वनक श्रृंगार
July 31, 2023
श्वेत हिरण सन सरपट दौड़ैये
दिन दुर्निवार
तैयो कुसुमक कली-कली करैये
वनक श्रृंगार
बहय पछवा आ कि पुरबा
बेमाय हमरे टहकत
दरकत हमरे ठोर
जेना पड़ल हो खेत बीच दरार
साझी दलान बटल
पड़ल पुरान आंगनमे नव देबाल
नई बनत आब सांगह
हमर घरक….
ई टूटल हथिसार
सागर मोनमे आस्ते-आस्ते
उतरैये डगमग करैत नाह
हाथ नै पतवार
आंखिमे जंगलक अन्हार
सगरो इजोत ता’ बिदा होइत छी,
खूजल अइ छोटछीन खिडकी
मुदा अपन घरक निमुन्न अइ केवाड़
के मारल गेल, पकड़ल के गेल
से कह’ आ ने कह’
भोरक अखबार
मुदा सेनुरसँ ढौरल अइ हमर चिनवार
कोइली कुहुकि-कुहुकि कहत
कखन हैत भोर आ
कत’-कत’ अइ ऊँच पहाड़
कारी सिलेट पर
लिखल अइ बाल-आखर
जेना सड़क पर सगरो
छिड़िआएल हो सिंगरहार
अग्निपुष्पक “वनक शृंगार”क हिन्दी अनुवाद ( साहित्य अकादमी से सम्मानित प्रोफेसर भीमनाथ झा द्वारा)
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वन का शृंगार
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श्वेत हिरण सा दौड़ रहा है सरपट
दिन दुर्निवार
फिर भी कुसुमों की कलियां करती हैं
वन का सिंगार
जो भी बहे
पुरबैया या पछिया
टहकेंगी दर्द से बिवाइयाँ
अपने ही पैरों की
दरकेंगे अपने ही होंठ
मानो खेतों में पड़ी हों दरार
बँट गया साझा दालान
खड़ी हो गई पुराने आंगन में
नई एक दीबार
अब नहीं बनेगी ‘सांगह’ अपने घर की
टूटी हुई यह हथसार
अपने इस सागर-मन में
धीरे-से उतरती है डगमगाती डोंगी
हाथ में नहीं पतवार
आँखों में निविड़ वन का अंधेरा
उजाला है हर ओर
तभी विदा होता हूँ मैं,
छोटी-सी खिड़की है खुली हुई
मगर खुद के घर का दरबाजा है बन्द पड़ा
कौन गया मारा
पकड़ा गया कौन है
कहे, न कहे सो
सुवह का अखबार
मगर सेनुर से पुता हुआ है
मेरा ‘चिनवार’
कोकिला की कूक तो कहेगी ही
कब होगी भोर
और कहाँ-कहाँ है ऊँचा पहाड़
काली स्लेट पर
लिखा है बाल-आखर
जैसे सड़क पर बिखरा हुआ हो हरसिंगार