मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल 2019, उद्घाटन समारोह, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र सभागार, जनपथ, नई दिल्ली।
दिनांक: 8 दिसम्बर 2019
आरिफ मोहम्मद खान, माननीय गवर्नर, केरल, दीप प्रज्वलन से कार्यक्रम का उद्घाटन करते हुए उन्होंने अपना प्रस्तुत भाषण दिया!
प्रो. मणिन्द्र नाथ ठाकुर, श्री नितीश नंदा, सच्चिदानंद जी, देवी एवं सज्जनों!
सबसे पहले सविता जी को बहुत धन्यवाद और मुझे लगता है कि मुझे माफ़ी मांगनी चाहिए कि मेरी वजह से वह मजबूर हुई थी, उन्होंने आज यहाँ उद्घाटन समारोह रखी है. मुझे वाकई में मजबूरी थी, लेकिन मेरा यह वादा है कि जैसे ही मौका मिलेगा, कोई भी छोटा मोटा कार्यक्रम होगा हम राजनगर अवश्य जाएंगे. मिथिला से जो सांस्कृतिक नॉलेज उपजा है राजनगर उसकी एक तरह से राजधानी है. निश्चित ही हम वहां हाजिरी लगायेंगे. यह कहने के बाद पहले इस लिटरेचर फेस्टिवल का औपचारिक आरम्भ हो, उसके लिए मैं कहना चाहूंगा की:
“हम मधुबनी लिटरेचर फेस्टिवल 2019 के सार्थक आ सफल आयोजन के कामना करैत, एकर शुभारम्भ के घोषणा करैत छी”.
असल में लिटरेचर फेस्टिवल क्या है? असल में आप अक्षर का, नॉलेज का, विद्या का साहित्य का, कला का, नाट्य का, निरुक्त का समारोह मना रहे हैं. और मैं ज्यादा नहीं कहता, जरा गौर कीजिए हमारी 6 दार्शनिक परंपरा/विद्यालय हैं उनमें से चार कि उत्पत्ति मिथिला से हुई है. मिथिलांचल में रहने वाले लोगों को कितना मालूम है बताइए, ये क्यों हुआ ऐसा, मुझे यह प्रश्न परेशान करता था, जिस दर्शन संस्कृति ने “अहं ब्रह्मा अस्मि- तत्त्वसमि” की कल्पना दिया है दुनिया को, वहीं ब्रह्मा आपके अन्दर और वही ब्रह्मा मेरे अन्दर निवास करता है. द्वैत का भाव समाप्त करने का प्रयत्न किया है. हमारी उपनिषद ने यह बताया है कि “द्वितीय यावा वय भय भवति”, अर्थात दूसरे से इंसान को भय लगता है. तो हमारी सभ्यता को कोई समझा है तो विवेकानन्द को याद कीजिए कि मेरे अभियान बहुत आसान है और उसकी सरल व्याख्या किया जा सकता है. वह अभियान मिशन है, हमारे उपनिषदों में यह बताया है “Our mission is to preach humanity and its manifestation in all moments of live.” सिर्फ हिन्दुस्तानियों को नहीं बल्कि पुरे मानवता को बताना है कि उनके अन्दर दिव्यता का निवास है. समस्या है कि अहं के नीचे ब्रह्म अथवा बुद्धि कि परतें दबा हुआ है. अहं अज्ञान है. वे जो स्वयं को आंकें वे प्रकृति का साकार है. “तपा स्वाध्याय निरुतम” ज्ञान है.
भगवान राम लक्ष्मण से कहते हैं कि वन में जाने से शारीर को कष्ट होगा, जो ऐसा सोचते हैं कि मैं एक शरीर हूँ वों अविद्या के शिकार है. मैं चैतन्य आत्मा हूँ और जो इस सत्य को जानते हैं उनके पास विद्या है. मनुष्य ही नहीं दुसरे जीवों में भी दिव्यता है. हम कैसे अपने विरासत के बारे में भूल गए है? ये ज्ञान फलां जाति, फलां वर्ण तथा महिलाओं को नहीं दिया जा सकता. एक खूबसूरत विचार स्वामी रंगनाथनंद जी (अध्यक्ष, राम-कृष्णा मिशन परमहंस) ने अपने एक लेख में लिखा है कि :
“सभी सभ्यताओं के पतन के दौर में हमने भारत में राजसत्ता का प्रयोग किया और ऐसी परंपरा बनाई जिसमें देश कि बड़ी आबादी को ज्ञान से वंचित कर दिया और यह पतन के काल में हुआ है और यह हमारी परंपरा का हिस्सा नहीं है”.
स्वामी जी ने श्रीमद-भागवत का उदाहरण दिया है और कहा है कि कोई भी व्यक्ति जो दूसरे से ज्ञान को छिपाए, उसके लिए शब्द का प्रयोग हुआ है: “सरस्वती खल शत्रु” (Villain). तो सरस्वती के उपासक वे नहीं हो सकते जो खल करते है. यदि आप ज्ञान छुपा रहें हैं तो आप उपासक नहीं हैं, आप उनके खल हैं. दुनिया की दूसरी संस्कृति में विविधता से लोग परेशान होते थे, केवल भारत में विविधता विधमान रही है. जबकि पूरे विश्व में विविधता 200 वर्ष पूर्व आई. यहाँ तो विविधता की शुरुआत के साथ यात्रा आरम्भ होती है, “एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति” अर्थात एक सत्य है. एक ही परिवार के सभी लोगों का विचार-आचार तथा संरचना एक नहीं होती बल्कि हमें सौहर्दता प्रदान करनी होती है. हमें विविधता ने कभी परेशान नहीं किया. हम तो विविधता को अपना तत्व माने हैं. दो लोगों का समझ एक ही पुस्तक को दो ढंग से समझेंगे. और अपने समझ को खुदा का क़ानून बताउ, समस्या वहां से शुरू होती है. ये तो उन व्यक्ति विशेष का समझ है. मेरी समझ तो प्रतिदिन विकसित होती है न, इसलिए अंतिम मुहर लगा दूँ तो खुदा के पुस्तक के साथ भी नाइंसाफी है.
एक हिंदी के कवि ने कहा है राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं जो एक वाणी, एक बानी, एक पत्नी को निभाएं तो वही कृष्ण लीला पुरुषोत्तम, माखनचोर, चित्तचोर हैं. दोनों एक ही हैं लेकिन युग के अनुसार अवतार है। एक मर्यादा पुरुषोत्तम है, दूसरा लीला पुरुषोत्तम हैं। पिता भी चाहते थे कि राम उस समय को न माने लेकिन राम ने ऐसा नहीं किया, वही कृष्ण ने महाभारत में कोई नियम ऐसा है ही नहीं जिसकी कमर न तोड़ी हो । भगवान श्री कृष्ण और राम में लेकिन एक समानता है दोनों में से एक भी ने अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ नहीं किया जो भी किया लोक कल्याण, लोक सिद्धि के लिए किया। तो हमने हमेशा यह माना है कि “सर्वज्ञम तत् अहं वन्दे परम् ज्योतिष तपो अहं तीरवरतायम मुखात देवी सर्व भाषा सरस्वती”। जितनी दुनिया की भाषाएँ हैं, भाषा बोली के अंतर को समझना चाहिए और ये सभी भाषाएँ माता सरस्वती कि बोली हैं। हर भाषा एक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। जितनी भाषाएँ हम सीख सकते है हमें सीखनी चाहिए। हदीस में लिखा गया है कि भाषा किसी भी समाज की मानसिकता का माध्यम है। और सविता जी आपसे माफी चाहता हूँ की इतने लोग सभागार में है, दिल्ली में इतने बजे तो संसद भी शुरू नहीं होता है। 11 बजे दिल्ली में काम का वक्त शुरू ही होता है। और आज तो रविवार है 10 बजे यदि 10 लोग भी हो तो खुशी की बात है। दिल्ली में मिथिला साहित्य की सभा हो और इतने लोग उपस्थित हो तो ये बहुत खुशी की बात है।
विश्व गुरु की उपाधि किसी ने नहीं दिया। 9 वीं और 10 वीं शताब्दी में मध्य पूर्व देश(अरब) में इतिहास लिखा जा रहा था। बगदाद में House of wisdom को विश्वविद्यालय मान सकते हैं। यूरोप में अभी भी पुनर्जागरण नहीं शुरू हुआ था। वहाँ के खलीफा ने खत लिखा की: – मैंने सुना है तुम्हारे पास बहुत किताब है जिस पर तुमने ताला डाला है, क्या तुम इसमें से कुछ हमें दे सकते हो ? तीन दिन काउन्सिल की मीटिंग चली, उन्होंने कहा कि अरब अभी बौद्धिकता के क्रांति में है, इसको भ्रष्ट करने का यही सही तरीका है, ये कुछ किताबें मांग रहे है सारी इन्हीं को दे दो और उन्होंने सारी यूरोपीय किताबें ऊँटों पर लाद के भेजवा दिया। उसी समय कई भारतीय पुस्तकों का अरबी में अनुवाद किया गया। 8 वीं सदी में एक कनक नाम का पंडित कुछ किताबें ले कर बगदाद पहुँचता है। उसमें एक किताब है जिसका नाम है “सूर्य-सिद्धांत”। सूर्य-सिद्धांत के कुछ हिस्सों को अनुवाद करके खलीफा मंसूर को सुनाया जाता है। वों इतना मोहित हो जाता है सुन के कि वो अरब के एक ज्ञानी को बुलाता है और कनक को उसके साथ मीटिंग करवाता है और कहता है इस किताब का अनुवाद अरबी में करवाओ । स्पेन के खलीफा को पता चलता है कि एक कोई बहुत अच्छी किताब है जो हिंदुस्तान से आई है और जिसका अरबी में अनुवाद हो रहा है। वों भारी रिश्वत दे के किताब छापने वाले से उसकी एक कॉपी निकलवा लेता है। अरबी में उस किताब को नाम दिया जाता है “हिन्द-सिंध”। “हिन्द-सिंध” पुस्तक का अनुवाद यूरोप के सभी पुस्तकालय में आ जाती है और ये वहाँ पुनर्जागरण का कारण बनती है। ये इतिहास की बात है इसलिए विश्वगुरु की बात आती है। भारत के बारे में ये उपाधि से नहीं आती यह रिकग्निशन से आती है।
ऋषियों ने कल्पना की थी। 9 वीं, 10 वीं सदी में अरब के विद्वानों ने इतिहास लिखा, इसमें इब्न-खलदून, इब्ने-असीर, तबरीक, याकूबी, मासुबी सभी ने पहला अध्याय हिंदुस्तान पर लिखा है और वो कहते है कि दुनिया मे 4 सभ्यता है (१) ईरानी(शान शौकत और वैभव के लिए), (२) रोमन(सुंदरता के लिए), (३) चीनी( हुनरमंद और कौशल, कानून की आज्ञा अनुपालन के लिए) (४) भारत(अपनी ज्ञान, परम्परा के लिए जाना जाता है) और वो सिर्फ नहीं कह रहे है, 7 वीं सदी में हुजूर सस्सलम पैगम्बर मदीने में बैठ के (भारत कभी आये नहीं) कह रहे है कि मैं हिंदुस्तान की सर जमीं से ज्ञान की शीतल हवा की आती ठंडाई महसूस कर रहा हूँ। इकबाल ने इसे कहा है “भिरे अरब को आयी ठंडी हवा जहाँ से नज्म में “। हमें अपने आप को कोई उपाधि लेने का कोई अधिकार नहीं था लेकिन दूसरों ने इसे स्वीकार किया है/ किया था। हमारी बदकिस्मती जहाँ हमें जहां सोचना चाहिए आज हम खुद अपने परम्परा से परिचित नहीं हैं। हमारी ऋषियों ने जो कल्पना की थी वो इस प्रकार है “एतद् देशा परसु तस्या सकाक्षात अग्रज अनमना, सोम सम चरित्रम शिक्षेरण पृथ्वीयं सर्वम आनवहः”।
हमारे ऋषियों ने कल्पना की थी कि दुनिया के लोग हमारी परंपरा और वों अपनी परम्परा का ज्ञान लेने भारत आएंगे और ऐसी परिस्थिति तब थी जब हमारे ऋषि थे। हमारे पास ऐसी बौद्धिकता है कि क्रिस्तानी और इस्लाम को अध्यन करने लोग हिंदुस्तान आते हैं। तुलसीदास जी कहते है कि ‘कोई न रहे कहानी दासी बन जईहे रानी’। पानीपत में जितनी फौजें थी उससे ज्यादा तमाशा देखने वाले थे की बाबर जीतेगा या लोदी!! क्योंकि वे अपनी दीन को बदलना चाहते थे अज्ञानस्वरूप। मुझे कपड़े ही धोना है मेरा क्या स्टेटस है । आज हम वहाँ नहीं है जहाँ थे। आज तो मोची भी जिसके पास दुकान नहीं है उसके बच्चे भी बेहतरीन स्कूल में से एक मे पढ़ते है। उनके ऊपर छत नहीं है लेकिन वो भी आगे बढ़ना चाहते है। फेस्टिवल का मतलब यह है की जिम्मेदारी महसूस करें जो ज्ञान से वंचित है। हमारी पढ़ाई पर समाज सम्पूर्ण का पैसा खर्चा हुआ है। फेस्टिवल इसलिए अच्छा लगता है कि हम ज्ञान का अर्थात शब्द का उत्सव मनाते है। उत्सव में सब होना चाहिए। आप ये काम करेंगे हमे पूरा विश्वास है। एक बार फिर आपको धन्यवाद देते हुए विदा लेना चाहता हूँ। धन्यवाद।।
जय हिन्द, जय भारत!!
आरिफ मोहम्मद खान, माननीय गवर्नर, केरल राज्य, भारत।