मिथिला में धर्मराज और उनके सहायक देवान

November 16, 2022 धर्म अम्बिकेश मिश्र
मिथिला में धर्मराज और उनके सहायक देवान

प्राचीन काल में ही संस्कृति की दो धारा विकसित हुई, लोक और शिष्ट | मैथिली दोनों के मध्य की संस्कृति है यानी लोक-वेद की| जमीन से जुड़े लोगों की संस्कृति| यहाँ की संस्कृति भारत की समृद्धतम सांस्कृतिक इकाइयों में से एक है| मिथिला ने जो अपने ज्ञान और वैभव का परचम लहराया, सब इसी लोक की देन है| चाहे न्याय हो या मीमांसा सभी के प्रतिपादक इसी लोकसंस्कृति में उपजे|

यहाँ की लोक-संस्कृति में लोक आस्थाओं तथा विश्वासों का विशिष्ट स्थान है| जादू –टोना ,मृतकों की पूजा, लोकदेवता,ग्रामदेवता आदिम संस्कृति की विरासत है| लोकआस्थाओ में पूज्य देवताओं को पूजने का अपना विधान और पूजा स्थान/गह्वर है|
यहाँ पौराणिक और वैदिक देवताओं के अलावा ग्रामदेवता,या लोकदेवता(पूजित लोकनायक) का अपना क्षेत्रीय इतिहास है, जिसका सम्बन्ध उस पुरे क्षेत्र विशेष से होता है जहाँ लोकदेवता पूजे जाते हैं |

मिथिला में कुलदेवता/लोकदेवता/ग्रामदेवता का पूजन विधान शास्त्रसम्मत तथा लोकमत दोनों की परिधि में आता है| लोकसम्मत धारणाओ में जहाँ तक प्रकृति पूजा या सामाजिक नायकों के पूजने का विधान है वो काल खंडो में किसी आस्था या डर के कारण प्रारंभ हुआ और आज भी प्रचलन में है| जिसका कोई वैज्ञानिक कारण नहीं दिखता है|

मिथिला में देवता:-

मिथिला में लोक आस्था में अनेक वैदिक-अवैदिक देवता स्थापित हैं| जो अलग–अलग गुण, बोध, शक्ति और स्वभाव वाले हैं| कोई सौम्य तो कोई रौद्र! यहाँ तक कि एक ही देवता को कोई समाज रौद्र स्वभाव वाला स्वरुप स्थापित कर पूजते हैं तो दूसरा उसी देवता को सौम्य स्वाभाव वाला मान कर| देवताओं के गुण,शक्ति और स्वभाव के हिसाब से ही उनका पूजा विधान है | किसी को बलि प्रिय है तो किसी को मिष्ठान | कोई बकरा/खस्सी का बलि स्वीकारते हैं, कोई मुर्गा/कबूतर का तो कोई सूअर का|
देवताओं का विभाजन अगर किया जाय तो उन्हें कुलदेवता, ग्रामदेवता, जातिदेवता,व्यवसाय देवता, नदी देवता के रूप में रखा जा सकता है| मृतात्माओं के रूप में लोकनायकों के पूजे जाने का भी विधान है जो जातिदेवता,ग्राम देवता और कुलदेवता के रूप में समुच्चे मिथिला में पूजे जाते हैं | मिथिला में पूजित कुलदेवता के उद्भव, किसी विशेष कुल के द्वारा किसी विशेष कुलदेवताओं के पूजे जाने के कारण को समझना दुरूह कार्य है | यहाँ पूजित कुछ देवता वैदिक हैं तो कुछ का उल्लेख ना तो पुराण में मिलता है ना लोक साहित्य में| कुछ का उल्लेख लोगाथाओं में हैं जहाँ वे नायक के रूप में देखे जा सकते हैं| मिथिला में धर्मराज जो कि अधिसंख्य मैथिल घरों के कुलदेवता के रूप में पूजित हैं वैदिक माने जाते हैं/हैं| वैसे मिथिला में धर्मराज नाम से सिर्फ वैदिक धर्मराज नहीं पूजे जाते अपितु कुछ लोकनायकों को भी धर्मराज की उपाधि मिली है| लोकगाथाओं में धर्म के प्रति इनके त्याग ही वो वजह दिखती है, जिसके कारण ये सभी लोकनायक धर्मराज के रूप में पूजे जाते रहे हैं और रहेंगे| बहुत से ऐसे देवता भी हैं जिनके सन्दर्भ में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिल पाती| जिनमे कुछ है –अमीक माय,बालापीर आदि|

मिथिला में प्रत्येक गांवों में ग्राम देवताओ को पूजे जाने का विधान है | इनकी पूजा दैनिक होती है और विशिष्ट वार्षिक पूजा भी होती है | पूजित देवताओं का अपना गह्वर होता है जहाँ निर्धारित तिथि को भाव का आयोजन देखा जा सकता है |भाव में देवता भगत के उपर आते हैं और लोगों का उपचार करते हैं|लोकआस्थाओं में गजब की ताकत का प्रमाण भगत के द्वारा बताये उपचारों के सफल परिणामों के रूप में देखा जा सकता है| ग्रामदेवता के रूप में ब्रम्ह की पूजा की जाती है जिनका सम्बन्ध ब्रम्हा से नहीं होता बल्कि वे ग्राम से ही होते हैं| जहाँ ब्रम्ह की पूजा होती है उसे मैथिली में डीहबार या डीह कहा जाता है| सभी देवताओं को पूजे जाने के लिए एक विशिष्ट पूर्वनिर्धारित स्थान होता है जहाँ देवताओ को दैनिक या तय दिन के आधार पर पूजा जाता है| जैसे ग्रामदेवताओं की पूजा गह्वरों, मंदिरों या किसी खुले स्थान पर पाकरी,आँवला,पीपल, बरगद,अशोक आदि के पेड़ों के नीचे होता है| कुलदेवता या गृहदेवता की पूजा रसोई घर में या पूजा घर में पीड़ी /सीरा बना कर किया जाता है| सीरा बनाने के लिए पवित्र नदियों के मिटटी का प्रयोग शास्त्रों में निर्दिष्ट है| मिथिला के बहुत समाज में गोसाउनी घर रसोई घर केसाथ ही होता है| सतघरा के अधिसंख्य काश्यप ब्राम्हण के घर में कुलदेवी का सीरा रसोई घर में हीं है| वैसे तो कुल देवताओं की पूजा दैनिक होती है,लेकिन कुछ की पूजा तय दिनों के हिसाब से| जैसे ननौर गॉंव के देवेंद्र झा ‘दीन’ के हिसाब से उनके कुल देवता धर्मराज हैं जिनकी पूजा सप्ताह के चार दिन सोमवार,बुद्धवार, वृहस्पतिवार और शुक्रवार को होती है| यहाँ हिन्दू परिवारों या मंदिरों में कुलदेवता के सांग देवताओं में ना सिर्फ हिन्दू बल्कि मुस्लिम संतों/नायकों को भी पूजा जाता है| जिसमें बालापीर/सैयद,मीरा साहब, मीरा सुल्तान आदि को पूजा जाता है | ये कब हुए और कब से पूजे जाने लगे इसका कोई ठोस सबूत नहीं पेश किया जा सकता | सतघरा(बाबूबरही) के दुर्गा मंदिर में नग्रकोटी जालपा के साथ बालापीर को भी पूजा जाता है | यहाँ मंदिर के बाहर मुर्गा की बलि बालापीर के निम्मित चढ़ाई जाती है| दुर्गा का बकरा मंदिर के बाहर तो बिषहारा का मंदिर में भीतर कटता है |

कुल देवता की अवधारणा:-

मिथिला के सभी जाति-वर्गों के अपने कुल देवता और जाति देवता हैं |यहाँ कुलदेवता/देवी के रूप में ज्वालामुखी ,दक्षिनेश्वरीकाली,शीतला, काली ,त्रिपुरसुन्दरी,अन्नपूर्णा,सोखा,उमा,चामुंडा,तारा,ललिता,नारायणी ,भद्रकाली, धर्मराज,नृसिंह,कारिख आदि देवताओं को पूजा जाता है| कुलदेवताओं को पूजे जाने का कारण अपने कुल को संगठित करना और जोड़ना है | प्राचीन समय में जब लोग पलायन करते थे तो आपसी सम्बन्ध एवं पहचान के लिए अपने लिए अपने परिवार के लोगों में एक देवता का निर्धारण करते थे,जो बिछड़ने के बाद भी पहचान में सहायक होता था| पूजे जाने वाले देवताओं को आधार बना लोग अपने वंश की पहचान कर सकते थे, ऐसा विद्वानों का मानना है| मिथिला लोक के अध्ययन में ये आसानी से दिखती है कि यहाँ के लोग शिव के उपर शक्ति को प्राथमिकता देते हैं | और यही कारण है कि यहाँ सभी लोगों के कुलदेवता नहीं होते, लेकिन कुलदेवियाँ सबों की होती है| मिथिला में शक्ति की प्रधानता ही वह कारण है कि यहाँ के लोग अपने देवताओं के पूजने के निर्धारित गृह को गोसाउनिघर/मैया घर कहते हैं| बच्चे के जन्म से ही शक्ति की उपासना का पाठ पढाया जाता है- ‘सा ते भवतु सुप्रीता देवी शिखर-वासिनी। उग्रेण तपसा लब्धो यया पशुपति: पति:॥ श्लोक का अर्थ है- (हिमालय के) शिखर पर रहनेवाली वह देवी तुझ पर प्रसन्न हों, जिन्होंने कठिन तपस्या कर भगवान शिव को वर के रूप में प्राप्त किया|)

यहाँ अवैदिक देवताओं के पूजने के पीछे सिर्फ आस्था नहीं अपितु एक डर भी कारण है| शीतला को लोग बीमारी से बचाने वाली देवी के रूप में पूजते हैं तथा नदियों को शायद बाढ़ की आक्रमकता के डर से पूजे जाने का विधान हो! नायकों में सलहेस,कारिख ,लोरिक,मीराआदि पूजनीय हैं| जाति देवताओं के रूप में वीर-लोरिक(अहीर),दीना-भद्री(मुसहर),छेछन महराज(डोम),मोतीदाई (धोबी) गांगो देवी (मल्लाह),दुलरा दयाल(मल्लाह) कृष्णा और हाथी सुबरन(यादव),अमर बाबा (मल्लाह),गरीबन बाबा(धोबी), लालवन बाबा(चमार), बंठा चमार(चमार), ससिया महराज(खतबे)अन्यान्य देवताओं की पूजा जाति विशेष के साथ अन्य असम्बद्ध जातियों में भी होती है| यहाँ सभी देवता सिर्फ इसीलिए पूजनीय हैं क्योकि वे देवता हैं| आरक्षित वर्गों के देवता भी अनारक्षित वर्ग में पूजे जाते हैं |

मिथिला में धर्मराज :-

इस आलेख को लिखने का उद्देश्य ही धर्मराज से सम्बन्धित प्राप्त लोक प्रचलित विधियों और जानकारियों को संगृहीत करने का है| मिथिला में पूजित धर्मराज के सम्बन्ध में सूचनाओं को एकत्रित करने के क्रम में धर्मराज खुद एक उलझे हुए देवता बनकर उभरते हैं जिनका सम्बन्ध लोक और वेद दोनों से है| जहाँ कई विद्वान इन्हें वैदिक यम मानते हैं तो कई लोक देवता के रूप में देखते हैं| यह कह पाना दुरूह है कि धर्मराज के रूप पूजित देवता वैदिक यम ही हैं| वैसे मिथिला लोकसाहित्य के अध्येता महेंद्र नारायण राम की माने तो मिथिला में कारिख पंजियार को भी धर्मराज के रूप में पूजा जाता है तथा इनके गह्वर को धर्म का गह्वर कहा जाता है| लेखक का यह मत लोक अध्ययन के आधार पर हीं है| इस तरह मिथिला में लोक देवता के रूप में कारिख भी पूजनीय हैं इसमें कोई संशय नहीं| इसकी पुष्टि को लोक प्रचलित मंतव्य भी एक बल प्रदान करता है वो है बलि प्रथा | कहीं-कहीं धर्मराज को बलि दी जाति है कहीं –कहीं मिठाई| भोग के स्वाद का अंतर कारिख और धर्मराज का अंतर हो सकता है| शंकरदेव झा ने अपने लोक अध्ययन के आधार पर कहा कि अपने यहाँ धर्मराज के रूप में वैदिक यम के अलावा हनुमान,कारिख,ज्योति के साथ-साथ अन्य लोकदेवताओं को भी पूजे जाते का विधान आदिम से है| महेंद्र नारायण राम कि माने तो मिथिला में धर्मराज कोई एक देवता मात्र नहीं बल्कि एक सम्प्रदाय अभिहित है जिसमे लोक नायकों और देवताओं को भी धर्मराज उपमान के साथ पूजा जाता रहा है | मिथिला शोध संस्थान के एक शोध में डॉ. अवनींद्र कुमार झा ने मिथिला में पूजित धर्मराज को वैदिक माना है |

मेरा व्यक्तिगत ये मानना है कि अगर वैदिक धर्मराज के अलावा भी वैसे लोकदेवता या पौराणिक देवता जिन्हें धर्मराज के रूप में पूजा जाता है वे वैदिक धर्मराज में ही निहित है| या उन्ही के मानकों को आधार बना धर्म पर चलने के कारण उन्हें धर्मराज के रूप में पूजा जाने लगा| जैसे सभी नदियाँ समुद्र में मिलती है, वैसे ही सभी धर्मराज वैदिक यम से जुड़े हुए है और यम हीं सबके प्रतिनिधि हैं|

यमराज मिथिला के अलावा भी सम्पूर्ण भारत में पूजे जाते है और इनकी लोककथाए सभी जगह सुनाई जाती है | राजस्थान में धर्मराज और पोम्पा बाई की कथा प्रचलित है | वैसे तो धर्मराज सभी जगह पूजित है लेकिन जो मान-सम्मान एक भाई को अपने बहन के यहाँ मिलती है वही सम्मान धर्मराज को यहाँ मिलती है| धर्मराज ना सिर्फ कुलदेवताओं के रूप में मान्य हैं, बल्कि ये त्योहारों में भी अपने को काबिज किये हुए हैं | यही कारण है कि यहाँ यमद्वितीया को भ्रातु द्वितीया के रूप में मनाया जाता है| इसी दिन यम अपनी बहन यमी से मिलने उसके घर गए थे और खुश होकर वरदान में उन्होंने यमुना की बात मानते हुए कहा कि-“जो व्यक्ति यम द्वितीया को यमुना में स्नान कर उसी घाट पर ‘फरे’ बना कर खाए उस के आत्मा को मृत्यु के बाद यमराज कोई तकलीफ नहीं देंगे|”इस कहानी का उल्लेख भविष्य महापुराण और पद्म पुराण में भी है |
मिथिला के क्षेत्रों में जब भ्रातु द्वितीया मनाते हैं तो बहने निम्न श्लोक पढ़ती हैं –

‘यमुना नोतलनी यम के,हम नोतै छी भाई के
जहिना यमुना जल बढ़ए तहिना भायक ओरदा बढ़ए |’

(अर्थात-यमुना ने जैसे यम को निमंत्रित किया वैसे ही मैंने अपने भाई को निमंत्रित किया है,मेरे भाई की आयु यमुना के जल के बढ़ते अनुपात में बढ़े |
यम और यमी के बहुत संदर्भ पुरानो में भरे –पड़े हैं | पुराणों की माने तो यम और यमी शनि की तरह ही सूर्य के संतान हैं| जहाँ शनि जीवित अवस्था में मनुष्यों के बुरे कर्मों का दंड देते हैं वहीँ यम मृत्यु के बाद | ‘यमो यच्छतीत सतः’ अर्थात यम को यम इसीलिए कहा जाता है क्योंकि यह प्राणियों को नियंत्रित करते हैं| आत्मा की शुद्धिकरण कर्म का सम्पादन धर्मराज के हाथों ही होता है| निरू.चंद्रमणि भाष्य (10/11) के अनुसार यम प्राण को कहते हैं| क्योंकि यह जीवन प्रदान करता है| यमराज को धर्मराज इसीलिए कहा जाता है क्योकि वो अपने सहायक लिपिक चित्रगुप्त और पत्नी धुमोरना की सहायता से धर्म का संचालन करते हैं| मधुबनी जिला के विरौल प्रखंड में धर्मराज के साथ सहायक देवियों में धुमोरना भी पूजनीय हैं|

धर्मराज को धर्मराज क्यों कहा जाता है इसके सन्दर्भ में ऋग्वेद के दसवें मंडल के यम-यमी सूक्त का रेफरेंस लेते हुए मन्मथनाथ गुप्त ने अपने पुस्तक ( स्त्री पुरुष संबंधों का रोमांचकारी इतिहास,वाणी प्रकाशन,दिल्ली,2005, पृष्ठ-52 ) में कहा है कि यम ने अपने बहन यमी का प्रणय निवेदन ठुकरा कर स्थापित लोकधर्म का पालन किया अतः वे धर्मराज हुए/कहलाए|

यम और चौदह सहायक देवता:-

जैसाकि धर्मराज के सम्बन्ध में पहले से पता है कि ये लोक से भी हैं और वेद से भी| लेकिन हम दोनों को एक साथ मिला लेते हैं ताकि समझने में कोई द्विविधा ना हो |अब हमें यहाँ उन १३ देवताओं के बारे में जानना है जो कुलदेवताओं के सांग हैं| यहाँ यह जान लेना आवश्यक कि यह सभी सांग देवता बदलते रहते हैं| कहीं कारिख धर्मराज के रूप में पूजे जाते हैं तो कहीं धर्मराज के सांग देवताओं में| मिथिला के सभी परिवारों में १४ देवान की पूजा होती है जहाँ एक मुख्य देवता/कुलदेवता होते हैं और अन्य 13 सहायक| जैसाकि पहले ही मैंने कहा कि पूजित सहायक देवता परिवर्तनीय हैं और ये परिवर्तन गाँव,समाज, जाति, कुलदेवता और कुल पर निर्भर करता है| मिथिला लोक के अध्येता शंकरदेव झा ने चौदह देवान को सूचीबद्ध किया है जिसमे उन्होंने कुलदेवता के अलावा- गहिल,वामति,देवी भगवती, फेकूराम,बालापीर/मीरा, कालिका, हनुमान, भैरव, बिषहरा, धर्मराज, साहेब खबास, गोविन्द, सोखा सम्भुनाथ, एवं जलपा(ज्वालामुखी) को रखा है|वहीं महेंद्र नारायण राम ने यह कहते हुए सहायक देवान को सूचीबद्ध किया कि यह परिवर्तित होते रहते हैं| उन्होंने सूची में सोखा,गोरिल अन्हेरबाट गोआर, गहिल,बामति, देवी दुर्गा, जालपा,दीनानाथ, मीरा,गंगा और अन्य को रखा| यहाँ एक बात बता देना आवश्यक है कि मिथिला लोकगाथाओं में सूर्य को भी धर्मराज के रूप में स्थापित किया गया है| और धर्मराज के रूप में पूजित कारिख और उनके पिता और पुत्र सभी सूर्य के अनुयायी हैं| ऐसा लोकगाथाओं दिखता है |मधुबनी जिला के ननौर निवासी देवेंद्र झा ‘दीन’ ने चौदह देवान की एक अपूर्ण सूची दी जिसमे उन्होंने कारी, मीरा, दतुला, बालापीर,लखतलाल पांडे, ज्योति पंजियार, शीतला तथा अमीक माय का नाम गिनाया| अमीक माय के सम्बन्ध में अभी तक मुझे कोई जानकारी नही मिल पाई | कारी को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ये खबास हुए हैं उनके यहाँ भाव में कारी खबास का आह्वान होता है| व्यक्तिगत मेरा मानना है कि जहाँ लखतलाल पाडे पूजे जाते हैं वहां जलपा भी पूजी जाएँगी | क्यों का उत्तर मैं आगे स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा| उन्होंने कहा कि अमीक माय और बालापीर की पूजा घर के बाहर अलग से होती है |और उनका भोग भी अलग से लगता है| कहीं-कहीं पंच भगिनी बिषहरा, त्रिपुरसुन्दरी को भी कुलदेवी के सहायक देवी के रुप में पूजा जाता है| कहीं –कहीं नृसिंह भी पूजे जाते हैं|

मिथिला में धर्मराज के पूजा की तिथि एवं विधि:-

पूजा:-मिथिला का हरेक समाज अपने पूर्वजों के मान्यतानुसार पूर्व संस्कारों का निर्वहन करते हुए कुलदेवता को पूजते हैं| कुलदेवता में धर्मराज की पूजा कहीं नित्य होती है तो कहीं सप्ताह के तय दिनों में| ननौर के देवेंद्र झा ‘दीन’ जी ने बताया कि वे धर्मराज के सेवक हैं और उनके यहाँ सप्ताह के चार दिन ही धर्मराज को पूजा जाता है तथा उन्हें पुरुष ही पूजते हैं| वैसे ज्ञात सूचनाओं के आधार पर ये लिखा जा सकता है कि मिथिला में ज्वालामुखी और धर्मराज की पूजा सिर्फ पुरुष ही करते हैं (अपवाद भी हो सकता है)| कहीं –कहीं तो अशौच में यमराज को पूजने का विधान है(घडी पावनि के उपलक्ष्य में)| उन्होंने बताया कि निम्नलिखित मन्त्रों से वे लोग धर्मराज की पूजा करते हैं- ‘कालकादि चतुर्दश देवसहित धर्मराजाय नमः’ | साथ ही उन्होंने कहा कि उपनयन और बलिप्रदान में भी इसी मंत्र का प्रयोग किया जाता है| अब ये बलि किसके निम्मित होती है नहीं कहा जा सकता| ये शायद धर्मराज के लिए हो या काली के लिए! धर्मराज की दैनिक पूजा के साथ-साथ वार्षिक पूजा का विधान है,जो यहाँ घड़ी के नाम से लोक प्रचलित है| लोकमतों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर घड़ी के संदर्भ में भी अनेक मत दृष्टिगोचर होते हैं| कहीं-कहीं यह वर्ष में दो बार मनाया जाता है तो कहीं-कहीं वार्षिक| कहीं-कहीं नहीं भी मनाया जाता है| मधुबनी के बिरौल प्रखंड के कुछ गाँव के लोग घड़ी पावनि शनिवार के दिन हीं मनाते हैं और इसे शनियाही घड़ी के नाम से जाना जाता है| मैथिली मचान के माध्यम से जयचंद्र झा ने बताया कि बिरौल प्रखंड के सहरसा ग्राम के नब्बे प्रतिशत लोग धर्मराज के सेवक हैं| किसी-किसी गाँव में घड़ी माघ के वसंत पंचमी के बाद बुद्धवार को और सावन के नागपंचमी के बाद बुद्धवार को मनाया जाता है| दुलारपुर ग्राम निवासी अम्बुज कुमार चौधरी ने बताया कि उनके यहाँ कुल जनसंख्या का 90% धर्मराज के सेवक है और वे लोग प्रत्येक वर्ष चार बार धर्मराज को भोग (पातरि देते हैं| उनके यहाँ घड़ी सावन पंचमी के दिन मनाया जाता है जिसे वे लोग सोनघड़ी से संबोधित करते हैं|

भोग:-जहाँ तक नैवेद्य की बात है धर्मराज को लड्डू,खाजा और अन्य मिठाई के साथ-साथ कटहल,दलिपुड़ी,रोट ,खीर आदि का भोग लगाया जाता है| मैथिली मचान के माध्यम से शैलेन्द्र मोहन झा ने बताया कि धर्मराज को लगाया भोग गह्वर के बाहर नहीं निकाले जाते हैं| परिवारों और दियादों के खा लेने के बाद बचे हुए प्रसाद को उसी घर के किसी कोने में मिट्टी के नीचे दबा दिया जाता है| धर्मराज की पूजा कहीं–कहीं सामूहिक होती है तो कहीं-कहीं लोग व्यक्तिगत खीड़ा बनाकर उन्हें पूजते हैं| कहीं–कहीं धर्मराज के साथ उसी खीड़ा पर अन्य देवताओं की खीड़ा भी बना दी जाती है,तो कहीं सिर्फ धर्मराज का हीं| प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अधिसंख्य लोगों का मानना है कि धर्मराज को छागर बलि नहीं चढाई जाती तो कुछ अल्पमत ये भी है कि उन्हें बलि चढ़ाई जाती| मेरा मानना है कि वे लोग जिनके धर्मराज वैदिक यम हैं वे बलि नहीं चढ़ाते,जो कारिख को धर्मराज रूप में पूजते हैं वे बलि चढ़ाते हैं| इसका संदर्भ कारिख लोकगाथा में दिखता है| देवघर के करौ में धर्मराज की पूजा में लोग काँटों पर चलते हैं तथा अन्य माध्यमों से खुद को शारीरिक दंड देते हैं |धर्मराज की पूजा का ये विधान पूजित धर्मराज को गरूड पुराण के यमराज के साथ जोड़ता है |

भित्ति चित्रों में धर्मराज :-

मिथिला में धर्मराज के गह्वरों में भित्ति पर धर्मराज को चित्रित किया जाता है कहीं वे सफेद रंगों से बनाये जाते हैं तो कहीं लाल या अन्य रंगों से| चित्र में उन्हें हाथ में दंड और भैंसा के साथ दिखाया जाता है|जो कहीं ना कहीं यम से इन्हें जोड़ता है |धर्मराज के पूजा के दौरान उनके निम्मित वस्त्रों से कहीं-कहीं उनके प्रतीकात्मक भित्ति चित्रों को ढक दिया जाता है, जिसका अर्थ वस्त्र को धर्मराज के उपर चढ़ाने से है|

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मैथिली लोकगीतों में धर्मराज:-

अन्य प्रान्तों की तरह मिथिला के लोकगीतों में धर्मराज को गाया जाता है और क्यों ना गाया जाय वे कुलदेवता भी तो हैं| जैसाकि सबों को ज्ञात होगा कि लोकगीत के अध्ययन से बहुत सी बाते सामने निकलकर आती है और यह एक तरह का सामाजिक इतिहास ही होता है क्योंकि यह वर्षों से एक दुसरे के कंठों में सफर करते हुए आते रहते हैं|
मैथिली में धर्मराज का एक गीत है-

जाहि दिन धर्म जनम भेल गोसा ,
सोने ठोपे बरिसल मेघ ।
साहेब एक जग जनमल ।। १
दीप जोहइते बातीयो ने पाओल गोसा ,

मोती मानिक भए गेल इजोत ।
साहेब एक जग जनमल ।। २
हसुंआ जोहइते पासिने ने पाओल गोसा ,
सोने छूड़ी छीलहनार ।
साहेब एक जग जनमल ।। ३
मुनहर धर्म जनम लेल गोसा ,
बसहर छीलह नार ।
साहेब एक जग जनमल ।। ४
तोहे आमा बैसल सोइरि साठि ,
आमा हमें धर्म टेकब संसार ।
साहेब एक जग जनमल ।। ५
दूरे रहू , दूरे रहू रे दगरीन ,
दगरीन मोहि जुनि हे छीलहनार ।
साहेब एक जग जनमल ।।६
अढ़ाइ हे दिन केर बाबू धर्मराज गोसा ,
मीरा मांगए सबुज कमान ।
साहेब एक जग जनमल।।७
नार छीलिये छीलि गोसा ,
पाग बान्हू गोसा पुरइन छत्र धराय
साहेब एक जग जनमल ।।८

इस गीत में धर्मराज के जन्म को संदर्भित किया गया है कि कैसे उनके जन्म से सभी कुछ सही होने लगा | इसमें धर्मराज के सहायक मीरा का भी प्रसंग आया है जहाँ कहा गया है कि अढाई दिन के गोसाई धर्मराज से उनके सहायक चौदह देव में से एक मीरा उनसे तीर-कमान मांग रहे हैं| अगर ये मीरा सुलतान हैं तो यह गीत कारिख से भी जुड़ सकता है |

एक दुसरा गीत है :-
तोहरे भरोसे धर्मा इहो पथ चढलहूँ
सेहो पंथ भेल कुपंथ हो
हो धर्मा सेहो पंथ भेल कुपंथ
कोने नैया उगे हो धर्मा?
कोने नैया डूबत?
हो धर्मा कोने नैया उतरब पार हो?
धर्मक नैया उगे हो धर्मा
पापक नैया डूबे|
हौ साचक नैया उतरब पार हो
हौ धर्मा साचक नैया उतरब पार हो|
कथिक नैया हो धर्मा?
कथि के खबकरुआरि?
कोने विधि उतरब पार हो धर्मा?
हौ धर्मा कोने विधि उतरब पार हो?
चानन के चेबी-चेबी नैया बनाएब
हौ धर्मा सांचे के खबकरुआरि|
ताहि नैया चढींएता मोर धर्मबाबू
हौ धर्मा आबि जेतए चौदहो देवान हो|
भनहि विद्यापति सुनु बाबू धर्मा
हौ धर्मा सदए राखब रक्ष्यापाल हौं-2||

इस गीत के गायन में लेखन का श्रेय विद्यापति को दिया गया है| ये विद्यापति ने लिखा है या किसी और ने नहीं कहा जाता लेकिन महिलाएं इसे उन्ही के नाम से गाती हैं| उपर्युक्त गीत में कहा गया है धर्म के मार्ग पर चलते हुए कितने भी बाधा आए लेकिन हमें सदा वही मार्ग चुनना चाहिए|

एक गीत है –
धर्मराज बाबू यौ
कनिए –कनिए होइयौ ने सहाय
पहिने मंगे छी धर्मराज
सीथ के सिन्दुरबा
धर्मराज बाबू यौ
कनिए –कनिए होइयौ ने सहाय
तखन मंगे छी धर्मराज
गोदी के बलकबा
धर्मराज बाबू यौ
कनिए-कनिए होइयो ने सहाय
तखन मंगे छी धर्मराज
भाई-भतीजबा धर्मराज बाबू यौ
कनिए-कनिए होइयो ने सहाय ||

उपर्युक्त गीत में धर्मराज से पति की रक्षा, संतान की प्राप्ति, और भाई-भतीजे के रक्षा की विनती की जा रही है|
एक गीत हैं जिसका सम्बन्ध कारिख से मालूम पड़ता है| कारिख पंजियार की कथा में उनके पिता ज्योति को सूर्य बारह वर्षों के वनवास का श्राप दे दिया| जिसके निर्वहन के लिए वे १२ वर्षों तक केदली वन में रहे और पीछे उनके पुत्र कारिख ने उनका उद्धार किया |

‘बारह बरख धर्म सेवा हम केलहुं
यौ अहाँ धर्मराज
तैयो नहि छुटलहि बांझी पद
यौ अहाँ धर्मराज|
सासु मारे ठुनका धर्मा
ननदि परहै गारि
यौ अहाँ धर्मराज
गोतनी के उलहन सहलो नहि जाय
यौ अहाँ धर्मराज|
सासू के ठुनका अबला
गंगा बहि जेतौ गे तों अबला नारी
ननदो के गारि दिन दू चारि
गे तों अबला नारी
गोतनो के उलहन अबला
पैंच सधबिहए गे तों अबला नारी|
मांगु-मांगु- मांगु अबला
दुनू कर जोरि गे
तों अबला नारी
जेहो किछु मांगब से हम देब
गे तों अबला नारी|
पहिने जे मांगब धर्मा सिर के सिन्दूर
यौ अहाँ धर्मराज
तखन मांगे छी धर्म
गोदी भरि पुत्र यौ अहाँ धर्मराज
तखन मांगे छी धर्मा सहोदर नीक
यौ अहाँ धर्मराज|
तीनू फल देबौ अबला
छिनही लेबौ गे तों अबला नारी
छिनही ज’ लेबै अहाँ
जुनि अहाँ दियौ हे धर्मराज
बाझहि पद छुटत मरौसी नाम
यौ अहाँ धर्मराज|

उपर्युक्त गीत में एक नारी धर्मराज से अपनी समस्या सूना रही है और वो चाहती है कि धर्मराज उसका निवारण करें |

चौदह देवान:-

जैसाकि पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि मिथिला में मुख्य कुलदेवता के अलावा अन्य तेरह देवताओं की पूजा चौदह देवान के रूप में की जाती है |चौदह देवान को सभी लोग पूजते हैं या नहीं यह भी एक वृहद् शोध का विषय है| चौदह देवान गाँव समाज के आधार पर बदलते रहते हैं कुछ विद्वानों की सूची में निम्नलिखित देवताओं को चौदह देवान के रूप में पूजनीय दिखाया गया है|इसमें कुछ वैदिक हैं,पौराणिक हैं और कुछ लोकगाथाओं से सबंधित है तो कुछ का कोई श्रोत नहीं दिखता-1.फेकूराम 2.कालिका 3.गहिल 4.विषहरा 5.ज्वालामुखी(जलपा) 6.देवी धुमोरना(धर्मराज की पत्नी) 7.देवी दुर्गा 8.ब्रम्ह 9.मीरा साहब 10.बालापीर 11.अमीक माय 12. हनुमान 13.धर्मराज 14.कारिख पंजियार (लोक धर्मराज) 15. ज्योति पंजियार 16.सोखा शम्भुनाथ 17. भवानी 18. भैरव 19.गोविन्द 20. वामती 21.साहेब खबास 22.कारी 23.अन्हेरबाट गोआर 24.गोरिल 25.दीनानाथ 26.नरसिंह और अन्य |

जैसाकि आप सभी जानते हैं चौदह देवान में कारिख पंजियार की लोकगाथा सुनने को मिलती है और ये धर्मराज के रूप में भी पूजे जाते हैं |इनके गह्वर को धर्म का गह्वर कहा जाता है| लोकगाथा में कारिख सूर्योपासक हैं, ना सिर्फ कारिख बल्कि उनके पिता ज्योति पंजियार और पुत्र कामदास भी सूर्योपासक हीं हैं| महेद्र नारायण राम ने अपनी पुस्तक (मैथिली लोकमहागाथा कारिख पंजियार) में इन्हें परोल चौर का माना है| यह स्थान जनकपुर से प्रायः 10-15 किलोमीटर दूर है|जहाँ अभी भी ज्योति और कारिख का मूल गह्वर है| यह स्थल सुरजाहा सम्प्रदाय को मानने वाले लोगों के लिए धर्म स्थल के रूप में मान्य है| नेपाल का ही उसराडीह परोल क्षेत्र का दूसरा प्रमुख स्थान है जहाँ ब्राम्हण वेशी इंद्र ने ज्योति का घमंड तोड़ा था और श्राप भी दिया था| ज्योति 12 वर्ष तक के लिए दीब्रा भीड़ बन गए थे| पीछे तेजस्वी पुत्र कारिख ने केदली वन जा श्रापित पिता का उद्धार किया था| प्रफुल्ल कुमार सिंह ‘मौन’ “मैथिली लोकगाथाक नेपलीय सन्दर्भ:स्थिति ओ संरक्षण” में लिखा है कि केदली वन प्रयाण करते समय माँ लिकमावती से इस बनवास की पुष्टि की है-“ हमरा लिखल जे आम्मा केदली बनवास”|

सैराधार जो वर्तमान में नेपाल में पड़ता है,वहीं स्नान कर इसी नदी के किनारे कारिख ने सूर्य का गह्वर बनाया था,जिसे वली मोहम्मद के पुत्र मीरा सुल्तान ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया| लेकिन कारिख ने अपने पौरुष के प्रभाव से इसे पुनः स्थापित कर दिया| फलतः मीरा सुलतान कारिख के अनुयायी बन गए| यह धार्मिक सदभावना का विलक्षण उदाहरण है| मीरा सुलतान को दिकपाल भी कहा जाता है| इस सुमिरन में भी कुछ ऐसा ही आया है-

सुमिरन सुमिरन सुमिरन करेछी
छप्पन कोटि देव के ह्रदय में जपैछी ए|

पूरब:-

पुरबे सुमिरनबा हे माता उगिला सुरुज के ए,
पुरबे राजा लगेअ उगला सुरुज ने ए|
उनको के चढ़इअ माता दूध के ढार ने ए,
उनको चरणमे हे माता, सिरमा नवाबइ छी ए |

पश्चिम:-

पश्चिममे सुमिरनमा करैछी मीरा सुल्तान के,
पश्चिमके राजा लगेअ मीरा सुल्तान ने ए,
उनको के चढ़इअ हे माता मृगा बलिदान ने ए
उनको चरणमे हे माता सिरमा नवाबइ छी|

उत्तर:-

उत्तरे सुमिरनमा करैछी पांचो पांडव भीम के ए,
उत्तरे के राजा लगेअ पांचो पा

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