आधुनिकता की व्याख्या,परिभाषा और संकल्पना कहीं से धर्मान्धता और स्खलित सामाजिक जीवन की कामना पर आधारित नहीं थी जहाँ धर्म, मानवीयता के आड़े आ मनुष्य को रैशनल होने से बाधित कर देI आधुनिक होने का व्यापक अर्थ मानव मुक्ति में देखा गया था वही मुक्ति और मानव के मान की संकल्पना जो पंद्रहवीं सदी में मैथिल दार्शनिक विद्यापति(उन्हें महज कवि कोकिल बना उनके दार्शनिक, सामाजिक सन्दर्भ को अनदेखा किया गया है) स्थापित करते हैं, अठारहवीं सदी में पश्चिमी दार्शनिक हीगेल करते हैं|
धर्म अनिवार्य रूप से एक निजी चेतना और कार्यकलाप का विषय था, इसकी अंतरंगता आत्मा से थी यह बाह्य आग्रह की कामना से मुक्त क्षेत्र था जो अंततः व्यक्ति को पुरुषार्थ के अंतिम चरण मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता था। यह बाह्य प्रदर्शन से मुक्त था, विद्यापति की यह संकल्पना आज बेहद आवश्यक विमर्श का बिंदु है। विद्यापति लोक संसार को एक विषद मुक्तिगामी चरित्र में देख रहे थे, जहां जनलोकोपकारी जो भी है वह सर्वश्रेष्ठ है। वह अभिजात्य के विलासिता से प्रेम और कामानूभूति को बाहर निकाल आम लोक को उनको ही नायकत्व प्रदान कर एक समष्टिवाचक दिशा में ले गये, उनके नायक जन-नायक कृष्ण हैं जो सभी बंधनों से मुक्त सिर्फ लोक के हैं।
फोटो: पूजा झा
आज के समय में हम जब धर्म और सामाजिक सरोकारों के द्वंद्व से जूझ रहे हैं तो ऐसे में क्या हमारे पूर्ववर्ती समाज से कुछ लिखित या मौखिक परंपरा की विरासत है जिसका फलक सर्वकालिक हो, शाश्वत हो, ऐसे में विद्यापति की पदावलियाँ जो कि संस्कृत में ना होकर देसिल बयना मैथिली में लिखी गयीं, का आशय हमें समझना होगा, इन पदावलियों का उद्देश्य जनसामान्य के बीच आनंद अनुभति के संचार का था, आम जन के कामनुभुती को वृहत, विषद रूप देकर पुरुषार्थ के परम लक्ष्य निर्वाण या मानव मुक्ति का था,
यह उनका सामाजिक सरोकार ही था जो कमानुभुती को अभिजात्य का अनुभव मात्र नहीं मानकर एक गाइडबुक रच रहा था जो जनसामान्य की भाषा में, उनके एक अन्तरंग संसार का निर्माण कर रही थी, उन्हें संक्रमण के काल में(हालाँकि कुछ विद्वान इसे संक्रमण और संस्कृत के अवसान का काल नहीं मानते क्यूंकि मिथिला में अनेकों साहित्यिक और दर्शन(नब्न्याय) सम्बन्धी नए ग्रन्थ खूब लिखे जा रहे थे) उनकी लोकभाषा, मातृभाषा के जरिये एक संबल प्रदान कर रहा था, ऐसा सामाजिक-भाषाई सन्दर्भ हमें सामुदायिक सिद्धांत व्याख्या में बिरले ही मिलता है, तभी तो चैतन्य उनके पदों में परमानन्द की अवस्था को प्राप्त करते थे I
साथ ही, विद्यापति की ही एक अन्य रचना, पुरुषपरीक्षा, जो जेंडर विषयक/सम्बन्धी भारतीय परंपरा में लिखी गयी पहली और आखिरी पुस्तक मानी जा सकती है(जिसका अनुवाद ग्रिएर्सन ने टेस्ट ऑफ़ मैन, १८३६ में किया और सिविल सर्विसेज के प्रशिक्षुओं के लिए यह पुस्तक अनिवार्य कर दी गयी क्यूंकि वस्तुतः इसे एक नीति नियामक ग्रन्थ माना गया जो पुरुषार्थ के लिए गुणों को अनिवार्य मान धर्म, अर्थ काम, मोक्ष के सन्दर्भ में पुरुष की अवधारणा कायम कर रहा था, चरित्र निर्माण कर रहा था जिसमें गुण महज शारीरिक भर नहीं थे) के धर्म सम्बन्धी अवधारनाओं की तरफ जब हम देखते, समझते हैं तो विद्यापति का धर्म महज निजी और शुद्ध निजी व्यापार(प्राइवेट अफेयर) है,
पब्लिक/सार्वजनिक उद्घोष की उसमें तनिक भी गुंजाईश नहीं हैI साथ ही, मोक्ष भी सामाजिक दायित्वों से प्रस्थान नहीं हैं बल्कि व्यक्ति को मोक्ष सामाजिक सरोकारों के जरिये ही हासिल हो, ऐसी प्रस्तावना हैI पुरुषपरीक्षा का पुरुष एक ऐसी लैंगिक अवधारणा है जो अपने सेक्युलर स्वरुप में धर्म को निजी रखता है, शौर्य के गुणों को लेकर एक नितिनियामक समाज का सरोकार रखता/रखती है(यहाँ पुरुष जैविक अर्थ में नहीं है) I
फोटो: पूजा झा
विद्यापति ही एक अन्य रचना कीर्तिलता में लिखे महज तीन शब्द “जीवन मान सौं(लाइफ विथ डिग्निटी)” जब जीवन कैसा हो की इतनी समीचीन और अस्मिता परक व्याख्या करते हैं तो आश्चर्य होता है कि क्या नए सन्दर्भों के सामाजिक आंदोलनों का भान और रूपरेखा हमें कितनी सरलता से महज तीन शब्दों में मिल जाता है, कैसे आम जन की चिंता एक संस्कृत विद्वान को देसिल बयना तक ले आती है और कैसे मोक्ष और पुरुषार्थ अपने विषद रूप में जनसामान्य को प्राप्य बनाया जा सकता है, क्या यही सामाजिक सरोकार और धर्म की सेक्युलर व्याख्या, बिना वर्ण/जाति के पुरुष की अवधारणा हमें किसी और दार्शनिक, साहित्य या राज्य निर्देश में नीति पाठ बना कर निर्देशित कर पा रहीं हैं या यह नीति हीन, धर्महीन, लोकहीन समाजिक सरोकारों का दौर है जिसमें हम धर्मांधता के द्वंद्व में फँस गए हैं?