे मिथिला के विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाते हैं।भूमिहार ब्राह्मणों की बहुत बड़ी संख्या मुंगेर और बेगूसराय जिलों में पाई जाती हैं।इन जिलों या इसके आस पास के जिलों के भूमिहारों में मैथिल ब्राह्मणों से परिवर्तित भूमिहारों के अतिरिक्त बिहार के शेष क्षेत्रों या उत्तर प्रदेश के विभिन्न उत्पत्ति के ब्राह्मणों के वंशज भी पाए जाते हैं।यद्यपिमैथिल ब्राह्मण से भूमिहार बने लोगों के मूल और गोत्र उन्हें पृथकता प्रदान करती है तथापि सभी उत्पत्ति के भूमिहारों का एक अलग अस्तित्व और पहचान है।इन क्षेत्रों से सटे हुए जो मैथिल ब्राह्मण हैं (विशेषतः समस्तीपुर और वैशाली जिला) उनका इन भूमिहारों से वैवाहिक संबंध होता है।ऐसेमैथिल ब्राह्मण “दोगमिया” कहलाते हैं।

सामान्यतः कहा जाता है कि उन्नीस गोत्रों के मैथिल ब्राह्मण पंजीकरण काल में पाए जाते थे।लेकिन इन उन्नीस गोत्रों के अतिरिक्त भी मैथिल ब्राह्मणों के अस्तित्व पंजी काल में होने की जानकारी सीमित मात्रा में पाई जाती है।

सामान्यतः जिन उन्नीस गोत्रों के मैथिल ब्राह्मणों का वर्णन पंजी ग्रंथों में उपलब्ध है उनमें से सात गोत्रों को व्यवस्थित कहा गया है।यथाशाण्डिल्य, वत्स, सावर्ण, काश्यप, पराशर, कात्यायन और भारद्वाज।वर्तमान में अधिकांश मैथिल ब्राह्मण इन्हीं सात गोत्रों के बहुतायत में पाए जाते हैं।शेष गोत्रों में बहुत स्वल्प मात्रा में पाए जाते हैं।उनमें भी कौशिक गोत्र में मात्र एक मूल पंजीकृत है निकुतवारनिकुती जिस वंश के लोग दरभंगा के भालपट्टी गाँव में बड़ी संख्या में हैं।शेष गोत्रों के मैथिल ब्राह्मण को लेखक “दुर्लभ गोत्रों” में परिगणित करता है।ऐसे दुर्लभ गोत्र निम्नलिखित हैं — गौतम, कौण्डिल्य, गर्ग, कपिल, विष्णुवृद्धि,मुद्गल, तण्डिल, अलम्बुकाक्ष, वशिष्ठ, उपमन्यु और कृष्णात्रेय।वैसे इन दुर्लभ गोत्रों के कई मैथिल ब्राह्मणों से लेखक का संपर्क हुआ है जिनमें कुछ भूमिहार में भी परिवर्तित हो गए हैं।

कर्ण कायस्थों की पंजी में बहुत सी बातें अस्पष्ट हैं।विभिन्न पंजीकारों के पास मूलों की सूची एक समान नहीं है।विभिन्नमूलों की शाखाओं का पता लगाना और कठिन है।सामान्यतः आज उपशाखाएँ या उपशाखाओं की उपशाखाएँ प्रचलित हैं जो “डेरा” एवं “वास” के नाम से प्रसिद्ध हैं।कुछमूलों के नाम भी भ्राँति उत्पन्न करते हैं।

एक ही स्थान के नाम के कभी कभी दो मूल पाए जाते हैं जिसमें एक को तो सामान्य रूप से लिखा जाता है दूसरे में “वासी” लिखा जाता है, यथा तियाल और तियालवासी, पिपरौनी और पिपरौनीवासी।इस प्रकार के मूलों में क्या भिन्नता है ज्ञात नहीं।इसी प्रकार कुछ मूलों में संख्यावाचक शब्द जुड़े हुए हैं, यथा कोठीपाल, द्विकोठीपाल, त्रिकोठीपाल, चतुष्कोठीपाल, पंचकोठीपाल,षट्कोठीपाल और सप्तकोठीपाल।यहाँ ये संख्या क्यों हैं कहा नहीं जा सकता है।क्याकोठीपाल नामक एक से अधिक स्थान थे?या कोठीपाल नामक एक स्थान पर एक से अधिक सात विभिन्न कायस्थ परिवारों के बीजीपुरुष थे? अतः उन्हें संख्यावाचक भिन्नता प्रदान की गई जिस प्रकार ब्राह्मणों में एक स्थान पर एक से अधिक बीजीपुरुषों वाले गाँव के नाम पर बने मूलों को गोत्र के आधार पर भिन्नता प्रदान की गई।इसी प्रकार कुछ मूलों के नाम के साथ “अर्ध लगा हुआ है, यथा अर्धधाय, अर्धनिधाय और अर्धघासीपाल।इन सब बातों की व्याख्या हेतु कोई दन्तकथा भी प्रचलित नहीं है।

पंजीकरण से संबंधित एक जटिल प्रश्न है कि क्या जो उस काल (1309-24 ई) में मिथिला से बाहर थे उनका पंजीकरण हुआ होगा? कुछ शाखाएँ दूरस्थ क्षेत्र से भी नामांकित हैं ।परन्तु वह पंजी पूर्व के प्रवास को दर्शाता है और वे हरिसिंहदेव काल में मिथिला में थे ऐसा कहा जा सकता है।एक मूल है “ओरिया” (गौतम गोत्र) एवं अन्य है “औड़िये” (गर्ग गोत्र)।इनका संबंध ओड़िशा से जोड़ा जा सकता है।इन दोनों की किसी भी शाखा का उल्लेख नहीं पाया जाता है।इनमूलों की उत्पत्ति यदि ओड़िशा से है तो यह हरिसिंहदेव के समय से सात पीढ़ी ऊपर के प्ररवास का द्योतक है।अतः इनके वंशज चौदहवीं शताब्दी में मिथिला में थे तभी इनका पंजीकरण हुआ होगा। यहाँ लेखक का तात्पर्य वैसे लोगों से है जो पंजीकरण के ठीक पहले बाहर चले गए हों और हरिसिंहदेव के पराजय के बाद आए हों।क्या वे पुनः मैथिल ब्राह्मण समुदाय में सम्मिलित हो पाए होंगे?

पंजीकरण के समय जिन क्षेत्रों में हरिसिंहदेव का शासन नहीं था उन क्षेत्रों के मैथिल ब्राह्मण और कर्ण कायस्थों का पंजीकरण हुआ होगा?

मिथिला का एक प्राचीन गाँव है “महिषी” (सहरसा जिला)।सकरी के बाद सबसे अधिक हरिसिंहदेवकालीन शाखाएँ इस गाँव के नाम पर पंजीकृत हैं।यह गाँव प्रसिद्ध मीमांसक मंडन मिश्र के गाँव माहिष्मती के रूप में मान्य है।परन्तु इस गाँव के नाम पर एक भी मूल नहीं है।इस गाँव में एक उग्रतारा की प्रतिमा भी है जो दसवीं शताब्दी से पूर्व की है।क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जाए कि दसवीं से बारहवीं शताब्दी तक यह गाँव ब्राह्मणों और कायस्थों से रहित था?

विनयानन्द झा
मंगरौनी, मधुबनी

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